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क्योें दूसरों की लाइनें उठाकर गीतों में लिख लेते हैं गुलजार?

चोरी का इल्ज़ाम लगाने वालों को ये पढ़ना चाहिए.

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गुलज़ार मतलब पीढ़ियों से पसरा हुआ एक संजीदा-पसंदीदा शायर. चांद, बादल और हवाओं की बातें ही नहीं करता.  चिमटा, बीड़ी, रिक्शा और सिगरेट के पैकेट को नज़्मों में पिरो देता है. 'कतरा-कतरा' और 'नैना ठग लेंगे' जैसे गहरी बातें कहने वाला शख्स जो अचानक चड्ढी पहनकर फूल खिला दे और फिर हौले से मुस्किया के कह दे, 'दिल तो बच्चा है जी'. हिंदी गीत के लिए ऑस्कर जीतने वाले इस शायर, गीतकार को बहुत सम्मान मिला है. लेकिन साथ ही एक इल्ज़ाम भी उन पर लगता है. वो ये कि वो अकसर दूसरों की लाइनें उठाकर अपने गीतों में इस्तेमाल कर लेते हैं.

"जी ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन बैठे रहे तसव्वुरे जाना किए हुए"

ये शेर चचा ग़ालिब का है. जिसे फिल्म 'मौसम' के लिए गुलज़ार ने इस तरह लिखा, 'दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन.' आपने सुना होगा. कविता-प्रशंसकों ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'इब्न बतूता पहन के जूता निकल पड़े बाज़ार में' भी पढ़ रखी होगी. गुलज़ार ने 'इश्किया' में इसके आगे जोड़ा, 'पहनो तो करता है चुर्र.' अगर आपको भी लगता है कि दूसरों की कविताओं को इस तरह अपने गीतों में इस्तेमाल कर लेना साहित्यिक चोरी है तो तो आपको उर्दू काव्य की एक परंपरा के बारे में जानना चाहिए. नए शागिर्दों को शेर बांधना सिखाने के लिए पुराने उस्ताद अकसर मशहूर शेर की एक लाइन देते हैं. अकसर इनाम रखकर मुश्किल पंक्ति भी दी जाती है. शर्तें केवल दो होती हैं. पहली कि नए बने शेर का एक मुकम्मल और पहले वाले शेर से अलग अर्थ होना चाहिए. दूसरी, नई ग़ज़ल के बाकी अशआर पहले वाली ग़ज़ल से अलग मतलब लिए हुए होने चाहिए.
इसे किसी और की ज़मीन पर अपनी बात कहना या तरही ग़ज़ल भी कहा जाता है. उर्दू में इस परम्परा का बड़े-बड़े शायरों ने खूब इस्तेमाल किया है.

"दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिए बेशक़ न मानिएगा किसी दूसरे की बात बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए."

बिस्मिल की इस ग़ज़ल (राम प्रसाद बिस्मिल या बिस्मिल अज़ीमाबादी स्पष्ट नहीं) का एक हिस्सा आपने कुछ फेरबदल के साथ आपने फिल्म 'उमराव जान' में शहरयार के लिखे और आशा भोसले की गाई मशहूर ग़ज़ल में सुना होगा. वहीं बिस्मिल की ही एक औऱ ग़ज़ल का आखिरी शेर है.

"बिस्मिल ऐ वतन तेरी ऐ राहे मोहब्बत में एक आग का दरिया है और डूब के जाना है."

इसी बहर, रदीफ़ और काफ़िये में में जिगर मुरादाबादी ने भी ये मशहूर शेर कहा है.

"ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे एक आग का दरिया है और डूब के जाना है."

ठीक इसी तरह अर्शी लखनवी का शेर है,

"कफ़न कांधे पर लिए फिरता हूं ऐ अर्शी न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम ढल जाए."

इसी शेर की दूसरी लाइन को मशहूर शायर बशीर बद्र ने अपने शेर में दूसरे संदर्भ में इस्तेमाल किया.

"उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम ढल जाए."

इन दोनो अशआर में बाद में बशीर बद्र का शेर ज़्यादा पॉपुलर हुआ. इसी तरह दुष्यंत के इस मशहूर शेर के पीछे एक कहानी है.

"ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा."

इस शेर की एक लाइन दुष्यंत के किसी दोस्त ने कही थी. मगर उसे पूरा दुष्यंत ने किया. दुष्यंत इस बात का ज़िक्र भी करते थे. समय के साथ इस शेर के ऊपर जनता ने दुष्यंत के नाम की मोहर लगा दी.

किसी और की ज़मीन पर अपनी बात कहना परम्परा उर्दू की एक सर्वमान्य परम्परा है. ऐसा भी नहीं है कि इसकी वजह से ग़ज़ल कहना आसान हो जाता है. ग़ालिब की बात के बराबर में उसी स्तर की नई बात कहना आसान काम नहीं है. अगर स्तर ठीक न हुआ तो ऐसी जग हंसाई होगी कि बटोरी नहीं जाएगी. हंसने से याद आया कि इस परम्परा का उर्दू हज़ल (हास्य रस वाली ग़ज़ल) में बड़े अच्छे से हुआ है.

"मुर्गे चुरा के लाए थे हम चार पॉपुलर दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में" -पॉपुलर मेरठी