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ईरान राष्ट्रपति चुनाव में इब्राहिम रईसी की जीत क्यों तय बताई जा रही है?

क्या फिक्स हैं ईरान के राष्ट्रपति चुनाव?

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संभावना है कि रईसी चुनाव जीतेंगे और ईरान के अगले राष्ट्रपति बनेंगे. (तस्वीर: एएफपी)
राहत इंदौरी का एक शेर है-
सारी फ़ितरत तो नक़ाबों में छिपा रखी थी, सिर्फ़ तस्वीर उजालों में लगा रखी थी...
आज के एपिसोड की तासीर पर ये शेर बड़ा मौजूं है. क्या है प्रसंग? आज हम आपको एक नरसंहार का क़िस्सा सुनाएंगे. उस नरसंहार के आरोपियों में एक न्यायाधीश भी शामिल था. इल्ज़ाम है कि उसने हज़ारों लोगों को बेरहमी से क़त्ल किए जाने के फ़ैसलों पर मुहर लगाई. और इसी रास्ते ख़ूब तरक्की पाई. अब वही जज उस मुल्क का राष्ट्रपति बनने के क़रीब हैं. उन्हें राष्ट्रपति बनाने की राह निकलेगी एक चुनाव से. ये चुनाव ज़ाहिरी तौर पर तो लोकतांत्रिक है. लेकिन इल्ज़ाम है कि इसके उम्मीदवारों से लेकर इसका नतीज़ा, सब स्क्रिप्टेड हैं. क्या है ये पूरा मामला, विस्तार से बताएंगे इस एपिसोड में.
सबसे पहले थोड़ा अतीत खंगालते हैं
आज से 33 बरस पहले, यानी साल 1988 की बात है. ईरान में इस्लामिक क्रांति हुए एक दशक बीत चुका था. सुप्रीम लीडर थे, अयातोल्लाह ख़ोमैनी. जुलाई में एक रोज़ सुप्रीम लीडर ने मुनादी करवाई. कहा-
जो भी हमारे विरोधियों की हिमायत करेगा, मारा जाएगा. हम इस्लाम के दुश्मनों का तत्काल ख़ात्मा कर देंगे. ऐसे लोग जो फिलवक़्त जेल में हैं और बावजूद इसके अब भी हमारे विरोधियों से हमदर्दी रखते हैं, उन्हें भी नहीं बख़्शा जाएगा. जिसने ईश्वर से जंग छेड़ दी हो, उसपर रत्तीभर भी रहमदिली दिखाना मूर्खता है.
ईरान के पहले सुप्रीम लीडर अयातोल्लाह ख़ोमैनी. (तस्वीर: एएफपी)
ईरान के पहले सुप्रीम लीडर अयातोल्लाह ख़ोमैनी. (तस्वीर: एएफपी)


कौन थे ये विरोधी, जिनके क़त्ल का ऐलान कर रहे थे ख़ोमैनी? ये विरोधी थे, MEK नाम के एक आतंकी संगठन के लोग और उनके समर्थक. MEK का पूरा नाम था, मुजाहिदीन-ए-ख़ल्क. इस संगठन को अंग्रेज़ी में PMOI कहा जाता था. पूरा नाम- पीपल्स मुजाहिदीन ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ ईरान. MEK उर्फ़ PMOI की स्थापना हुई थी 1965 में. इसके गठन के चार मुख्य मक़सद थे-
1. ईरान से शाह की सत्ता को उखाड़ फेंकना. 2. ईरान में एक मार्कसिस्ट विचारधारा वाली इस्लामिक सरकार की स्थापना करना. 3. अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी ताक़तों का विरोध 4. यहूदी राष्ट्रवाद और इज़रायल का विरोध.
उस दौर में ईरान के भीतर कई बाग़ी गुट सक्रिय थे, जो शाह को हटाना चाहते थे. इनमें 1979 की इस्लामिक क्रांति के आर्किटेक्ट रुहोल्लाह ख़ोमैनी भी शामिल थे. फरवरी 1979 में ख़ोमैनी के नेतृत्व में विद्रोहियों ने राजशाही का तख़्तापलट कर दिया. ईरान में इस्लामिक रिपब्लिक का गठन हुआ.
