नरेंद्र मोदी सरकार. सख्त फैसले लेने वाली सरकार. जो किसी भी हद तक जाने से घबराती नहीं है. इस लाइन पर पहला फैसला था - नोटबंदी. 8 नवंबर 2016. रात का वक्त था. दिन मंगलवार था, तो ऑफिस से थके हारे घर लौटे लोग चाय नाश्ता कर रहे थे. कुछ लोगों के डिनर का भी वक्त हो गया था. जैसे ही रात के 8 बजे, सारे न्यूज़ चैनल पर एक साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिखाई पड़ने लगे. टीवी पर आने के साथ ही उन्होंने कहा कि कुछ गंभीर विषय और कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर चर्चा करूंगा. इस दौरान पीएम मोदी ने मई 2014 से लेकर नवंबर 2016 तक की देश की आर्थिक स्थिति पर चर्चा की और इसकी मज़बूती के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों का हवाला दिया. इसके अलावा गरीबों की बात करते हुए अनेक योजनाओं को गिनाया और फिर अचानक से कहा कि 8 नवंबर 2016 की रात 12 बजे से 500 और 1000 रुपये के नोट बंद कर दिए जाएंगे. प्रधानमंत्री ने इसके पीछे कई तर्क दिए. कहा कि नोटबंदी के बाद भ्रष्टाचार, कालाधन, सीमापार आतंकवाद, जाली नोट और देश में फैली नक्सल समस्या पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. मोदी सरकार के इस फैसले को हम नोटबंदी, विमुद्रीकरण या डिमोनेटाइजेशन नामों से जानते हैं.
नोटबंदी के बाद 2 हजार का नोट नहीं चाहते थे PM मोदी, क्या खुलासा हुआ?
क्या सरकार नोटबंदी के मकसद को पूरा कर पाई?
इस फैसले के बाद लोगों में अफरा-तफरी मच गई. बैंकों में पैसे जमा करने वालों की लाइन लग गई. अमीर से अमीर और गरीब से गरीब आदमी बैंकों की लाइन में लगकर अपने नोट बदलवाने की जुगत करता रहा. कहीं पैसा नहीं मिला. कहीं काम धंधे बंद हो गए. एक के बाद एक दिल दुखाने वाली ख़बरें आईं. लोगों को शादियों के लिए पैसे नहीं मिल रहे थे. बारात लौट रही थी. अस्पतालों में इलाज तक के पैसे नहीं थे. एक महीने में ही क़रीब 100 से ज्यादा मौतें हो गईं थी. इनमें से ज़्यादातर मौतें बैंक में पैसे जमा करने और निकालने के लिए लगी लाइन में हुई थीं. किसी को हार्ट अटैक आया था, तो कोई बीमारी की वजह से मर गया था.
लेकिन सरकार अपनी बातों पर कायम रही. कि उसकी नीयत में कोई खोट नहीं था. और उसका लक्ष्य जनकल्याण का था. तो क्या हुआ, जो कथित काला धन चलन से बाहर होना था, वो बैंकों के माध्यम से RBI के पास ही लौट आया. तो क्या हुआ, जो सरकार अब काला धन विरोधी दिवस नहीं मनाती. तो क्या हुआ अगर सरकार अब नोटबंदी का नाम तक नहीं लेती. फैसला सख्त था, इससे तो कोई इनकार नहीं करता. लेकिन अब सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया है, जिसने नोटबंदी के आलोचकों के हाथ में हथियार पकड़ा दिया है. 2000 के नोट अब चलन से बाहर हो गए हैं. क्या अब वाकई मान लिया जाए कि ये प्रयोग पूरी तरह विफल रहा? या अब भी कोई तर्क है, जिसके पीछे सरकार छिप सकती है.
