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G20 का नाम भी बदल जाएगा, PM मोदी के एलान से हुआ साफ़

क्या है अफ्रीकन यूनियन, जो इस समूह में शामिल हुआ?

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प्रधानमंत्री मोदी ने अफ्रीकन यूनियन के अध्यक्ष अजाली असौमानी का गले लगाया (फोटो- Narendra Modi/Twitter)

18वां G20 समिट नई दिल्ली में इस घोषणा के साथ शुरु हुआ कि अब अफ्रीकन यूनियन (AU) भी इस समूह का स्थायी सदस्य होगा. इस नई एंट्री के साथ अब G20 समूह का नाम बदल जाएगा और वह G21 कहलाएगा. 

समिट के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ्रीकन यूनियन की सदस्यता का प्रस्ताव पेश किया और बाक़ी देशों ने इस पर अपनी सहमति दी. अफ्रीकन यूनियन 55 अफ्रीकी देशों का संगठन है. 

नई घोषणा के बाद G21 में 19 देश, यूरोपीय यूनियन और अफ्रीकन यूनियन शामिल होंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने जून में ही अफ्रीकी यूनियन को G20 में शामिल करने के लिए सभी सदस्य देशों को पत्र लिखा था.

G20 समिट के स्वागत भाषण में प्रधानमंत्री ने बताया कि "सबका साथ" की भावना से ही भारत ने यह प्रस्ताव रखा था. इसकी घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, 

"मेरा विश्वास है कि इस प्रस्ताव पर हम सबकी सहमति है. आप सबकी सहमति से आगे की कार्यवाही शुरू करने से पहले, मैं अफ्रीकन यूनियन के अध्यक्ष को G20 के स्थाई सदस्य के रूप में अपना स्थान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करता हूं."

इसके बाद प्रधानमंत्री ने अफ्रीकन यूनियन के अध्यक्ष अजाली असौमानी का गले लगकर स्वागत किया. आपको बताते हैं अफ्रीकी यूनियन के बारे में और यह भी कि इस एंट्री से बदलेगा क्या:

क्या है अफ्रीकन यूनियन?

यह 55 अफ्रीकी देशों का संगठन है. यानी अफ्रीका महाद्वीप के सभी देश इसके सदस्य हैं. आधिकारिक रूप से इसकी शुरुआत साल 2002 में हुई थी. हालांकि इसका इतिहास 60 साल पुराना है. 

पहली बार मई 1963 में 32 अफ्रीकी देश ऐसा समूह बनाने की परिकल्पना के साथ मिले थे. ये मीटिंग हुई इथोपिया में. तब जो संगठन बना, उसका नाम पड़ा- ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी (OAU). उद्देश्य था कि अफ्रीकी देशों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को साथ मिलकर सुलझाया जाए. साथ ही, अफ्रीकी देशों में स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे लक्ष्यों को हासिल करना. इनमें सबसे बड़ा लक्ष्य था अफ्रीका को उपनिवेशवाद से छुटकारा दिलाना और अफ्रीकी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की सुरक्षा करना.

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सितंबर 1999 में लीबिया में ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी की बैठक के दौरान अफ्रीकन यूनियन बनाने की घोषणा हुई. फिर, जुलाई 2002 में डरबन में आधिकारिक रूप से इसे लॉन्च किया गया. साल 2004 में यूरोपियन यूनियन की तरह अफ्रीकन यूनियन ने भी संसद स्थापित की. इस संसद में अफ्रीकी देशों के मुद्दों पर चर्चा होती है. बाद में अफ्रीकन यूनियन ने शांति और सुरक्षा परिषद, वित्तीय संस्थान, मानवाधिकार और न्यायिक संस्थान भी स्थापित किए.

जिन देशों में तख्तापलट होते हैं या लोकतंत्र नहीं रहता, उन देशों की सदस्यता भी रद्द कर दी जाती है. लोकतंत्र क़ायम होता है तो सदस्यता बहाल हो जाती है. मिसाल के तौर पर, साल 2009 में मेडागास्कर में और 2012 में माली में तख्तापलट के बाद अफ्रीकन यूनियन ने इन देशों की सदस्यता रद्द कर दी थी. शांति के बाद दोबारा इन्हें शामिल किया गया.