ख़ोमैनी और MEK की आपसी दरार चौड़ी क्यों हुई?
अलग-अलग गुट जिस राजशाही को गद्दी से हटाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, वो मक़सद पूरा हो चुका था. अब ख़ोमैनी और उनके समर्थकों को अपनी जगह मज़बूत करनी थी. इसके लिए उन्हें ईरान में सक्रिय लेफ़्ट-विंग और उदारवादी गुटों को रास्ते से हटाना ज़रूरी लगा. इसी क्रम में MEK भी निशाने पर आया. 1981 के करीब आकर ख़ोमैनी और MEK की आपसी दरार चौड़ी हो गई. दोनों गुटों के बीच हिंसक संघर्ष शुरू हो गया.
1981 के करीब आकर ख़ोमैनी और MEK की आपसी दरार चौड़ी हो गई. (तस्वीर: एएफपी)
1981 के करीब आकर ख़ोमैनी और MEK की आपसी दरार चौड़ी हो गई. (तस्वीर: एएफपी)


इस दौर में ईरान और इराक़ के बीच जंग चल रही थी. MEK और इराक, दोनों ही ख़ोमैनी गुट को सत्ता से हटाना चाहते थे. इसीलिए इराक़ ने MEK को प्रश्रय दिया. ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान MEK भी इराक़ के सपोर्ट से ईरान पर हमले करने लगा.
ये जंग आठ साल तक चली. 1988 में UN की पहल पर संघर्षविराम हुआ. लेकिन इसके बाद भी MEK ने हिंसा जारी रखी. उसके पास सद्दाम हुसैन के दिए हथियार थे. इन्हीं के सहारे उन्होंने ईरान के सीमांत इलाकों पर हमला कर दिया. ईरान ने MEK को हरा तो दिया, मगर इस प्रसंग ने ख़ोमैनी सरकार को राजनैतिक विरोधियों के ख़ात्मे का एक बड़ा बहाना भी दे दिया.
MEK के सैकड़ों लोग अरेस्ट कर लिए गए. हज़ारों ऐसे लोग भी गिरफ़्तार हुए, जिनपर केवल MEK से हमदर्दी रखने का शक़ था. ऐसा नहीं कि बस चरमपंथी ही पकड़े गए हों. हज़ारों राजनैतिक विरोधियों को भी जेल भेजा गया. इनपर मुक़दमे चले. इल्ज़ाम है कि अदालती कार्यवाही में मनमानी की गई. न्यायोचित तरीके से ट्रायल नहीं चला. हिंसा करने वाले अपराधियों और अहिंसक तरीके से राजनैतिक विरोध जताने वालों के बीच भी फ़र्क नहीं रखा गया.
आरोप है कि 1988 से 1990 के बीच इसी तरह हज़ारों लोगों की हत्या हुई. इनमें सैकड़ों राजनैतिक क़ैदी भी शामिल थे. ज़्यादातर को फांसी दी गई. कइयों की पत्थर मार-मारकर भी जान ली गई. ये भी आरोप है कि नाबालिगों और गर्भवती महिलाओं तक की हत्या कराई गई.
इसी हत्याकांड से जुड़ा एक टर्म है- डेथ कमीशन. ये सरकारी प्रतिनिधियों की एक कमिटी थी. इसमें चार सदस्य थे. इन सदस्यों की नियुक्ति ख़ुद सुप्रीम लीडर ख़ोमैनी ने की थी. क्या काम था इनका? इनका काम था, राजनैतिक क़ैदियों के मुक़दमे की सुनवाई करना. इल्ज़ाम है कि ये सुनवाई राजनैतिक मंशा से प्रभावित थी. कोई दोषी है कि नहीं, ये तय करने का मापदंड ये था कि वो ख़ोमैनी गुट के प्रति वफ़ादर है या नहीं. इल्ज़ाम है कि डेथ कमीशन के नाम से कुख़्यात इस पैनल ने सैकड़ों राजनैतिक क़ैदियों को मरवाया. केवल इसलिए कि वो ख़ोमैनी के राजनैतिक विरोधी थे.
