अमेरिका से करीब 12 हज़ार किलोमीटर दूर है मिडिल ईस्ट का इलाका. यहां के 11 देशों में अमेरिका ने करीब 70 सैन्य अड्डे बना रखे हैं. हज़ारों सैनिक लगा रखे हैं. एयरफोर्स और नौसेना भी तैनात की हुई है. लेकिन अमेरिका ने क्यों मिडिल ईस्ट में इतनी ताकत झोंक रखी है? इसका सबसे बड़ा कारण ईरान माना जाता है जो कोल्ड वॉर के शुरुआती दिनों में अमेरिका का साथी था. लेकिन फिर आईं 1979 की सर्दियां और ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति. इसके बाद ईरान की तस्वीर बदली. साथ ही बदले अमेरिका से उसके रिश्ते. अब दोस्त, दोस्त ना रहा.
ईरान के पास अमेरिका और इजरायल की आंख में उंगली देने की हिम्मत आती कहां से है?
जब अमेरिका की दुनिया में रंगबाजी टाइट है, तो ईरान उसका लोड क्यों नहीं लेता? जरा सोचिए, दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश ने उसको घेर रखा है. इसके बाद भी ईरान खुलेआम एटम बॉम्ब बनाने की कोशिश कर रहा है.
जब अमेरिका की दुनिया में रंगबाजी टाइट है, तो ईरान उसका लोड क्यों नहीं लेता? जरा सोचिए, दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश ने उसको घेर रखा है. इसके बाद भी ईरान खुलेआम एटम बॉम्ब बनाने की कोशिश कर रहा है. अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद ईरान अपने सहयोगी गुटों के समूह- एक्सिस ऑफ़ रेज़िस्टेंस को फंडिंग कर रहा है. और, जब हिजबुल्लाह का लीडर नसरल्लाह इजरायल के हाथों मारा जाता है, तो बदला लेने के लिए ईरान सैकड़ों मिसाइलें दाग देता है. ईरान इतना बेखौफ होना कैसे अफोर्ड कर पाता है?
मिडिल ईस्ट में ईरान vs अमेरिका क्यों?साल 1908. जॉर्ज रेनॉल्ड्स ने ईरान में कच्चे तेल के कुएं ढूंढ निकाले. ये भंडार ब्रिटेन की नज़रों में आ गया. लेकिन इस पर हक़ जमाना आसान नहीं था. तो ब्रिटेन ने एक प्लान बनाया. लंदन में एक कंपनी रजिस्टर हुई. नाम- एंग्लो पर्शिया ऑयल कंपनी. इसने ईरान में तेल निकालना शुरू किया. पहली फुर्सत में ही तेल के इस खेल में कूद पड़ी ब्रिटेन की सरकार.
1914 में ब्रिटेन की सरकार ने इस कंपनी के ज्यादातर शेयर्स खरीद लिए. माने अब बर्तानिया हुकूमत ईरान में काम कर रही एक ऑयल कंपनी की मालिक हो चुकी थी. साल 1935 में एक एग्रीमेंट साइन हुआ. इसमें लिखा था कि ब्रिटेन सरकार के मालिकाना हक वाली ये कंपनी कच्चे तेल के हर एक टन के बदले ईरानी सरकार को 4 ब्रिटिश पाउंड दिया करेगी. बदले में ईरानी हुकूमत कंपनी को क्या देगी? फ्री हैंड. कि ईरान सरकार इस कंपनी के काम में कोई दख़ल नहीं देगी.
माने इस कंपनी ने ईरान में ही तेल निकालने के लिए ईरान की ही सरकार से एक डील की और ईरान की ही सरकार को ऑयल इंडस्ट्री से बाहर कर दिया.
समय बीता तो धीरे-धीरे ईरान को समझ आया कि ये तो खेल हो गया उनके साथ. ऑयल इंडस्ट्री पर विदेशी कंपनियों का कंट्रोल अब ईरान को खटकने लगा. और इसी के ख़िलाफ़ ईरान में हुआ विद्रोह, जिसके बाद 1951 में ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादिक ने पेट्रोलियम इंडस्ट्री को नेशनलाइज कर दिया. माने पूरी इंडस्ट्री सरकार के अधीन आ गई. ये ब्रिटेन और उसके परम मित्र अमेरिका के इंटरेस्ट के लिए खतरे की घंटी थी.
