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'मरता आदमी झूठ नहीं बोलता', सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नहीं माना और हत्या के दोषी को बरी कर दिया

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की वजह जानना बहुत जरूरी है.

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निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी, सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया. (फाइल और प्रतीकात्मक फोटो: आजतक)

सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा पाए एक कैदी को बरी कर दिया है. ये कहते हुए कि सिर्फ 'मौत से पहले दिए गए बयान' के आधार पर किसी को दोषी नहीं माना जा सकता. इस कैदी को दो पीड़ितों के बयान के आधार पर सजा सुनाई गई थी. दोनों पीड़ितों के बयान उनकी मौत से पहले दर्ज किए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मरने से पहले दिए गए बयानों पर भरोसा करते समय 'बहुत सावधानी' बरती जानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने एक कैदी को बरी किया

ऐसा कहा और बहुत हद तक ये माना जाता है कि ‘मरता आदमी झूठ नहीं बोलता’. हालांकि, इंसाफ की अदालत में सिर्फ इस आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर ये बात कही है. इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि कोर्ट के लिए इस पर संतुष्ट होना जरूरी है कि मौत से पहले दिया गया बयान सच है और अपनी इच्छा से दिया गया है. केवल तभी ऐसे बयान किसी का दोष साबित करने का आधार बन सकते हैं. 

सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी मौत की सजा पाए एक कैदी की अपील पर आई है. बुधवार, 23 अगस्त को तीन जजों की बेंच ने इस कैदी को बरी कर दिया. कोर्ट ने दोहराया कि इस तरह के हर मामले में मरने से पहले दिए गए बयान के साथ ही रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्य और दूसरी बातों का उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

निचली अदालत ने मौत की सजा दी थी

इरफान नाम के व्यक्ति को उसके दो भाइयों और बेटे की हत्या का दोषी ठहराया गया था. आरोप था कि साल 2014 में इरफान ने अपने दो भाइयों और बेटे को सोते समय आग लगा दी थी. दावा किया गया था इसके बाद उन्हें कमरे में बंद कर दिया गया था. इस मामले में कहा गया था कि इरफान ने उनकी हत्या इसलिए की थी क्योंकि मृतक उसकी दूसरी शादी से नाराज़ थे. आग लगने की घटना के बाद तीनों पीड़ितों को पड़ोसियों और परिवार के दूसरे सदस्य बचाकर हॉस्पिटल ले गए थे, लेकिन आखिर में तीनों की मौत हो गई थी.

हॉस्पिटल में एडमिट होने के दो दिन के अंदर एक पीड़ित की मौत हो गई थी. वहीं बाकी दो पीड़ितों की मौत 15 दिन के अंदर हो गई थी. पुलिस ने दो पीड़ितों के बयान उनके मरने से पहले दर्ज किए थे. इन दो बयानों के आधार पर सत्र अदालत ने 2017 में इरफान को दोषी करार दिया था. बाद में 2018 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहकर छोड़ दिया?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ 'मौत से पहले दिए गए बयान के आधार पर दोष सिद्धि' सेफ नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी.आर गवई, जस्टिस जे.बी पारदीवाला और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की तीन जजों की बेंच ने कहा,

“ये ठीक है कि मरने से पहले दिया गया बयान एक ठोस साक्ष्य है. इस पर भरोसा किया जा सकता है, बशर्ते ये साबित हो कि बयान स्वैच्छिक और सच्चा था और पीड़ित की मानसिक स्थिति ठीक थी.”

इरफान के वकील ने मौत से पहले दिए गए पीड़ितों के बयान की विश्वसनीयता, उनकी हालत और बयान दर्ज करने के तरीके पर सवाल उठाया था. कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में सिर्फ ‘मौत से पहले दिए गए दो बयानों’ के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराना मुश्किल है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए इरफान को बरी करने का फैसला सुनाया.

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