हम ये सारा अतीत आज क्यों बता रहे हैं आपको?
इसकी वजह हैं, इब्राहिम रईसी. इब्राहिम पेशे से जज हैं. सन् 1988 में इब्राहिम तेहरान रेवॉल्यूशनरी कोर्ट में जज हुआ करते थे. हमने आपको 'डेथ कमीशन' के बारे में बताया था न. उसके चार सदस्यों में से एक रईसी भी थे.
ईरान ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइज़ेशन के मुताबिक, इस पैनल ने न्यायोचित प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए कम-से-कम चार से पांच हज़ार क़ैदियों को मौत की सज़ा सुनाई थी. इन क़ैदियों को मारकर ग़ुमनाम क़ब्रों में दफ़्न कर दिया गया. मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक, रईसी पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. और अगर वो दोषी पाए जाते हैं, तो उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए.
इब्राहिम रईसी 1988 में तेहरान रेवॉल्यूशनरी कोर्ट में जज हुआ करते थे. (तस्वीर: एएफपी)
इब्राहिम रईसी 1988 में तेहरान रेवॉल्यूशनरी कोर्ट में जज हुआ करते थे. (तस्वीर: एएफपी)


रईसी पर लग रहे इल्ज़ाम क्यों अहम हैं?
इसका संबंध है 18 जून को ईरान में हो रहे राष्ट्रपति चुनाव से. इस चुनाव के सबसे तगड़े उम्मीदवार हैं रईसी. संभावना है कि रईसी चुनाव जीतेंगे और ईरान के अगले राष्ट्रपति बनेंगे.
क्या रईसी के जीतने का अनुमान किसी आम सर्वे के रुझान पर आधारित है? क्या वो इस चुनाव के सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार हैं? और इसीलिए उनके जीतने की भविष्यवाणी की जा रही है? जवाब है, नहीं. उनकी जीत का पूर्वानुमान चुनावी धांधली के आरोपों से जुड़ा है. ये चुनावी धांधली सिस्टम के हिसाब से धांधली नहीं है. क्योंकि सिस्टम ही इसकी इजाजत देता है. कैसे, आपको बताते हैं.
धांधली के आरोपों को समझने के लिए ईरान के राजनैतिक सिस्टम को संक्षेप में जानना ज़रूरी है. ईरान ज़ाहिरी तौर पर लोकतांत्रिक शासन पद्धति वाला देश है. यहां सरकार के मुखिया होते हैं राष्ट्रपति. वो जनता के वोट से चुने जाते हैं. जीतने के बाद उनके पास चार साल का कार्यकाल होता है. एक व्यक्ति अधिकतम दो कार्यकाल तक ही राष्ट्रपति रह सकता है.
राष्ट्रपति ईरान का सर्वोच्च अधिकारी होता है. मगर पावर पिरामिड में वो सबसे ऊपर नहीं होता. यहां सबसे बड़ी अथॉरिटी हैं सुप्रीम लीडर. इनका आधिकारिक टाइटल है- अयातोल्लाह. इन्हें समझिए ईरान का धार्मिक, राजनैतिक और सैन्य मुखिया. फाइनल अथॉरिटी. ईरानी संविधान के मुताबिक, ईरान की नीतियां तय करने, उन्हें सुपरवाइज़ करने का जिम्मा सुप्रीम लीडर का है.
यानी घरेलू से लेकर विदेशी मामलों तक, सबकुछ सुप्रीम लीडर के निर्देशानुसार तय होगा. सुप्रीम लीडर ही सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ़ भी होते हैं. ख़ुफिया संस्थाओं का कंट्रोल भी उन्हीं के पास होता है. 1979 में इस्लामिक रिपब्लिक के गठन के बाद से अब तक ईरान में दो सुप्रीम लीडर हुए. पहले, अयातोल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी. 1989 में उनकी मौत के बाद आयातुल्लाह अली ख़ामेनेई सुप्रीम लीडर बने.