इस यूनियन की अध्यक्षता हर साल बदलती रहती है. फिलहाल पूर्वी अफ्रीकी देश कॉमरोस के राष्ट्रपति अजाली असौमानी यूनियन के अध्यक्ष हैं. फरवरी 2023 में वो संगठन के अध्यक्ष बने थे. यूनियन की एक असेंबली भी है, जिसमें सदस्यों देशों के राष्ट्राध्यक्ष साल में कम से कम एक बार मिलते हैं. इसके अलावा एक एग्जिक्यूटिव काउंसिल होती है, जिसके सदस्य विदेश मंत्री होते हैं.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में अफ्रीकन स्टडीज के प्रोफेसर अजय दुबे बताते हैं कि 2002 में संगठन बनने के बाद इन देशों में ज्यादा एकजुटता नहीं बनी. अजय दुबे के मुताबिक, 

"अफ्रीकी यूनियन के बजट का 65 फीसदी हिस्सा बाहर से आता है. संगठन ने 2063 एजेंडा लागू किया हुआ है, इसलिए बहुपक्षीय मंचों पर भागीदारी बढ़ा रहा है. ये सभी अफ्रीकी देशों के लिए जरूरी है."

अफ्रीकी यूनियन यानी 55 अफ्रीकी देशों की कुल जीडीपी 3 ट्रिलियन डॉलर के करीब है. यानी करीब 250 लाख करोड़ रुपये. ये आंकड़ा भारत की जीडीपी से भी कम है. भारत की जीडीपी का आकार है 3.7 ट्रिलियन डॉलर. माने 303 लाख करोड़ रुपये.

यहां ये बताना जरूरी है कि साउथ अफ्रीका पहले से G20 का सदस्य है.

भारत की छवि होगी मजबूत

JNU की प्रोफेसर गायत्री दीक्षित मानती हैं कि अफ्रीकन यूनियन के शामिल होने से भारत की छवि मजबूत होगी. गायत्री के मुताबिक, भारत का ज्यादातर अफ्रीकी देशों के साथ संबंध अच्छा है. इस डेवलपमेंट से अब उन देशों के साथ रिश्ते और द्विपक्षीय संबंध भी मजबूत होंगे.

भारत G20 की अध्यक्षता मिलने के बाद से ही अफ्रीकन यूनियन की सदस्यता की पैरवी कर रहा था. इससे संदेश जाता है कि भारत ध्रुवीकरण तोड़कर विकासशील देशों में बराबरी का हिमायती है. यह भारत की छवि के लिए अच्छा साबित होगा.

जियोपॉलिटिक्स में एक शब्द चर्चित है- ग्लोबल साउथ. यानी वर्ल्ड मैप पर दक्षिण का क्षेत्र. साउथ अमेरिका, अफ्रीका और एशिया का हिस्सा इसमें शामिल है. इन महाद्वीपों के बड़े देशों में भारत, चीन और ब्राजील शामिल हैं. हालांकि वर्ल्ड मैप को देखेंगे तो ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी दक्षिण में हैं, लेकिन इन्हें ग्लोबल साउथ का हिस्सा नहीं माना जाता है. कहा जा रहा है कि भारत इस 'ग्लोबल साउथ की आवाज' बन रहा है.

गायत्री दीक्षित बताती हैं कि अब अफ्रीकी देशों के लोगों के मुद्दे भी G20 के मंच पर उठाए जा सकेंगे. इन देशों की आबादी बहुत ज्यादा है. गायत्री के मुताबिक, 

"भारत इसे प्रमोट कर रहा है. ऐसे में भारत की नेतृत्व क्षमता पर भरोसा बढ़ेगा. ग्लोबल साउथ में पूरा अफ्रीका महाद्वीप आता है. अब अफ्रीकी देश अपने आर्थिक मुद्दे और जलवायु से जुड़े मुद्दे G20 के मंच पर रख सकेंगे. अब तक ये देश इस ग्रुप से कटे हुए थे. लेकिन अब G20 के मंच पर उनकी आवाज सुनी जाएगी."

प्रोफेसर गायत्री दीक्षित यह भी मानती हैं कि G20 जैसा मंच मिलने से अफ्रीकन यूनियन की ताकत भी बढ़ेगी. पहले इन देशों को इस तरह का बड़ा वैश्विक मंच नहीं मिलता था, लेकिन अब वो व्यापार से लेकर दूसरे क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप कर सकेंगे.

प्रोफेसर अजय दुबे के मुताबिक, अफ्रीकन यूनियन के आने से G20 देशों को भी फायदा मिलेगा. क्योंकि अफ्रीका प्राकृतिक संसाधनों से भरा महाद्वीप है. 65 फीसदी खेती योग्य जमीन है. 10 परसेंट जमीन से पूरी दुनिया को खिला सकता है. ऐसे में अफ्रीकन यूनियन की बातों को सुनना बहुत जरूरी है. उनके मुद्दों को अब तक विकसित देशों के प्लेटफॉर्म पर ज्यादा नहीं सुना जाता था. अब ये होगा कि उसके साथ व्यापार और दूसरे रिश्ते भी बढ़ेंगे. 

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