"दसों साल में एक बार कोई फांसी होती है. मुझे अफज़ल गुरु की फांसी का इंचार्ज बनाया गया था, मैं हेडक्वार्टर से उसको सुपरवाइज कर रहा था. वैसे तो जेल के सुपरिटेंडेंट इंचार्ज होते हैं लेकिन मुझे हेडक्वार्टर से भेजा गया था."
फांसी की चिट्ठी अफज़ल को मिली ही नहींफांसी के बारे में सुनील गुप्ता बताते हैं कि अफज़ल गुरु उन्हें पहले से जानता था. वो भी उसे देख चुके थे. अफज़ल के घरवालों को 2 दिन पहले ही फांसी के बारे में बता दिया गया था. उसे भी चिट्ठी लिखकर इसकी सूचना दी गई. लेकिन वो उस तक पहुंची ही नहीं. अफज़ल की ये चिट्ठी उसकी फांसी के बाद पहुंची.
4 रस्से टूटे, फिर मिला फांसी का फंदासुनील कहते हैं कि वो अफज़ल की फांसी के बारे में ज्यादा लोगों को नहीं बताना चाहते थे. ऐसे में वो एक दिन पहले ही सुपरिटेंडेंट के साथ जेल पहुंच गए थे. अंदर फांसी की तैयारी हो रही थी. जेलर साहब रस्से देख रहे थे. हमारे कानून के हिसाब से आरोपी के वजन से दोगुने भार को फांसी पर लटकाना होता है. ताकि रस्से की मजबूती चेक की जा सके. सुनील कहते हैं,
"हमने 4 बार चेक किया. ये चारों रस्से टूट गए. हमने अफज़ल के वजन, उससे ज्यादा, दोगुना वजन चेक किया. लेकिन सारे रस्से एक-एक कर टूटते जा रहे थे. मैं डर गया कि अब सरकार को क्या जवाब दूंगा. बाद में हमने और रस्से चेक किए. वो ठीक निकले. हमें लगा कि अब काम हो जाएगा."
फिर जल्लाद नहीं मिलासुनील बताते हैं कि फांसी के रस्से बक्सर जेल में बनते हैं. वहां गंगा के पास होने वाले बांसों के रस्से मजबूत होते हैं. उन्होंने आगे बताया,
"अफज़ल की फांसी के लिए हमें कोई जल्लाद नहीं मिल रहा था. वैसे तो जल्लाद की ज़रूरत नहीं होती. कोई भी फांसी दे सकता है. केवल एक लिवर खींचना होता है. रस्से को ठीक तरह से बांधना होता है. अगर आपने रस्सा ठीक से नहीं बांधा तो कई बार दिक्कत हो सकती है. लेकिन फांसी कोई भी दे सकता है. हमारे सिपाही तो बड़े खुश होकर फांसी देते हैं. उनके लिए ये एक खेल की तरह होता है."
अफज़ल समझ गया था उसे फांसी होगीसुनील गुप्ता फांसी के दिन का ज़िक्र करते हुए बताते हैं,
"मैं सुबह-सुबह अफज़ल गुरु के पास पहुंचा. मुझे देखते ही उन्होंने कहा कि सर आज कुछ फांसी वगैरह दे रहे हो? तो मैंने पूछा कि तुम्हें कैसे पता. इस पर कहने लगे कि एक तो आपके दर्शन हुए हैं सुबह-सुबह. दूसरा मुझे रात को अलग बंद कर दिया था."
सुनील कहते हैं,
"हमारा कानून कहता है कि जिसे फांसी देनी होती है उसे 24 घंटे निगरानी में रखना होता है. सिपाही, सीसीटीवी से उस पर निगाह रखी जाती है. मैंने अफज़ल गुरु से कहा कि हां, आज आपको फांसी देने जा रहे हैं. मैंने पूछा आप चाय पियेंगे? तो उन्होंने कहा कि हां, आप आए हैं तो आपके सबके साथ चाय पियूंगा."
कहता था भ्रष्टाचार हटाने के लिए काम कियासुनील आगे बताते हैं कि चाय खत्म करने के बाद अफज़ल ने उनसे कुछ अटपटा कहा था. लेकिन वो उसकी आखिरी इच्छा समझ कर मान गए.
"उसने कहा, कि मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं आतंकवादी नहीं हूं. अगर मैं आतंकवादी होता तो अपने बच्चे को डॉक्टर नहीं बनाता. उसका बच्चा एमबीबीएस कर रहा था. मैं उसे भी आतंकवादी बनाता लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूं. मैं हमेशा सच के साथ रहा हूं. पीयूसीएल का एक्टिव मेंबर रहा हूं. मैंने हमेशा अपने देश को मजबूत करने, यहां से भ्रष्टाचार को हटाने के लिए काम किया है."
"मैंने उससे पूछा कि क्या वो अपने घर पर कुछ कहना चाहता है? उसने अपनी पत्नी को चिट्ठी लिखी, इसमें कहा कि मैं भगवान की इच्छा पूरी कर रहा हूं. इसलिए मैं जा रहा हूं. हमारे बेटे की पढ़ाई पूरी कराना. वहां सबको बोलना कि शांति बनाए रखें. ये चिट्ठी उर्दू में लिखी गई थी."
फांसी पर जाते हुए जेलर की आंखों में देखने की मांगसुनील गुप्ता कहते हैं,
"इसके बाद उसने मुझसे कहा कि मुझे आपकी आंखों में बहुत कंपेशन नज़र आ रहा है. मैं चाहता हूं कि फांसी होते समय मैं आपकी आंखों में देखता रहूं. मैंने सोचा ये कैसी मांग है. आप इसे आखिरी इच्छा कह सकते हैं. लेकिन मैं इसकी मंजूरी दे सकता था. मैंने कहा ठीक है तू मेरे को देखते रहना."
हंसते-गाते, नाचते हुए फांसी पर लटका अफज़लवो आगे बताते हैं कि अफज़ल ने उनसे गाना गाने के लिए कहा. वो बोला,
"मैं आपको गाना सुनाना चाहता हूं. मुझे फांसी इसलिए मिल रही है क्योंकि मैं हमेशा लोगों का भला चाहता था."
सुनील कहते हैं,
"फिर उसने गाना गाना शुरू कर दिया. संजीव कुमार की एक फिल्म बादल का. ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, जी ऐ दिल ज़माने के लिए...’ वो खुश होकर नाचते हुए गाना गा रहा था. हम भी उसके साथ गाने लगे."
उसकी फांसी के समय सिपाही, सुपरिटेंडेंट सब साथ में खड़े थे. एक जज साहब भी आए थे. वो भी वहां रहे. अफज़ल की फांसी के बाद जब सुनील घर पहुंचे तो देर तक उसकी बात उनके दिमाग में घूमती रही.
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