अयातोल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी की मौत के बाद आयातुल्लाह अली ख़ामेनेई सुप्रीम लीडर बने. (तस्वीर: एएफपी)
अयातोल्लाह रुहोल्लाह ख़ोमैनी की मौत के बाद आयातुल्लाह अली ख़ामेनेई सुप्रीम लीडर बने. (तस्वीर: एएफपी)


सुप्रीम लीडर और राष्ट्रपति के अलावा दो सबसे बड़े पावर सेंटर्स हैं- संसद और असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स. यहां संसद को कहा जाता है, मजलिस. इसमें 290 सदस्य होते हैं. इन सदस्यों को चुनने के लिए हर चार साल बाद वोटिंग होती हैं. मजलिस के मुख्य काम हैं- क़ानून ड्राफ़्ट करना, अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर औपचारिक मुहर लगाना, और, देश के बजट को मंज़ूरी देना.
ये तो हुआ संसद का काम. असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स क्या करती है? ये देश के सबसे पवित्र, सबसे ज्ञानी माने जाने वाले 88 मौलाना होते हैं. इन्हें आठ साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है. इनके पास देश के अगले सुप्रीम लीडर को चुनने की पावर होती है. मतलब मौजूदा सुप्रीम लीडर ख़ामेनेई के बाद ये पद किसे मिलेगा, ये फ़ैसला यही बॉडी करेगी.
अब तक हमने ईरान के चार सबसे प्रमुख पावर सेंटर्स की बात की. सुप्रीम लीडर, राष्ट्रपति, मजलिस और असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स. इनमें से सुप्रीम लीडर की अपनी अलग कैटगरी है. बाकी तीन अधीनस्थ पद और संस्थाएं हैं. इन तीनों की दशा और दिशा तय करने के लिए एक और पावर सेंटर है. इसका नाम है- काउंसिल ऑफ़ गार्डियन्स. इसको समझिए सुप्रीम लीडर के पावर की एक बड़ी चाभी. इसमें 12 कानूनविद होते हैं. इनमें से छह को ख़ुद सुप्रीम लीडर नियुक्त करते हैं.
अब पूछिए कि ये काउंसिल करती क्या है?
ये सुनिश्चित करती है कि सारी चीजें सुप्रीम लीडर की मर्ज़ी से हों. कैसे? सुप्रीम लीडर के अलावा जितने पावर सेंटर्स हैं, उनकी नियुक्तियों में 'काउंसिल ऑफ़ गार्डियन्स' का दखल है. ये राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार फाइनल करता है. प्रत्याशियों की छंटनी करता है. संसदीय चुनाव और असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स में निर्वाचन के इच्छुक प्रत्याशियों को हरी या लाल झंडी दिखाता है. मतलब, ये अनाधिकारिक तौर पर ये सुनिश्चित करता है कि सुप्रीम लीडर के वफ़ादार ही पावर सेंटर्स तक पहुंच सकें.
ये पूरा राजनैतिक स्ट्रक्चर समझने के बाद फिर से लौटते हैं ईरान के मौजूदा चुनाव पर. वहां वर्तमान राष्ट्रपति हसन रूहानी दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं. नियम के मुताबिक, वो तीसरे कार्यकाल के लिए खड़े नहीं हो सकते थे. यानी, वो रेस से स्वत: बाहर हो गए. उन्हें रीप्लेस करने के लिए करीब 600 उम्मीदवार सामने आए. इन्होंने रजिस्ट्रेशन करवाया. इनमें से कौन सा प्रत्याशी चुनाव लड़ सकता है, ये तय किया गार्डियन काउंसिल ने. उसने 600 में से 593 उम्मीदवारों को छांट दिया.
