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संसद में टेबल हुए महिला आरक्षण बिल का क्या इतिहास है? कब तक लागू होगा ये बिल

इतिहास में बार-बार क्यों फेल हुआ महिला आरक्षण बिल?

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संसद में महिला आरक्षण बिल टेबल होने पर खुशी मानती बीजेपी कार्यकर्ता

देश के माननीय सांसद आज पैदल जा रहे थे. ये छोटी सी पदयात्रा ऐतिहासिक थी. पुराने संसद भवन से नए संसद भवन तक. लोकसभा और राज्यसभा सांसदों के इस पूरे जत्थे को लीड कर रहे थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. उनके बाईं ओर थे गृहमंत्री अमित शाह, राज्यसभा सांसद जेपी नड्डा और दाईं ओर थे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह. वे बढ़ रहे थे और पीछे सांसदों की भीड़ चली आ रही थी. और नारे लग रहे थे-  भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे. वैसा बाल सुलभ उत्साह जैसा छात्रों में स्कूल बदलते हुए होता है. इसीलिए ली जा रही थी सेल्फियां, बनाए जा रहे थे वीडियो. देश भी कौतुक से इन सांसदों को देख रहा था. और नज़र उस पर भी थी जो इसके बाद होने वाला था. सरकार महिला आरक्षण बिल लाने वाली थी. दशकों से लटके महिला आरक्षण बिल को पूर्ण बहुमत वाली सरकार पास कराने की कोशिश में थी. आज देश की संसदीय परंपरा के इस ऐतिहासिक दिन पर बात करेंगे.

देश की संसद की कहानी बहुत अनूठी है. आजादी से शुरु करें तो इस संस्थान में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने देश की तकदीर लिखी. मिसाल के तौर पर
1 - साल 1947 में जवाहरलाल नेहरू का देश की आज़ादी के एलान का भाषण
2 - साल 1950 में संविधान लागू होने की कार्रवाई
3 - साल 1975 में देश में इंदिरा गांधी सरकार की ओर से आपातकाल की घोषणा
4 - साल 1993, नरसिम्हा राव सरकार में पंचायती राज की घोषणा

और पांचवा आज, जब महिला आरक्षण बिल के पास होने के पूरे आसार हैं. कम से कम संख्या और समर्थन देखते हुए तो यही लगता है... और ये मौक़ा आया है कई असफलताओं के बाद.  
बिल से पहले... आज के सदन की कार्रवाई को ब्रीफ़ में समझ लेते हैं.

पुराने संसद भवन के सेंट्रल हॉल से नई संसद पहुंचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सांसदों से मुखातिब हुए, तो शुरुआती मिनटों में भगवान गणेश को याद किया और कहा कि गणेश चतुर्थी पर नई संसद में आना बढ़िया अवसर है. और इसके बाद प्रधानमंत्री ने कहा मिच्छामी दुक्कड़म. क्या है मिच्छामी दुक्कड़म? प्राकृत भाषा से निकला है और मूलतः जैन धर्म में प्रचलित है. अर्थ होता है कि जाने-अनजाने में हुए बुरे कामों के लिए हमें माफ कर दें. यानी पीएम मोदी ने सदन में सभी से जाने-अनजाने में हुई भूल-चूक के लिए माफी मांगी. फिर महिला आरक्षण बिल को सदन के सामने रखा. इस बिल का नाम है - नारी शक्ति वंदन विधेयक.

क्या है ये बिल?

मोटामोटी समझते हैं. ये बिल - जो आज लोकसभा में टेबल किया गया है, उसमें प्रावधान है कि  
> लोकसभा और देश के हर राज्य और केंद्रशासित प्रदेश की विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की जाएं
> लोकसभा और देश की हर विधानसभा में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए रिजर्व सीटों का एक-तिहाई हिस्सा भी महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाए
> सीटों का ये आरक्षण 15 सालों के रोटेशन पर लागू होगा. एक सीट 15 सालों के लिए आरक्षित रहेगी. साइकिल पूरा होगा. फिर कोई दूसरी सीट 15 सालों के लिए आरक्षित हो जाएगी.
> इस बिल के प्रावधानों से राज्यसभा और विधान परिषदों को बाहर रखा गया है.  
> पास होने के बाद भी ये बिल अगले परिसीमन के बाद लागू हो सकेगा

इस पर बहस भी हुई. बहस पर आगे बढ़ने के पहले इस बिल को थोड़ा और अच्छे से जान लेते हैं. ये है संविधान का 128वां संशोधन. आप पूछेंगे कि 127 नंबर वाला संशोधन कौन सा था? वो संशोधन साल 2021 में हुआ था. इसके तहत राज्य और केंद्रशासित प्रदेश अपने यहां ओबीसी सूची बहाल कर सकते हैं. और इस तरह राज्य सरकारें अपनी सहूलियत से अलग-अलग जातियों को ओबीसी का दर्जा देकर आरक्षण और दूसरे किस्म के लाभ दे सकती हैं.