8 नवंबर 2016 तक देश में कुल 17.50 लाख करोड़ रुपए के नोट थे. इनमें से 15.50 लाख करोड़ रुपए के नोट पांच सौ और हजार के थे, जो उस समय कुल करेंसी का लगभग 88% थी. और मार्केट से करेंसी का इतना बड़ा हिस्सा अचानक से बाहर हुआ तो उसे भरने के लिए 2 हजार का नोट लाया गया. कहा गया कि अर्थव्यवस्था में करेंसी की जरूरत को तेजी से पूरा करने के लिए 2 हजार के नोट लाए गए.
अब बीती 19 मई को RBI ने ‘क्लीन नोट पॉलिसी’ के तहत 2000 रुपये के नोटों को चलन से वापस लेने का निर्णय लिया है. और ये क्लीन नोट पॉलिसी क्या है?
क्लीन नोट पॉलिसी के जरिए RBI जनता को बेहतर सुरक्षा सुविधाओं के साथ अच्छी क्वालिटी के करेंसी नोट और सिक्के देने का प्रयास करती है. जबकि गंदे और कटे-फटे नोटों को चलन से बाहर कर दिया जाता है. RBI ने अपनी प्रेस रिलीज में कहा है कि जिन लोगों के पास 2000 के नोट हैं, वो उसे बैंक में जमा करा सकते हैं या उसके बदले दूसरे नोट ले सकते हैं. बैंकों को कोई दिक्कत ना हो, इसके लिए नोट बदलने की सीमा 20 हजार रुपये रखी गई है. यानी एक बार में आप 20 हजार तक के नोट एक्सचेंज कर सकते हैं. यह सुविधा 23 मई से शुरू होगी और 30 सितंबर तक जारी रहेगी. इसके अलावा RBI की 19 क्षेत्रीय शाखाओं में भी नोट एक्सचेंज किए जा सकेंगे. RBI ने बैंकों को सलाह दी है कि वे 2000 के नोट तत्काल प्रभाव से जारी करना बंद कर दें.
पिछले साल नवंबर में एक RTI से जानकारी मिली थी कि RBI ने पिछले दो साल से ज्यादा समय में 2 हजार के नोटों की प्रिंटिंग नहीं की है. इकॉनमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण ने RTI के जवाब में बताया था कि वित्त वर्ष 2016-17 में 2 हजार वाले 354 करोड़ रुपये के नोट छापे गए थे. फिर इसकी छपाई तेजी से घट गई. अगले साल सिर्फ 11 करोड़ रुपये और फिर उसके अगले साल यानी 2018-19 में सिर्फ साढ़े 4 करोड़ रुपये के नोट छापे गए. जब मार्केट में छोटे नोटों की पर्याप्त आपूर्ति हो गई तो 2018-19 में 2000 के नोटों को छापना बंद कर दिया गया. आरबीआई के अनुसार, 2000 के 89% नोट मार्च 2017 से पहले जारी किए गए थे. तो अब यहां पर सवाल ये है कि अब जब 2 हजार के नोट को चलन से बाहर करने का फैसला किया गया है तो क्या फिर से एक बहुत बड़ा करेंसी गैप अर्थव्यवस्था में नहीं आ जाएगा?
बात छपाई की हो रही है तो ये भी समझ लेते हैं कि नोट छापने में कितना खर्च आता है? और पहले 2 हजार के नोट छापने और फिर उसे चलन से बाहर करने से क्या नफा-नुकसान हुआ?
अभी देश में 10, 20, 50, 100, 200, 500 के नोट छपते हैं. कुछ समय पहले तक 2 हजार का नोट भी लिस्ट में हुआ करता था. 2018 में लगाई गई एक RTI के जवाब में इंडिया टुडे को सरकार ने बताया था कि 10 रुपए का एक नोट छापने में 1 रुपए 1 पैसे का खर्च आता है. 20 रुपए का नोट छापने में 1 रुपए का खर्च आता है. 50 रुपए का नोट छापने में भी वही खर्च आता है जो 10 रुपए का नोट छापने में यानी 1 रुपए एक पैसे. 100 रुपए का नोट छापने में 1 रुपए 51 पैसे का खर्च आता है. 500 रुपए का नोट छापने में 2 रुपए 57 पैसे का खर्च आता है. 2 हजार रुपए का नोट छापने में 4 रुपए 18 पैसे का खर्च आता है. RBI ने 19 मई की प्रेस रिलीज में बताया था कि मार्च 2018 के दौरान कुल 6 लाख 73 हजार करोड़ रुपये के 2000 नोट मार्केट में मौजूद थे. ये पीक था. यानी इस हिसाब से देखें तो कुल 336 करोड़ 50 लाख नोट मार्केट में थे. अगर छपाई की लागत 4 रुपये 18 पैसे से गुना करें तो 2000 के नोटों की छपाई में कुल लागत 1406 करोड़ की आई थी.