ईरान के मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं. (तस्वीर: एएफपी)
ईरान के मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी दो कार्यकाल पूरा कर चुके हैं. (तस्वीर: एएफपी)


इसी छंटनी के समय से चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे. क्यों? क्योंकि इसमें कई तगड़े दावेदारों को छांट दिया गया था. ऐसे उम्मीदवार, जो अच्छी फ़ाइट दे सकते थे. मसलन, पूर्व संसद स्पीकर अली लरीजानी. उनके भाई सदेग़ लरीजानी तो ख़ुद गार्डियन काउंसिल के सदस्य थे. भाई की छंटनी से वो काफ़ी नाराज़ हुए. उन्होंने बयान जारी किया कि मैं 20 सालों से गार्डियन काउंसिल को डिफेंड करता आया हूं. मगर इससे पहले मैंने काउंसिल के किसी फ़ैसले को इतना अनुचित कभी नहीं पाया था.
छांटे जाने वालों में उप राष्ट्रपति इशाक़ जहांगिरी भी शामिल थे. इशाक़ सुधारवादी गुट का हिस्सा हैं. इंटरनैशनल संबंध सुधारने की बात करते हैं. ईरान न्यूक्लियर डील के समय वो मुख्य वार्ताकारों में शामिल थे. वो उस गुट का हिस्सा हैं, जो डील करके पश्चिमी देशों से तनाव घटाने और आइसोलेशन ख़त्म करने की बात करता है. अपनी छंटनी के बाद जहांगिरी ने भी बयान जारी किया. उन्होंने कहा कि कई योग्य उम्मीदवारों की छंटनी हुई है. ये चुनाव में जनता की भागीदारी के लिए गंभीर चुनौती है. साथ ही, ये सुधारवादी धड़े के लोगों को फेयर कॉम्पीटिशन से भी बाहर करता है.
छंटनी वाले नामों में पूर्व राष्ट्रपति अहमदीनेजाद भी शामिल थे. वो हार्डलाइनर गुट के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं. इस दफ़ा चुनाव में कट्टरपंथियों को शह मिल रही है. फिर अहमदीनेजाद को क्यों नहीं चुना गया? जानकारों के मुताबिक, इसकी वजह ये है कि सुप्रीम लीडर अपने एक पसंदीदा कैंडिडेट के लिए रास्ता साफ़ करना चाहते हैं. ये पसंदीदा कैंडिडेट भी बेहद हार्डलाइनर हैं. उन्हें अहमदीनेजाद से चुनौती मिल सकती थी.
Ali Larijani
पूर्व संसद स्पीकर अली लरीजानी को चुनाव में भाग लेने से छांट दिया गया. (तस्वीर: एएफपी)


अब आप जानना चाहेंगे कि सुप्रीम लीडर के ये पसंदीदा उम्मीदवार कौन हैं? जवाब है, इब्राहिम रईसी. वही उम्मीदवार, जिनके जीत की संभावना जताई जा रही है.
इब्राहिम रईसी को सुप्रीम लीडर का फेवरिट क्यों कहा जा रहा है?
इसका जवाब जानने के लिए आपको रईसी की ब्रीफ़ प्रोफ़ाइल जाननी होगी. रईसी कट्टरपंथी मौलवी हैं. वो अपनी वंशावली का संबंध पैगंबर मुहम्मद से बताते हैं. इसीलिए वो ईरान के उन लोगों में हैं, जिन्हें काले रंग की पगड़ी पहनने का अधिकार है.
रईसी सुप्रीम लीडर के वफ़ादारों में गिने जाते हैं. बीते कुछ सालों में उनका बहुत तेज़ी से प्रमोशन हुआ है. 2016 में उन्हें अस्तान कुद्स रज़ावी फाउंडेशन का मुखिया बनाया गया. ये बहुत ताकतवर संस्था है. ईरान में इमाम रेज़ा की दरगाह है. ये शियाओं का एक बड़ा तीर्थस्थल है. इस श्राइन का संचालन अस्तान कुद्स रज़ावी फाउंडेशन के हाथ में है. अकूत पैसा है इस फाउंडेशन के पास. और साथ में पावर भी है. ज़ाहिर है, बेहद भरोसेमंद इंसान को ही इस फाउंडेशन की बागडोर सौंपी गई होगी.