अब इस नए बिल की बात करें, तो पास होने की सूरत में इसमें संविधान के 4 अनुच्छेदों में बदलाव होगा -  
239AA - इस आर्टिकल के तहत दिल्ली की विधानसभा में रिज़र्वेशन दिया जाएगा (जी, दिल्ली की विधानसभा के लिए संविधान का अलग अनुच्छेद है)
330A - इसी आर्टिकल के तहत लोकसभा में आरक्षण दिया जाएगा
332A - इस आर्टिकल के तहत राज्यों की विधानसभा में आरक्षण दिया जाएगा
334A - इस आर्टिकल के तहत ये कहा गया कि ये कानून अगले परिसीमन के बाद लागू किया जाएगा
अगला परिसीमन कब होगा, ज़ाहिर है, ये अभी साफ नहीं है.

और फिर शुरु हुई इस बिल पर बहस. शुरुआत हुई प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के एक प्वाइंट से. जब वो महिला आरक्षण बिल को सदन के सामने रख रहे थे, तो उन्होंने कहा कि महिला आरक्षण के लिए बहुत बात हुई, बहुत विवाद हुए. साल 1996 में सबसे पहले ये बिल आया. फिर अटलजी के कार्यकाल में भी कई बार पेश किया गया, लेकिन इसे पारित कराने के लिए वो जरूरी आंकड़ा नहीं जुटा सके. फिर नरेंद्र मोदी ने कहा कि ईश्वर ने ऐसे कई पवित्र कामों के लिए मुझे चुना है. ज़ाहिर है कि वो ये कह रहे थे कि जो उनकी सरकार के पास इस बिल को पास कराने का आत्मविश्वास भी है.

लेकिन पीएम मोदी के ठीक बाद कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी बोलने के लिए खड़े हुए. उन्होंने कहा कि महिलाओं के आरक्षण को लेकर सबसे पहला कदम उठाया था राजीव गांधी ने. ये भी कहा कि राजीव गांधी का ही समय था, जब पंचायतों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया गया. फिर उन्होंने साल 2008 में यूपीए सरकार में पेश हुए महिला आरक्षण बिल की याद भी दिलाई.., बोले ये वही बिल है जो यूपीए सरकार लेकर आई थी पर प्रधानमंत्री को इसका ज़िक्र करना याद नहीं रहा.

जिस समय अधीर रंजन ने ये दावे किए, सत्ता पक्ष के खेमे से शुरु हुआ हंगामा. चूंकि पीएम मोदी ने पहले एक रोचक बात कही थी कि चुनाव कुछ दूर हैं, और आपका आचरण तय करेगा कि आप संसद में किस ओर बैठेंगे. सत्ता वाली ओर या विपक्ष वाली ओर. इसी को बहाना बनाया अधीर रंजन चौधरी ने. एनडीए के सांसदों से कहा कि आप शोर कर रहे हैं, आपका आचरण अच्छा नहीं है यानी आप प्रधानमंत्री जी का सम्मान नहीं करते हैं. यहीं पर अमित शाह खड़े हुए, कहा कि अगर अधीर रंजन चौधरी का दावा पक्का है, तो वो इससे संबंधित साक्ष्य सदन के पटल पर रखें. लेकिन सदन की कार्रवाई जब आगे बढ़ी तो ये बात रह गई.

फिर आए अर्जुन राम मेघवाल. बतौर कानून मंत्री (स्वतंत्र प्रभार). उनको बिल को आधिकारिक रूप से इंट्रोड्यूस कराने की अनुमति चाहिए थी. ये बिल संविधान में 128वें संशोधन की संस्तुति करता है. जैसे ही अर्जुन राम मेघवाल ने ये बिल इंट्रोड्यूस किया, इस बार विपक्ष की ओर से हंगामा शुरु हो गया. विपक्ष की ओऱ से कहा गया कि उन्हें बिल की कॉपी नहीं दी गई थी. तब लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि नई व्यवस्था है, आपके सामने डिजिटल किऑस्क है, वहां बिल की कॉपी पहले ही अपलोड कर दी गई है. यानी सिस्टम हार्ड कॉपी से अब सॉफ्ट कॉपी का हो गया है. 
 
