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अमरमणि त्रिपाठी और मधुमिता हत्याकांड की पूरी कहानी

मधुमिता हत्याकांड ने चार बार के विधायक अमरमणि त्रिपाठी को अर्श से फर्श पर ला पटका.

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जेल से रिहा हुए अमरमणि त्रिपाठी (फोटो: इंडिया टुडे)

कवि सम्मेलनों के मंच पर जब महिलाएं की गिनती न के बराबर होती थी. तब 26 साल की एक लड़की वीर रस की कविताएं पढ़कर अपनी पहचान बना रही थी. लेकिन इससे पहले कि दुनिया उसे कविताओं से जानती वो खुद ही खबर बन चुकी थी. 9 मई, 2003 को गोली मारकर उसकी हत्या कर दी जाती है. उसी के घर पर ही उसकी लाश मिलती है. उस लड़की का नाम था मधुमिता शुक्ला. और अखबारों की हेडलाइन बनी मधुमिता हत्याकांड में यूपी सरकार में मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी का नाम आया.

9 मई, 2003. लखनऊ के निशातगंज इलाके में मधुमिता शुक्ला के घर में ही उसकी लाश मिलती है. उसे गोली मारी गई थी. मुख्यमंत्री आवास से सिर्फ 5 किलोमीटर की दूरी पर मर्डर हुआ था. लेकिन मामला तब और उलझ गया जब पोस्टमॉर्टम में पता चला कि हत्या के दौरान मधुमिता गर्भवती थी. और यहां से इस केस में एंट्री होती है मधुमिता की बहन निधि शुक्ला का. निधि शुक्ला ने आरोप लगा उसकी बहन के संबंध बसपा नेता अमरमणि त्रिपाठी के साथ थे.

और इसके बाद शुरू हुई राजनीति. अमरमणि तब बसपा में था. सूबे की मुख्यमंत्री मायावती पर आरोप लगे कि वो अमरमणि को बचा रही हैं. 2 जुलाई, 2003 के इंडिया टुडे मैग्जीन के एडिशन में संवाददाता सुभाष मिश्र ने लिखा कि मायावती अमरमणि को दोबारा मंत्री बनाना चाहती थी. लेकिन केंद्र सरकार ने उनपर ऐसा न करने का दबाव बनाया. और मामले को CBI को सौंपने को कहा. तब इस केस की जांच यूपी पुलिस की CID टीम कर रही थी. लेकिन राजनीतिक दबाव बढ़ने पर मायावती ने इस केस की जांच CBI को सौंप दी.

राजनीति में अपराध नहीं देखा जाता. देखा ये जाता है कि अपराध करने वाला कौन है. वो हमारे खेमे का है या विरोधी है. ऐसा हम क्यों कह रहे हैं. ये समझने के लिए आपको मायावती के तब के कुछ बयानों पर गौर करने की जरूरत है. 2003 की 9 मई को मधुमिता की हत्या हुई थी. इंडिया टुडे मैग्जीन की रिपोर्ट के मुबातिक
- 17 मई, 2003 को मायावती ने लखनऊ के SSP की टीम की तारीफ की. लेकिन फिर जांच CBI को सौंप. मायावती ने अमरमणि को पार्टी से बर्खास्त कर दिया. ये कहते हुए कि दोष सिद्ध नहीं हुआ तो अमरमणि को बहाल कर दिया जाएगा.
- 21 मई, 2003 को मायावती ने वाराणसी के पास चिरईगांव विधानसभा सीट के उपचुनाव में प्रचार के दौरान कहा कि समाजवादी पार्टी के कहने पर किसी ब्राह्मण को फंसाया नहीं जाएगा. यहां ब्राह्मण में उनका आशय अमरमणि त्रिपाठी की तरफ था.
- 17 जून को मायावती कहती हैं कि अगर मधुमिता की मां अमरमणि को लिखित क्लीनचिट दे दें तो उन्हें सरकार में वापस लिया जा सकता है.
- 20 जून को मधुमिता की मां ने संदिग्ध परिस्थितियों में अमरमणि को क्लीन चिट दे दी. तब मायावती का बयान आया कि मधुमिता की मां का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है. और ऐलान किया कि CBI की जांच में जब तक अमरमणि निर्दोष नहीं साबित हो जाते. उनकी वापसी नहीं हो नहीं सकती.