अब यहां सवाल ये कि क्या 2 हजार का नोट लाने के पीछे जो उद्देश्य था, वो पूरा नहीं हो पाया?
इसके लिए पहले पैसे के मूलभूत उद्देश्य समझिए. पैसे के तीन मूलभूल उद्देश्य/फंडामेंटल पर्पज होते हैं.
1. मूल्य का भंडार- यानी नोट की जो वैल्यू आज है वही कल भी होगी. 100 रुपए का नोट आज भी 100 का रहेगा और कल भी. ये घटेगा या बढ़ेगा नहीं.
2. खाते की इकाई. यानी करेंसी या नोट ऐसे होने चाहिए जिसके जरिए हम किसी भी चीज की कीमत लगा सकें.
3. लेन-देन का माध्यम. नोट या करेंसी ऐसा होना चाहिए जिसका इस्तेमाल आसानी से लेन-देन में किया जा सके. इंडियन एक्सप्रेस के डिप्टी एसोसिएट एडिटर उदित मिश्रा लिखते हैं कि 2 हजार का नोट इसी उद्देश्य में फेल हो गया. जैसे- 100 रुपए के नोट का इस्तेमाल आसानी से लेन देन के लिए किया जा सकता है लेकिन 2 हजार के नोट का नहीं. जब 2 हजार का नोट मार्केट में आया तो काफी दिक्कतें हुई. 2 हजार का नोट तो सब के पास था लेकिन इसका छुट्टा मिलना मुश्किल था. लेन-देन के माध्यम के रूप में इसका उपयोग सीमित था.
अब एक बार फिर से नोटबंदी पर आते हैं. जिस धूम-धड़ाके के साथ नोटबंदी का परिचय देश से कराया गया था अगले कुछ सालों में ये गायब सा हो गया. एक साल बाद यानी 8 नवंबर 2017 को सरकार ने काला धन विरोधी दिवस मनाया. इसी दिन प्रधानमंत्री मोदी के यूट्यूब चैनल पर कुछ वीडियो प्रकाशित हुए. इनमें दावा किया गया कि कैसे नोटबंदी के चलते आतंकवाद, नक्सलवाद और हवाला का कारोबार कम हुआ. क्योंकि 6 लाख करोड़ के हाई वैल्यू नोट प्रभावी रूप से कम हुए. कश्मीर में पत्थरबाज़ी और देश में ड्रग्स के खेल पर अंकुश लगा. लेकिन अगले कुछ सालों में इस नोटबंदी पर सरकार की ओर से टिप्पणी या प्रतिक्रिया आनी खत्म सी हो गई.
जैसे 8 नवंबर 2018 को छपी इंडिया टु़डे की एक रिपोर्ट बताती है कि नोटबंदी से पहले जितना कैश बाज़ार में था, उससे ज़्यादा 2018 में बाज़ार में लौट आया. 2021 आते आते तो कैश की मात्रा 64 फीसदी बढ़ गई. कैश था, तो कैश के चलते जो समस्याएं थीं, वो भी वैसी की वैसी रहीं. रही बात अधिकारियों के यहां बिस्तर के नीचे से निकलने वाली धनराशि की, तो पहले उसमें 500 और 1000 के नोट होते थे, अब 2000 के होते. अगस्त 2018 में, RBI ने ख़ुद जानकारी दी थी कि 500 रुपये और 1,000 रुपये के पुराने नोटों में से 99.3 प्रतिशत बैंकों में वापस आ गए हैं. केवल 0.7 प्रतिशत मुद्रा बची रह गई थी.