अमेरिका की इंटेलिजेंस एजेंसी CIA और ब्रिटेन की इंटेलिजेंस एजेंसी MI6 ने ईरान में तख्तापलट की साज़िश रचनी शुरू कर दी. प्लान बना और सफल भी हुआ. 1953 में प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादिक को हटा कर मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी को सत्ता सौंपी गई. पहलवी प्रो अमेरिका थे, इसलिए ब्रिटेन और अमेरिका के इंटरेस्ट सलामत रहे. लेकिन पहलवी की लिबरल और वेस्टर्न नीतियों से देश में एक बड़ा वर्ग, जो धार्मिक मान्यता को केंद्र में रखता था, उनके खिलाफ हो गया. पहलवी शाह थे, तो उनके महंगे-महंगे शौक और उनकी सरकार में फैले करप्शन से भी लोग परेशान हो गए.
वक्त का चक्का फिर घूमा. 1979 में खेल ईरान के पक्ष में पलटा. ईरानी क्रांति के बाद देश एक इस्लामिक रिपब्लिक बन गया. और एक नारा खूब सुना गया, ख़ूब लगाया गया- Marg bar America यानी ‘अमेरिका की मौत हो’.
ईरान में मौजूद अमेरिकी दूतावास में काम करने वाले डिप्लोमैट्स को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया. एक तरफ तेल के व्यापार पर अमेरिका की पकड़ कमज़ोर हुई, दूसरी तरफ अमेरिकी डिप्लोमैट्स के साथ ऐसा व्यवहार. अमेरिका के लिए ये ‘हमारी जेल में सुरंग’ वाला मोमेंट था. यहां से दोनों देशों के रिश्ते चटक गए. वजह- कच्चा तेल.
कच्चे तेल में इन दोनों देशों के इंटरेस्ट को यूं समझिए कि ईरान दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादकों में से एक है. तेल और गैस का ईरान की सरकारी आय में 50 से 80 फीसद हिस्सा है. दूसरी तरफ है अमेरिका. उसके पास खुद के लिए पर्याप्त ऑयल रिजर्व हैं. लेकिन अमेरिका का ध्यान दुनिया के एनर्जी मार्केट्स को कंट्रोल करने पर है, ताकि उसकी जियोपॉलिटिकल पावर बरकरार रहे. इसीलिए अमेरिका चाहता है कि मिडिल ईस्ट में उसकी धमक बनी रहे.
अब 1979 में इस्लामिक क्रांति के बाद जब अमेरिका को मिडिल ईस्ट में अपना प्रभुत्व कम होता दिखा तो उसने 1980 से 1988 तक ईरान-इराक युद्ध में इराक को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया. अमेरिका और ईरान के बीच दुश्मनी की एक वजह इज़रायल भी है. 1979 के बाद ईरान खुद को मुस्लिम देशों का नेता मानता है, ख़ासकर शिया समुदाय का. इसलिए फिलिस्तीन विवाद और इज़रायल-सीरिया की लड़ाई की वजह से इज़रायल भी ईरान के दुश्मनों में शुमार हो गया. दोनों देश एक-दूसरे के सामने सीना ताने खड़े रहते हैं. इसकी वजह को और विस्तार से समझते हैं.
ईरान की ताकत- धर्मयुद्ध और कट्टरपंथ1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद अयातुल्लाह ख़ुमैनी के नेतृत्व में एक नया ईरान उभरा. इस क्रांति का असर सिर्फ ईरान तक सीमित नहीं था, बल्कि इसकी गूंज पूरे मिडिल ईस्ट में सुनाई दी. ईरान की नई हुकूमत ने खुद को दबे-कुचले मुसलमानों, खासकर शियाओं का नेता घोषित कर दिया, जो सुन्नी डोमिनेटेड सरकारों के राज में लंबे समय से हाशिये पर थे. इसने न सिर्फ़ ईरान की महत्वाकांक्षाओं को हवा दी, बल्कि उसे रीजनल लेवल पर कई नॉन स्टेट एक्टर्स को बनाना और उन्हें पोषित करने का मौका दिया. इन नॉन स्टेट एक्टर्स को सरकार के कुछ उदाहरणों से समझते हैं.