केस पर लौटेंगे लेकिन पहले जानने की कोशिश करते है कि ये अमरमणि त्रिपाठी है कौन? अमरमणि त्रिपाठी उन नेताओं में से था जो उस दौर में हर बदलती सत्ता का ज़रूरी हिस्सा हुआ करते था. पूर्वांचल के नेता हरिशंकर तिवारी के राजनीतिक वारिस था. लगातार 6 बार विधायक रहे तिवारी की विरासत को आसानी से समझने के लिए जान लीजिए कि वो जेल से चुनाव जीतने वाले पहले नेताओं में से एक था. अमरमणि त्रिपाठी लगातार 4 बार यूपी की नौतनवा विधानसभा से चुनकर आया. यूपी में 2001 में राजनाथ सिंह की सरकार में अमरमणि मंत्री भी रहा. लेकिन मधुमिता शुक्ला हत्याकांड ने अमरमणि को अर्श से फर्श पर लाकर पटक दिया.

CBI के रजिस्टर में केस दर्ज होने के बाद मामले की परतें खुलनी शुरू हो गईं. अमरमणि ने कहा कि हत्या के समय मधुमिता के गर्भ का उनसे कोई लेना-देना नहीं है. CBI ने DNA टेस्ट कराया और ये खुलासा हो गया कि मधुमिता के पेट में पल रहा गर्भ अमरमणि का ही है. और तब जांच में ये बात सामने आई कि इस पूरे हत्याकांड की साजिश रची थी अमरमणि त्रिपाठी की पत्नी मधुमणि त्रिपाठी ने.

अमरमणि यूपी में मंत्री रह चुके थे. बाहुबलियों में गिनती होती थी. आरोप लगे कि केस को प्रभावित कर रहे हैं. तब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि मधुमिता हत्याकांड की जांच को यूपी से उत्तराखंड ट्रांसफर कर दिया. आखिरकार, 2007 में अमरमणि त्रिपाठी, उसकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उसके भतीजे रोहित चतुर्वेदी समेत चार लोगों को 26 साल की मधुमिता शुक्ला की हत्या और हत्या की साजिश रचने के आरोप में दोषी करार दिया गया.

अमरमणि ने हाईकोर्ट में अपील की, लेकिन कोई राहत नहीं मिली. 2012 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अमरमणि समेत चारों दोषियों की उम्रकैद की सजा बरकरार रखी. हमें एक नजर उत्तराखंड हाई कोर्ट के उस जजमेंट पर भी डालने की जरूरत है जिसमें उसे उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. उत्तराखंड हाई कोर्ट के तब के चीफ जस्टिस बरिन घोष ने अपने फैसले में कहा कि-
- अमरमणि त्रिपाठी, मधुमणि त्रिपाठी, रोहित चतुर्वेदी और संतोष राय ने मधुमिता की हत्या और हत्या की साजिश रचने के आरोप में दोषी पाया गया.
- हत्या की साजिश साल 2003 के मार्च, अप्रैल और मई के महीने में अमरमणि के घर पर रची गई थी. ये जानते हुए कि मधुमिता गर्भवती थी. ये साजिश रची थी अमरमणि, मधुमणि और रोहित चतुर्वेदी ने.
- अमरमणि ने मधुमिता के गर्भ को भी नष्ट करने की कोशिश की थी. ताकि उसपर शक की सुई न जाए.
- जिस समय मधुमिता की मौत हुई उसका गर्भ 7 महीने का था.
- कोर्ट ने चारों दोषियों को उम्र कैद की सजा सुनाई और 50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया.

मधुमिता की हत्या के मामले में गिरफ्तारी के बाद से मधुमणि त्रिपाठी ने 20 साल 2 महीने और 18 दिन जेल में बिताए और अमरमणि त्रिपाठी ने 20 साल एक महीने और 19 दिन कैद रहकर काटे हैं. अमरमणि को यूपी सरकार ने 24 अगस्त की देर रात बची हुई सजा माफ करते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया. 2013 में भी अमरमणि ने यूपी के राज्यपाल से सजा माफ करने की याचिका लगाई थी. लेकिन तब की अखिलेश यादव सरकार ने इस तर्क पर याचिका से किनारा कर लिया था कि सजा तो उत्तराखंड की कोर्ट ने सुनाई है. यूपी सरकार इस पर फैसला कैसे लेगी. लेकिन इस बार यूपी सरकार ने अमरमणि और उसकी पत्नी की रिहाई का आदेश जारी कर दिया.

लेकिन 20 साल से अपनी बहन के लिए लड़ रही निधि इस फैसले से बहुत दुखी हैं. निधी का कहना है कि कोर्ट या सरकार का निर्णय तब सही होता, अगर दोनों ने वाक़ई 20 साल जेल में काटे होते.  दरअसल,  इंडियन एक्सप्रेस के मनीष साहू की रिपोर्ट के मुताबिक़, त्रिपाठी दंपत्ति ने अपना ज़्यादातर समय अस्पताल में बिताया है. "इलाज" के नाम पर. 2012 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश के बाद तो ये हाल था कि मधुमणि, बाबा राघव दास अस्पताल में भर्ती रहती थीं और अमरमणि रोज़ाना उनसे मिलने जाते थे. रोज़ाना. सुबह से शाम तक वहीं रहते थे.