इस बड़ी नियुक्ति के करीब तीन साल बाद, यानी 2019 में इब्राहिम रईसी को ईरान का चीफ़ जस्टिस बनाया गया. किसने नियुक्त किया उन्हें? ख़ुद सुप्रीम लीडर ने. आरोप है कि बतौर चीफ जस्टिस रईसी ने भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों के तहत कई बड़ी राजनैतिक हस्तियों की प्रतिष्ठा बर्बाद की. इनमें ख़ामेनेई के कुछ प्रमुख राजनैतिक विरोधी भी शामिल थे.
चीफ़ जस्टिस बनाए जाने के बाद रईसी को असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स का वाइस प्रेज़िडेंट भी नियुक्त किया गया. हमने बताया था न, ये वही संस्था है जो सुप्रीम लीडर का चुनाव करती है. ख़ामेनेई 82 साल के हैं. उनकी मौत के बाद अगला सुप्रीम लीडर कौन होगा, ये तय करने में इस संस्था की अहम भूमिका होगी.
कई जानकार कहते हैं कि ख़ामेनेई एक सोची-समझी रणनीति के तहत रईसी का ओहदा बढ़ा रहे हैं. कैसी रणनीति? ख़ामेनेई को अपना उत्तराधिकारी चुनना है. टिप्पणीकारों के मुताबिक, संभावित उम्मीदवारों की सूची में रईसी भी शामिल हैं. ये भी एक बड़ी वजह है कि ख़ामेनेई रईसी को राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं. सुप्रीम लीडर बनाए जाने के पहले ख़ामेनेई भी राष्ट्रपति रहे थे. अगर रईसी राष्ट्रपति बने, तो उन्हें लोकप्रियता और राजनैतिक विरासत मिल सकती है. कल को अगर उन्हें सुप्रीम लीडर बनाया जाए, तो ये विरासत उनकी अथॉरिटी स्थापित करने में काम आएगी.
रईसी केवल निष्ठा में ही नहीं, विचारधारा में भी ख़ामेनेई के करीबी हैं. वो ईरान की कट्टरपंथी जमात का हिस्सा हैं. वो अमेरिका और पश्चिमी देशों से बातचीत कर तनाव घटाने में यकीन नहीं रखते. ईरान का मौजूदा चुनाव हार्डलाइनर्स को ही शह देता दिख रहा है. इसमें सुधारवादी खेमे के मज़बूत प्रत्याशियों को जगह ही नहीं दी गई.
जो सात उम्मीदवार फाइनल हुए, उनमें रईसी समेत पांच प्रत्याशी घनघोर कट्टरपंथी धड़े का हिस्सा थे. बाकी के दो उम्मीदवारों में से एक सुधारवादी और दूसरे मॉडरेट थे. मगर इन दोनों उम्मीदवारों की मुख्यधारा की राजनीति में कोई ख़ास पकड़ नहीं है. इसीलिए कई जानकार आरोप लगा रहे हैं कि जानबूझकर ऐसे प्रत्याशियों को चुना गया, जो रईसी को चुनौती न दे पाएं.
तो क्या रईसी का रास्ता बिल्कुल साफ़ है?
जवाब है, ऑलमोस्ट. चुनाव से एक रोज़ पहले यानी 17 जून को ख़बर आई कि फाइनल सात प्रत्याशियों में से दो ने अपना नाम वापस ले लिया है. इन दोनों के नाम हैं- मोहसेन मेहरालिज़ादेह और अलीरेज़ा ज़कानी. मोहसेन मॉडरेट थे और ज़कानी हार्डलाइनर. ज़कानी ने उम्मीदवारी वापस लेने की वजह ये बताई कि उनके मुताबिक, इब्राहिम रईसी सबसे योग्य दावेदार हैं.
और मॉडरेट मोहसेन ने क्यों नाम वापस लिया?
माना जा रहा है कि उन्होंने अब्दोल नासीर हेम्मती नाम के एक उम्मीदवार की संभावनाएं मज़बूत करने के लिए ये कदम उठाया. कौन हैं हेम्मती? फिलहाल रईसी को थोड़ी-बहुत चुनौती जिस उम्मीदवार से मिल रही है, वो हेम्मती ही हैं. सेंट्रल बैंक के गवर्नर रहे हेम्मती कट्टरपंथियों को सत्ता मिलने के विरोधी हैं. वो न्यूक्लियर डील वापस लागू करना चाहते हैं, ताकि ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंध ख़त्म हों. ईरान की अर्थव्यवस्था सुधरे. मगर हेम्मती के जीतने की संभावना बहुत मज़बूत नहीं हैं.