1 - हिजबुल्लाहसबसे बड़ा उदहारण है हिजबुल्लाह. 1982 में इज़रायल के लेबनान आक्रमण के खिलाफ हिजबुल्लाह का गठन हुआ. आज हिजबुल्लाह एक ताकतवर मिलिट्री और पॉलिटिकल चरमपंथी संगठन बन चुका है. हिजबुल्लाह के लीडर हसन नसरल्लाह, जिसे कुछ दिन पहले इजरायल ने एक एयरस्ट्राइक में मारा, वो बार-बार इस बात को मानता रहा कि हिजबुल्लाह का अस्तित्व ईरान के बिना संभव नहीं था.
Hezbollah के पास सटीक और दूर तक मार करने वाले रॉकेट और ड्रोन्स जैसे हथियार हैं. कई मीडिया रिपोर्टों और एक्सपर्ट्स के मुताबिक हिजबुल्लाह के पास ऐसे करीब एक लाख रॉकेट्स हैं. Sky news में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ईरान, हिजबुल्लाह को हर साल सैकड़ों मिलियन डॉलर की मदद पहुंचाता है. इसकी मदद से हिजबुल्लाह ने क़रीब 20 हज़ार सैनिकों की सेना बनाई है. ये नंबर्स हमें इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्ट्डीज नाम के एक थिंक टैंक की रिपोर्ट से मिले हैं.
2- इराक में वर्चस्व2003 में अमेरिका और उसके साथियों, जैसे ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और पोलैंड की सेना इराक़ में घुसी. इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार कर 2006 में फांसी दे दी गई. इराक़ की अस्थिरता का ईरान ने फायदा उठाया. उसने देश के शिया राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व के साथ संबंध स्थापित किए. सद्दाम के बाद एक प्रो-ईरानी, शिया डोमिनेटेड सरकार स्थापित करने की कोशिश की.
इसके साथ ही ईरान ने कई कट्टरपंथी संगठनों, जैसे कि पॉपुलर मोबिलाइजेशन फोर्सेस (यानी- PMF) को इराक़ की राजनीति और सैन्य मामलों में पकड़ बनाने में मदद की. PMF के कई सदस्यों की ट्रेनिंग इस्लामिक रेवलूशनरी गार्ड्स कोर (IRGC) ने की है. असल में ईरान में दो सेनाएं हैं. एक है, कन्वेक्शनल आर्मी, जैसी हर देश में होती है. दूसरी है IRGC. इसका काम है इस्लामिक क्रांति के बाद उभरी सत्ता को डिफेंड करना.
PMF ने इराक में ISIS को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. साल 2022 में कॉउन्सिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स में एक आर्टिकल छपा था. इसमें लिखा था कि ISIS की हार के बाद इराक में ईरान का प्रभाव पिछले 2 दशकों में काफी बढ़ा है. लेकिन अभी इराक की माइनॉरिटीज, जैसे कुर्द, उनके खिलाफ हैं. कुर्दों ने ईरान में होने वाले एंटी हिज़ाब मूवमेंट का समर्थन भी किया था. लेकिन इसी आर्टिकल के मुताबिक ईरान का बढ़ता इन्फ्लुएंस अमेरिका को काफी चिंतित कर रहा है. क्योंकि इस वजह से इराक पर अमेरिका की पकड़ लगातार कमजोर हो रही है.
3- सीरियालेबनान और इराक़ के अलावा ईरान का प्रभाव सीरिया तक भी फैला हुआ है. 2011 में सीरिया में गृह युद्ध हुआ. इसमें ईरान ने Al assad या असद परिवार का समर्थन किया था. 1971 में बाथ पार्टी ने सीरिया में तख्तापलट किया. तब से यहां असद परिवार का राज है. 1979 में ईरानी क्रांति के बाद दोनों देशों में अच्छी दोस्ती हो गई. असद डायनेस्टी की मदद के लिए ईरान ने IRGC के सैनिकों और हिजबुल्लाह लड़ाकों की तैनाती की थी. जिसने असद सरकार को सत्ता में बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई थी.