मधुमणि ने एक मनोवैज्ञानिक समस्या और रीढ़ में दर्द की वजह से भर्ती होने की अपील की थी. अस्पताल के सूत्रों का कहना था कि उनकी स्थिति बहुत गंभीर नहीं थी. साइकैट्री डिपार्टमेंट ने तो ये तक कहा था कि उनकी हालत के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता और जो डॉक्टर मधुमणि को देख रहे थे, उन्होंने कुछ भी कहने से मना कर दिया. जब मीडिया में शोर मचने लगा, तब जा कर सपा सरकार ने मामले की सुध ली. मगर नतीजा, सिफ़र.

निधी ने तो यहां तक दावा किया है कि अस्पताल के बहाने दोनों इधर-उधर घूमते थे. मधुमणि ज़्यादातर अस्पताल में ही रहती थीं. अमरमणि फिज़ियोथेरेपी के लिए हर सुबह जेल से अस्पताल आते थे. अपनी गाड़ी में. जेल की वर्दी की जगह, अपने कपड़े में. इस संदर्भ में 2012 में ही उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, डीजीपी, गृह सचिव और गोरखपुर के SP और DM को चिट्ठी भी लिखी थी. निधी बस इतना चाहती थीं, कि दोनों को अपने किए के लिए सज़ा मिले. क़ैद के जो क़ानूनी प्रावधान हैं, वैसे ही कारावास बिताया जाए.

हालांकि निधि को आज सुप्रीम कोर्ट से निराशा हाथ लगी. जस्टिस अनिउद्ध बोस और बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने अमरमणि की रिहाई पर रोक लगाने से मना कर दिया और साथ में यूपी सरकार को आठ दिनों में लिखित में उत्तर देने के लिए कहा है.

लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है. अमरमणि जेल में रहा हो या अस्पताल में. आरोप हैं कि उसके दरबार में कभी खलल नहीं आई. अमरमणि और पुलिस के नेक्सस की एक ख़बर 2015 में भी आई थी. न्यूज़ चैनल IBN7 ने बाबा राघव दास मेडिकल अस्पताल में एक स्टिंग ऑपरेशन किया था. इसी रिपोर्ट में ये बात सामने आई थी कि पति-पत्नी अस्पताल के वॉर्ड नंबर-8 में मज़े से रहते थे. पुलिस के बावजूद इनके पर्सनल बॉडीगार्ड्स थे. जनता दरबार लगता था. अनुमति के बिना कोई अधिकारी तक नहीं मिल सकता था. माने भरपूर VVIP ट्रीटमेंट.

इतना ही नहीं अमरमणि पर ये भी आरोप लगते हैं कि उन्होंने जेल में रहते हुए न सिर्फ खुद चुनाव जीता बल्कि अपने बेटे को भी राजनीति में सेट किया. अमरमणि त्रिपाठी तब-तब खबरों में बने रहे जब-जब उनका बेटा चर्चा में आया. तो अब एक नज़र अमरमणि के सुपुत्र अमनमणि के जीवन पर डाल लेते हैं. आप गूगल पर अमनमणि टाइप करेंगे, तो बहुत देर तक तो गूगल भी कन्फूजियाया रहेगा, कि पापा या बेटा? जो दो-एक लिंक्स आपको ख़बरों की मिलेंगी, वो सपा से बसपा, किस सीट से टिकट और पत्नी की हत्या का आरोप से जुड़ी होंगी. तो आपको थोड़ा और पीछे लिए चलते हैं.

लड़कपन में अमनमणि जिस स्कूल में पढ़ते थे, वहां के एक प्रशासन अधिकारी ने इंडियन एक्सप्रेस के रामेंद्र सिंह को बताया कि अमनमणि बहुत शांत स्वभाव का बालक था. कोई झगड़ा-लड़ाई नहीं, कोई शिकायत नहीं. पड़ोसी भी इस बात की तस्दीक़ करते हैं. गाड़ी में बैठकर बाहर आता था और गाड़ी से ही वापस अंदर. कभी किसी से कोई बात-चीत नहीं. गोरखपुर के ही दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की. राजनीति में सक्रियता बढ़ी पिता के जेल जाने के बाद. 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान अमरमणि तो जेल में बंद थे. तब उनका चुनाव प्रबंधन अमन मणि ने ही किया. फिर 2009 के लोकसभा चुनावो में भी चाचा अजितमणि के लिए कैम्पेनिंग की. और, अगले ही विधानसभा चुनाव में बैग्राउंड से फ़ोरग्राउंड में आ गए.