अब्दोल नासीर हेम्मती से रईसी को थोड़ी-बहुत चुनौती मिल रही है. (तस्वीर: एएफपी)
अब्दोल नासीर हेम्मती से रईसी को थोड़ी-बहुत चुनौती मिल रही है. (तस्वीर: एएफपी)


ईरान की जनता चुनाव पर क्या सोचती है?
इसका जवाब जानने के लिए एक चुटकुला सुनिए. जब से उम्मीदवारों की फाइनल लिस्ट आई है, तब से ईरान में एक चुटकुला चल रहा है. लोग कह रहे हैं चुनाव में दो ही लोग जीतेंगे. या तो इब्राहिम रईसी. या फिर, सईद इब्राहिम रायसोल सदाती. ये जनाब कौन हैं? ये रईसी का पूरा नाम है.
इस चुटकुले से आपको थोड़ा अंदाज़ा लगेगा कि चुनाव मैनेज़्ड होने के आरोप कितने गंभीर हैं. यहां चुनावी निष्पक्षता का ये हाल है कि बीते रोज़ 200 से ज़्यादा सांसदों ने एक अपील जारी की. इसमें हार्डलाइनर उम्मीदवारों से अपना नाम वापस लेने को कहा गया. अपील की गई थी कि रईसी की संभावनाएं मज़बूत करने के लिए वो पीछे हट जाएं.
क्या ऐसी अपील के बाद भी सत्ता के रुझान को लेकर कोई शुबहा बच जाता है?
चुनाव फ़िक्सिंग के आरोप इतने गंभीर हैं कि मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी तक ने इस चुनाव को 'मृत' कह दिया. यहां तक कि खुलकर हो रहे पक्षपात से कई बार ख़ुद रईसी झेंपते दिखे. मई में एक बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि चुनाव में थोड़ी ज़्यादा प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए थी.
ख़बरों के मुताबिक, चुनाव फिक्सिंग के आरोपों के चलते जनता के एक बड़े धड़े में चुनाव को लेकर निराशा है. ऐसा नहीं कि ईरान में चुनावी धांधली के आरोप पहली बार लग रहे हों. ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं. मगर जानकारों का कहना है कि इस बार पक्षपात बहुत खुलकर दिख रहा है.
शायद इसीलिए एक हालिया सर्वे में 32 पर्सेंट लोगों ने कहा कि चाहे जो हो जाए, वो वोट नहीं डालेंगे. कई जगहों पर लोग चुनाव के बहिष्कार की भी अपील कर रहे हैं. कुछ कह रहे हैं कि जब रिज़ल्ट तय करना उनके हाथ में नहीं, तो वो भागीदारी भी क्यों करें. जनता के एक बड़े धड़े में चुनाव से बेहतरी आने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी है. ऐसे में मतदान पर्सेंटेज़ के कम रहने की आशंका है. ऐसा हुआ, तो शायद हार्डलाइनर रईसी को और बूस्ट मिले.
इब्राहिम रईसी 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में भी खड़े हुए थे. मगर उस दफ़ा हसन रूहानी ने उन्हें हरा दिया था. मगर इस बार शायद वो जीत जाएंगे. इसलिए कि उनपर सुप्रीम लीडर का हाथ बताया जा रहा है. सवाल है कि अगर रईसी जीत गए, तो उनपर लगे आरोपों का क्या होगा? सवाल तो रह ही जाएंगे. क्या ये बेहतर नहीं होता कि इतने अहम पद के लिए खड़े हो रहे इंसान पर अगर इतने गंभीर इल्ज़ाम हों, तो उनकी निष्पक्ष जांच होती? दोषमुक्त पाए जाने पर ही उन्हें उम्मीदवार बनाया जाता?