4- यमनजब एक पतली सी पानी की स्ट्रिप दो समुद्रों को जोड़ती है तो उसे स्ट्रेट कहते हैं. समुद्री व्यापार के लिए ये स्ट्रेट्स एक चोक पॉइंट्स की तरह होते हैं.
ऐसी ही एक स्ट्रेट बाब अल-मंडाब लाल सागर को अरब सागर से जोड़ता है. इस रास्ते से यूरोप और एशिया के बीच रोज़ाना 24 हज़ार करोड़ से लेकर 74 हज़ार करोड़ रुपये का व्यापार होता है. माने ये पॉइंट ब्लॉक हुआ तो एशिया, मिडिल ईस्ट और यूरोप के देशों को जबरदस्त नुकसान होगा.
इसी चोक पॉइंट पर स्थित है यमन. यहां हूती विद्रोहियों को ईरान का समर्थन मिला हुआ है. ईरान ने इनको हथियार, मिसाइल और ड्रोन दिए हैं. जिनकी मदद से हूती इस ट्रेड रूट पर चलने वाले जहाजों पर अटैक करते हैं. असर ये हुआ कि दिसंबर 2023 से 90 फीसदी जहाजों ने अपना रूट चेंज कर दिया है. अब यूरोप जाने के लिए ज्यादातर जहाज वही पुराना रास्ता इस्तेमाल कर रहे हैं, जिस रास्ते से वास्को डी गामा यूरोप से भारत आया था. माने पूरे अफ्रीका की परिक्रमा लगाकर यूरोप से एशिया आना या एशिया से यूरोप जाना. ये रास्ता लंबा है इस वजह से शिपिंग इंडस्ट्री का ट्रांसपोर्टेशन कॉस्ट बढ़ रहा है.
इसके अलावा ईरान हूतियों की मदद से सऊदी की ताकत को भी कम करना चाहता है. इसके लिए हूतियों ने सऊदी क्षेत्र पर हमले भी किए हैं. यमन इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे ईरान प्रॉक्सी ताकतों के जरिये मिडिल ईस्ट के इलाके में दूसरे देशों को चुनौती देता है और बिना सीधे संघर्ष में उतरे अपने प्रभाव का विस्तार करता है.
5- हमासइज़रायल के खिलाफ ईरान का विरोध विचारधारा और भूराजनीतिक दृष्टिकोण के आधार पर है. आइडियोलॉजिकल वजह है, मुसलमानों का साथ देना. इस्लामिक क्रांति के बाद से, ईरान ने फ़िलिस्तीनी संघर्ष में दख़ल को अपना नैतिक दायित्व माना है.
जियोपॉलिटिकल वजह है- इज़रायल से दुश्मनी. क्योंकि इज़रायल फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठनों और ईरान का साझा दुश्मन है. इसलिए ईरान ने सभी चरमपंथी संगठनों के साथ गठबंधन करके एक ‘एक्सिस ऑफ़ रेजिस्टेंस’ बनाया है.
अब ये एक्सिस ऑफ़ रेजिस्टेंस क्या है? असल में ईरान हमास को वित्तीय सहायता, हथियार और ट्रेनिंग देता है. जिससे गाज़ा में उनकी सैन्य क्षमता को मजबूती मिली है. इसके अलावा ईरान कई और संगठनों, जैसे ‘इस्लामिक जिहाद’ को भी फंडिंग और हथियार देता है. ये सभी ग्रुप्स हिजबुल्लाह के साथ मिलकर ‘रेजिस्टेंस एक्सिस’ बनाते हैं, जो इज़रायल का मुकाबला करने और क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव को कम करने के लिए काम करते हैं.