2012 में सपा के टिकट पर नौतनवा सीट से चुनाव लड़ा. लेकिन कांग्रेस के कौशल किशोर सिंह से हार गए. हार तो गए, लेकिन प्रदर्शन अच्छा रहा. ज्यों ही सक्रिय राजनीति में घुसे, विवादों का भी अंबार लगने लगा. जून 2014 में उनके ख़िलाफ़ दो मामले दर्ज किए गए थे - उनके समर्थकों की झड़प हुई थी. बाद में उन पर दलित उत्पीड़न का मुक़दमा चला. पुलिस की जांच में वो आरोप-मुक्त हो गए, लेकिन इसी मामले में एक दूसरी जांच जारी है.

अब गेयर को स्विच करना पड़ेगा. न आगे, न पीछे.. पैरलल. क्योंकि एक तरफ़ जिधर अमन मणि राजनीति में पैर जमा रहे थे, निजि जीवन में भी हलचल बनी हुई थी. उनकी मुलाक़ात हुई सारा से. सारा सिंह. उनके दोस्त-क़रीबी ठीक-ठीक ये नहीं बता पाते कि सारा और अमन मणि की पहली मुलाक़ात कहां और कैसे हुई थी. उन्हें बस इतना याद है कि सारा, पॉप म्यूज़िक पसंद करती थीं और दिल्ली जा कर किसी मल्टीनैशनल कंपनी के साथ वकील के तौर पर काम करना चाहती थीं. अमन मणि और सारा के संबंध के बारे में दोनों के घर वालों को भी बहुत पता नहीं था. अमरमणि को जब इसका पता चला, तो बहुत नाराज़ हुए. उन्होंने अपने बेटे को सारा से मिलने से रोका भी. घरवालों की मर्ज़ी और जानकारी के ख़िलाफ़ - जुलाई 2013 में - लखनऊ के एक आर्यसमाज मंदिर में अमनमणि और सारा ने शादी कर ली. शादी में कुल दो ही लोग मौजूद थे. दोनों के घरवाले बहुत ख़फ़ा हुए. अमरमणि ने तो लगभग साल भर बाद इस शादी को स्वीकारा और अमन से मिले.

अब वापस उसी टाइमलाइन पर चलिए, जहां से हमने गेयर स्विच किया था. 9 जुलाई 2015. अमन और सारा, कार से लखनऊ से दिल्ली जा रहे थे. अमन ने सारा के घर वालों को बताया कि एक मोटरसाइकल वाले को बचाने के लिए उसने अचानक गाड़ी मोड़ दी और इससे गाड़ी का हादसा हो गया. इसी सड़क हादसे में सारा की मौत हो गई. सारा के परिवार वालों ने तब ही आरोप लगाया था, कि ये एक प्री-प्लैन्ड हादसा था. फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स की भी समझ में ये नहीं आया कि ऐसा कैसा हादसा हुआ, जो सारा की जान चली गई और अमनमणि को खरोंच तक नहीं आई? सारा के परिवार की शिकायत पर पुलिस ने अमनमणि को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया. लेकिन किडनैपिंग केस में, हत्या नहीं. काफ़ी भागदौड़ के बाद हत्या का मुक़दमा दर्ज किया गया. फिर अक्टूबर 2015 में जा कर प्रदेश सरकार की सिफ़ारिश पर CBI जांच शुरू हुई. जांच अभी तक चल ही रही है.

नवंबर 2016 में CBI ने अमन मणि को गिरफ़्तार कर लिया. और इन्हीं आरोपों के चलते, सपा ने 2017 विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट देने से इनकार कर दिया. तो 17 का चुनाव उन्होंने जेल से ही लड़ा -- निर्दलीय. इस एक केस की वजह से अमनमणि नेपथ्य में चले गए. 2022 में बसपा का हाथ पकड़ लिया. आप समय का चक्कर देखिए. बीस साल पहले बसपा ने पिता से किनारा कर लिया, एक हत्या के आरोप की वजह से. तो सपा ने पिता को खुली बांहों से स्वीकार किया. 2017 में सपा ने बेटे का हाथ छोड़ दिया - वजह वही, हत्या का आरोप - तो अब बसपा ने धर लिया.

पत्नी की हत्या के अलावा भी अमन पर अपहरण का एक मुक़दमा चल रहा है, जिसमें उन्हें पहली बार जेल जाना पड़ा था. फिर बाद में छूट गए थे. अमरमणि के एक पुराने साथी ने इंडियन एक्सप्रेस के रामेंद्र सिंह से कहा था, "वो अमरमणि बनना चाहता है, लेकिन वो है नहीं."

यह था त्रिपाठी परिवार का कच्चा-चिट्ठा. तो मां-बाप और बेटा तीनों आज़ाद होंगे. 20वीं सदी के आख़िरी और 21वीं सदी के पहले दशक में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान से ऐसी कई कहानियां जिनकी कलई अब खुल रही है. जेल से रिहा होने के बाद.