नोटबंदी चर्चा में लौटी 2023 की शुरुआत में. वाया सुप्रीम कोर्ट. नोटबंदी सही क़दम था या ग़लत? आला अदालत में नोटबंदी के अलग-अलग पहलुओं को चुनौती देने वाली कुल 58 याचिकाएं दायर की गई थीं. जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामासुब्रमण्यन और बीवी नागरत्ना की संवैधानिक बेंच ने 2 जनवरी 2023 को इस केस में फ़ैसला सुनाया. फ़ैसले पर भी आएंगे. पहले तर्क और दलीलें जान लीजिए.
पेटिशनर्स की तरफ़ से पूछा था गया कि इस क़दम का मक़सद तो पूरा हुआ ही नहीं? देश के पूर्व गृह मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीवी चिदंबरम ने तर्क रखा कि सरकार ने नोटबंदी के जो उद्देश्य बताए थे, वो सब झूठे थे. न नोटबंदी से वो पूरे हुए, न पूरे हो सकते थे. आरोप ये भी लगाए गए कि सरकार ने RBI का उल्लंघन किया है. केंद्र सरकार का दावा था कि वो RBI ऐक्ट की धारा 26 (2) के तहत मुद्रा को विमुद्रीकृत कर सकती है. लेकिन, चिदंबरम ने तर्क दिया कि प्रावधान केवल मुद्रा की एक ख़ास सीरीज़ को डिमॉनेटाइज़ करने की अनुमति देता है. जबकि सरकार ने तो सभी 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों बंद कर दिए. इसे संदर्भ में रखते हुए उन्होंने 1946 और 1978 की मिसाल दी. जब तत्कालीन वैध करेंसी नोटों की केवल एक सीरीज़ बंद की गई थी.
इन आरोपों पर सरकार का तर्क क्या था? सरकार ने तो यही कहा कि ये एक सोचा-समझा हुआ फ़ैसला था. और, नोटबंदी लागू करने से 9 महीने पहले फरवरी 2016 से ही इस बारे में RBI से मशवरा चल रहा था. RBI ने भी यही कहा कि उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था और उन्होंने ही सरकार से नोटबंदी की सिफ़ारिश की थी. हालांकि, इस तरह की भी ख़बरें आई थीं कि RBI ने नोटबंदी को लेकर कई असहमतियां जताई थीं. और, घोषणा के कुछ ही घंटे पहले इन्हें रिकॉर्ड में रखा गया था. इसके अलावा, अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणि ने नोटबंदी के पक्ष में कहा था कि इससे डिजिटल इकोनॉमी में बढ़ोतरी हुई है. टैक्स कलेक्शन में बेहतरी हुई है. चिदंबरम के आरोप का जवाब देते हुए कहा कि किसी ख़ास सीरीज़ को बंद करते तो जनता कन्फ़्यूज़ हो जाती.
अब ये तो हुई दलीलें. फ़ैसला क्या आया था? फ़ैसला आया सरकार के पक्ष में. पांच में से चार जजों ने नोटबंदी को क्लीन चिट दे दी. अदालत ने कहा कि सरकार का फ़ैसला वैध है और टेस्ट ऑफ़ प्रपोर्शनालिटी पर खरा उतरता है.
फ़ैसला जल्दबाज़ी में लिया गया, इस पर कोर्ट ने कहा कि अगर ये ख़बर लीक हो जाती, तो कल्पना करना मुश्किल है कि क्या होता? पांच में से बस एक जज, जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा कि जिस तरह से नोटबंदी की गई, वो ग़ैर-क़ानूनी है. लेकिन फ़ैसले के छह साल बाद कुछ नहीं किया जा सकता था. उन्होंने अपनी टिप्पणी में ये भी कहा था कि RBI बोर्ड की राय "स्वतंत्र और स्पष्ट" होनी चाहिए थी.
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