ईरान की ताकतमिलिट्री रणनीति
ईरान की पारंपरिक सैन्य ताकत भले ही अमेरिका या इज़रायल के मुकाबले कमज़ोर हो, लेकिन उसकी एसीमिट्रिक वॉरफेयर स्ट्रेटजी उसे इस इलाके में ताकतवर बना देती है.
एसिमेट्रिक वॉरफेयर स्ट्रेटजी क्या है?
मान लीजिए दो देश हैं. A और B. B, A के मुकाबले सैन्य ताकत में कमजोर है. तो B सीधे युद्ध लड़ने की जगह गुरिल्ला युद्ध करेगा. A की सेना को एम्बुश करेगा या फिर फिदाइन हमले करेगा. इससे A को ज्यादा नुकसान होता है और उसका मोराल टूट जाता है. ईरान भी अपने प्रॉक्सी ग्रुप्स और मिसाइल अटैक्स की मदद से इजऱायल और अमेरिका के खिलाफ एसिमेट्रिक वॉरफेयर करता है.
इससे इतर, ईरान ने अपनी मिसाइल टेक्नॉलजी और ड्रोन क्षमताओं का विकास भी किया है. ईरान का मिसाइल प्रोग्राम मिडिल ईस्ट में सबसे एडवांस माना जाता है. उसकी शॉर्ट और मीडियम-रेंज बैलिस्टिक मिसाइलें मिडल ईस्ट के किसी भी हिस्से, यहां तक कि इज़राइल और अमेरिका के सैन्य बेसों तक को निशाना बना सकती हैं. यह मिसाइल क्षमता ईरान की 'डेटरेंस स्ट्रेटेजी' का हिस्सा है. डेटरेंस स्ट्रेटेजी यानी अपने दुश्मनों को ये संदेश देना कि अगर किसी ने ईरान को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, तो करारा जवाब मिलेगा. इसका सबसे बड़ा उदाहरण- 2020 में अमेरिकी बेस पर हमला. ईरान के जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमेरिकी ड्रोन अटैक में हत्या हुई थी. जिसके जवाब में ईरान ने इराक में बने अमेरिका के सैन्य बेस पर मिसाइल दाग दिए थे.
ईरान की ड्रोन क्षमताएं भी हाल के वर्षों में काफी बढ़ी हैं. ईरानी ड्रोन न केवल IRGC, बल्कि उसके प्रॉक्सी ग्रुप्स द्वारा इराक़, सीरिया और यमन में भी इस्तेमाल किए गए हैं. हूती विद्रोहियों ने सऊदी अरब की ऑयल स्टोरेज वाली जगहों पर ड्रोन से हमला किया था.
आर्थिक प्रतिबंधों से बचाव
दशकों से अमेरिका और उसके सहयोगियों ने ईरान पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं. प्रतिबंधों से उसकी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान भी हुआ है. जैसे महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ी और कच्चे तेल से होने वाली आमदनी में भारी गिरावट आई. इसके बावजूद, ईरान ने इन प्रतिबंधों का असर कम करने के तरीके निकाल लिए हैं.
सबसे अहम बात यह है कि ईरान ने उन देशों के साथ आर्थिक साझेदारी की है, जो अमेरिकी प्रतिबंधों को नज़रअंदाज़ करने को तैयार हैं. जैसे, चीन और रूस. चीन, ईरान का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है, और अमेरिकी दबाव के बावजूद, चीन ईरानी तेल इम्पोर्ट करता है. यानी ‘ईगल गैंग’ एक तरफ हो गया है और ‘बिच्छू गैंग’ एक तरफ.
रूस ने भी ईरान को आर्थिक और सैन्य सहायता दी है, जिससे दोनों देशों के बीच के रिश्ते और मजबूत हुए हैं. ईरान ने एक ब्लैक-मार्केट इकॉनमी भी विकसित कर ली है, जिससे वो प्रतिबंधों से बच जाता है. स्मगलिंग और गैर कानूनी पेमेंट्स की मदद से भी ईरान कई देशों के साथ व्यापार करता है. प्रतिबंधों के बाद भी ईरान की अर्थव्यवस्था को कुछ स्थिरता इधर से भी मिल जाती है.
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