बात आगे बढ़ी. अर्जुन राम मेघवाल ने अधीर रंजन चौधरी के दावे पर आपने तथ्य पेश किए. कहा कि आपकी सरकार ने साल 2008 में महिला आरक्षण बिल पेश किया, 2010 में राज्यसभा से पास हुआ. लेकिन साल 2014 में ये बिल लोकसभा में लैप्स कर गया.  

अभी तो ये बिल बस टेबल हुआ है. बिल पर बहस कल से शुरु होगी. लेकिन टेबल होते हुए बिल ने बहुत सारे सवाल छोड़े हैं. कैसे ये बिल प्रकाश में आया? नेताओं के पहले के क्या प्रयास थे? और उस समय ये प्रयास क्यों फेल हुए? राजनीतिक कहानी शुरु होती है राजीव गांधी के कार्यकाल से. लेकिन उसके बहुत पहले साल 1971 में कुछ ऐसा हुआ कि भारत सरकार को दबी जुबान में ही सही, पर लिखित में स्वीकारना पड़ा कि देश में महिलाओं के पास समानता नहीं है.

साल 1971 में भारत सरकार के पास संयुक्त राष्ट्र से एक चिट्ठी आई. चिट्ठी में पूछा गया कि साल 1975 में पड़ने वाले अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के पहले महिलाओं की स्थिति क्या है. शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय ने एक कमिटी बनाई. कमिटी ने रिपोर्ट बनाई, इस रिपोर्ट का शीर्षक था- "Towards Equality" - बराबरी की ओर.  रिपोर्ट का शीर्षक ही बताता है कि तब देश में महिलाओं की स्थिति बराबर नहीं थी, लेकिन बराबरी की ओर थी. इस रिपोर्ट में ये बात लिखी गई कि भारत लैंगिक बराबरी को लेकर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी उठाने में विफल रहा. यानी इसी देश में ऐसे मौके भी आए जब सरकारों ने लिखित में अपनी कमियों को स्वीकार किया. इसके बाद जुगत शुरु हुई. राज्यों ने इस पर विचार करना शुरु किया कि पंचायत और निकाय चुनावों में महिलाओं को आरक्षण मिले.

साल 1987. राजीव गांधी की सरकार थी. राजीव गांधी ने आरक्षण पर काम करना शुरु किया. एक कमिटी बनाई. इस कमिटी में 14 मेम्बर थे, इस कमेटी को लीड कर रही थीं केंद्रीय मंत्री मारगरेट अल्वा. अगले साल यानी 1988 में इस कमिटी ने एक रिपोर्ट दाखिल की. इस रिपोर्ट ने 353 सुझाव दिए. एक सुझाव था कि चुनाव में महिलाओं के लिए आरक्षण शुरु किया जाए.

साल 1989. राजीव गांधी की सरकार ने विधेयक पेश किया. नगर पालिकाओं और पंचायतों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने के लिए. ये बिल लोकसभा में पास हो गया, राज्यसभा में पास नहीं हो पाया. साल 1993. सरकार बदल गई थी. प्रधानमंत्री थे PV नरसिम्हा राव, उन्होंने फिर से राजीव गांधी वाले बिल पेश किए, बिल दोनों सदनों में पास हो गए. पंचायत और पालिका स्तर पर महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण मिलने लगा.  

ये बातें कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने अपने ट्विटर  - अब  एक्स खाते - पर भी लिखीं. जयराम रमेश ने 17 सितंबर को ये पोस्ट लिखी थी. और एक बात और नत्थी कर दी थी कि कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने सरकार से महिला आरक्षण बिल पेश करने की मांग की है. बात आगे बढ़ती है. ध्यान रहे कि अभी तक हो रही कार्रवाईयां ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं तक ही सीमित थी. विधानसभा और संसद की बात शुरु नहीं हुई थी. कब शुरु हुई?

साल 1996. देवगौड़ा सरकार थी. सरकार ने सदन में बिल टेबल किया. ये बिल आज पेश किए गए बिल का आधार था. क्योंकि इस बिल में भी कहा गया था कि लोकसभा और विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हों. बिल सेलेक्ट कमिटी के पास गया. दोनों सदनों में पेश हुआ. पास नहीं हो सका. लेकिन इस साल जदयू नेता शरद यादव का बयान आज भी चर्चा के केंद्र में है. शरद यादव ने कहा था -  

"क्या आप परकटी महिलाओं को सदन में लेकर आना चाहते हैं?"

सफाई आई थी कि शरद यादव का आशय एलीट महिलाओं को लेकर था. उन्होंने सफाई दी और बाद में आपने बयान के लिए माफी मांगी. साल 1997. देवगौड़ा का इस्तीफा हुआ. इन्द्रकुमार गुजराल पीएम बने. बिल को फिर पेश किया गया. बहसें हुईं. नहीं पास हो पाया. साल 1998. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई. ( इस साल इस बिल को लेकर खासा बवाल हुआ था). कानून मंत्री ताम्बी दुरई ने महिला आरक्षण बिल टेबल किया. सदन ने एक सीन देखा. राजद सांसद सुरेंद्र प्रकाश यादव और अजीत कुमार मेहता ने मंत्री के हाथ से बिल की कॉपी छीनी और उसे फाड़ दिया. इस बिल पर बहस होती रही. जुलाई में आए बिल की बहस दिसंबर तक खिंच गई. और हद तो तब हो गई जब ममता बनर्जी ने सपा सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कॉलर पकड़ लिया. क्यों? क्योंकि ममता दरोगा प्रसाद को स्पीकर की कुर्सी तक पहुंचने से रोकना चाहती थीं. ममता बनर्जी उन दिनों इस बिल को पेश करवाने के लिए ख़ासा प्रोटेस्ट कर रही थीं, सरकार पर दबाव बना रही थीं.  

साल 1999. वाजपेयी सरकार अविश्वास प्रस्ताव हार गई. सरकार गिरी. बिल लैप्स कर गया. वाजपेयी चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनकर आए. बिल फिर से पेश किया गया. कानून मंत्री थे वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी. बहस शुरु हुई. एक राय नहीं बन सकी. चुनाव आयोग ने भी पार्टियों से राय मांगी. कहीं से कोई एकमत सुनाई नहीं देता था. फिर असफलता हाथ लगी थी.

लेकिन बार-बार हो रही इस असफलता के पीछे कोई तो कारण होगा? कारण था - पिछड़ी जातियों की महिलाओं को आरक्षण देने का मुद्दा. दरअसल जब भी इस बिल पर गतिरोध हुए तो सपा-राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का कहना था कि महिलाओं को SC ST कोटे में आरक्षण देने की बात तो बिल में कही जा रही है, लेकिन OBC महिलाओं के लिए कोई बात नहीं है. इससे संसद में ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व घटेगा. आज भी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियों ने ये मांग दोहराई है.

साल 2008. देश को सफलता दिखनी शुरु हुई. पार्टियों से मीटिंग के बाद तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यसभा में बिल पेश किया. साल 2010 में राज्यसभा से बिल पास हो गया. बिल को कभी भी लोकसभा मेँ पेश नहीं किया जा सका. क्योंकि यूपीए के घटक दलों को इससे दिक्कत थी. लालू-मुलायम जैसे साथी यूपीए से दूर हो गए. ममता बनर्जी भी अपने कारणों से गठबंधन से अलग हो गईं. भाजपा और लेफ्ट ने इस बिल पर कांग्रेस का साथ दिया था. चुनाव हुए. कांग्रेस हारी. लोकसभा भंग हुई, बिल लैप्स कर गया. लेकिन रोचक है उस समय हुई बहसें.

हालांकि यहां बता दें कि सोनिया गांधी, अधीर रंजन चौधरी और जयराम रमेश समेत बहुत सारे कांग्रेस नेता यही कह रहे हैं कि मौजूदा बिल वही है जो कांग्रेस 2008 में लाई थी. जयराम रमेश ने लिखा है कि राज्यसभा में पेश/पारित किए गए विधेयक समाप्त (Lapse) नहीं होते हैं। इसलिए महिला आरक्षण विधेयक अभी भी जीवित (Active) है.

लेकिन सरकार ने वही बात की. लोकसभा भंग होने से बिल भी लैप्स कर गया. लेकिन बिल के सामने आने के बाद विरोध शुरु हुए हैं. विपक्षी पार्टियों का कहना है कि चूंकि ये बिल परिसीमन के बाद लागू होगा, और परिसीमन नई जनगणना के बाद ही होगा, तो ऐसे में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के पहले ये बिल लागू नहीं हो सकेगा.  

अब ये बिल सामने है तो बहसें होंगी. कल जब संसद के दोनों सदन फिर से बैठेंगे तो अपने-अपने तर्कों के साथ बैठेंगे, लेकिन उन तर्कों में इतनी गुंजाइश जरूर होगी कि पंचायतों से लेकर लोकसभा तक महिलाएं दिखेंगी. उनका प्रतिनिधित्व दिखेगा, उनकी आवाज़ें सुनाई देंगी.