जून 2020 के बाद से जब जब भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की बात चलती है, कुछ शब्द खबरों में तैरने लगते हैं - गोगरा पोस्ट, फिंगर 4, हॉट स्प्रिंग्स, देपसांग के मैदान, पैंगोंग सो और गलवान. लेकिन इन सारे शब्दों से पहले एक शब्द था, जो भारत-चीन के बीच फसाद का रूपक बन गया था - डोकलाम. पूर्वी लद्दाख में चीन की वादाखिलाफी और गलवान घाटी में हुए संघर्ष के बाद खबरों की दुनिया का ध्यान लद्दाख पर ही ज़्यादा रहा. लेकिन अब चीन ने डोकलाम में फिर ऐसी कारस्तानी कर दी है, कि तनाव बढ़ गया है. आखिर डोकलाम में ऐसा है क्या कि चीन उसके पीछे पड़ा हुआ है. वहां क्यों गांव पर गांव बनाता जा रहा है? और भारत क्यों इस सब को हल्के में नहीं ले सकता है? बताएंगे दिन की बड़ी खबर में. सुर्खियों में बिहार में नकली शराब से हुई मौतों की एक बार फिर बात होगी. INS विक्रांत से जुड़ा कौनसा मामला बंद हुआ, ये भी बताएंगे, लेकिन पहले आपको ले चलते हैं डोकलाम.
तवांग नहीं यहां असली खेल कर रहा है चीन
डोकलाम में ऐसा क्या है कि चीन उसके पीछे पड़ा है?
एक साधारण सा गूगल सर्च आपको बता देगा कि डोकलाम भारत में है ही नहीं. वो है भूटान में. तो चीन वहां चाहे जो करे, हमें उससे क्या? आइए सबसे पहले इसी सवाल का जवाब खोजते हैं. इस नक्शे को देखिए. डोकलाम इलाका एक ट्राइजंक्शन पर है. माने जहां तीन सीमाएं आकर मिलती हैं. एक तरफ है सिक्किम. माने हमारा भारत. दूसरी ओर है हमारा दोस्त भूटान. और इन दोनों की ज़मीन के बीच एक खंजर की तरह मौजूद है चीन. डोकलाम इस ट्राइजंक्शन पर ही मौजूद है. लेकिन भूटान के हिस्से में.
अब समस्या ये है कि चीन इस नक्शे को मानता नहीं है. ठीक उसी तरह, जैसे चीन-भारत के बीच सीमा विवाद है, उसी तरह चीन भूटान के बीच भी सीमा विवाद है. चीन का दावा है कि डोकलाम का इलाका उसके हक में है. और भारत, एक अच्छे दोस्त की हैसियत से यही मानता है, कि डोकलाम भूटान का हिस्सा है. और इसी हिस्से में चीन गांव पर गांव बनाता जा रहा है. मज़े की बात ये है कि इस इलाके में चीनी गांव ऐतिहासिक रूप से मौजूद नहीं थे. और न ही इन गांवों में आम चीनी नागरिक रहते हैं. ये गांव दिखावे के हैं. और इनका इस्तेमाल करती है चीन की सेना PLA. ज़ाहिर है, भारत अपने दोस्त की ज़मीन लुटते देख नाखुश है.
लेकिन भारत की नाराज़गी की वजह सिर्फ दोस्ती नहीं है. दो और कारण हैं. पहला है एक वादा. अगस्त, 1949 में भारत और भूटान के बीच दार्जीलिंग में एक समझौता हुआ, जिसे कहा जाता है ट्रीटी ऑफ फ्रेंडशिप. इसका आर्टिकल 2 कहता है कि भूटान अपने विदेश मामलों में भारत सरकार की सलाह लेगा. और इसके बाद से भूटान की विदेश नीति में भारत की भी भूमिका रहती है. भूटान की ज़मीन पर विदेशी आक्रमण उसकी विदेश नीति का विषय है, इसीलिए भारत इसमें दिलचस्पी लेता है. भारत और भूटान के बीच 2007 में फिर एक समझौता हुआ, जिसे कहा जाता है INDIA-BHUTAN FRIENDSHIP TREATY. इसके आर्टिकल 2 में भी लिखा है कि दोनों देश राष्ट्रहित के मुद्दों पर करीबी सहयोग रखेंगे और कोई देश अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे के हितों के खिलाफ नहीं होने देगा. 1949 और 2007 के समझौतों को दोनों देशों की संसद से मान्यता मिली हुई है. इसीलिए भूटान में चीनी अतिक्रमण का जवाब देना भारत सरकार की नैतिक और कानूनी ज़िम्मेदारी है.
अब आते हैं दूसरे कारण पर. जिसके चलते भारत की नैतिक और कानूनी ज़िम्मेदारी का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. भारत का पूर्वोत्तर, बाकी देश से एक सकरे गलियारे से जुड़ा है. जो किशनगंज से सिलिगुड़ी के बीच पड़ता है. एक जगह इस गलियारे की चौड़ाई सिर्फ 22 किलोमीटर के करीब है. इसीलिए इसे कहा जाता है चिकन्स नेक. माने मुर्गे की गर्दन - उसके बदन का सबसे नाज़ुक हिस्सा. क्योंकि भारत इस गलियारे की वैसे ही परवाह करता है, जैसे ये उसकी गर्दन हो. इसीलिए जब 1947 में पूर्वी पाकिस्तान बना और पूर्वोत्तर का रेल संपर्क देश से कट गया, तो भारत ने महज़ दो साल में एक नई रेलवे लाइन डलवाकर दोबारा असम को रेल के नक्शे से जोड़ा. यहां से गुज़रने वाली रेल लाइनें, सड़कें, बिजली की लाइनें और तमाम दूसरी संरचनाओं को आज भी बड़ी बारीक निगरानी में रखा जाता है, ताकि कोई भी गड़बड़ हो, तो तुरंत सुधार ली जाए. आखिर गर्दन है, ध्यान तो रखना पड़ेगा.
अब नक्शे पर देखिए कि चीन यहां से कितना करीब है. कुछ जगहों पर चीन सिलिगुड़ी कॉरिडोर से सिर्फ 80 से 100 किलोमीटर दूर पड़ता है. चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा जताता रहता है. पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में उग्रवाद और आतंकवाद को समर्थन देता है. वो जितना हो सके, सिलिगुड़ी कॉरिडोर के करीब आ जाना चाहता है. ताकि युद्ध की स्थित में पूर्वोत्तर को भारत से अलग किया जा सके. और इसीलिए चीन डोकलाम में स्थिति को मज़बूत करने में लगा हुआ है. भारत ये जानता है.
चीन ने 2017 में डोकलाम ट्राइजंक्शन से आगे की सड़क बनाने की कोशिश की. जून में इसकी खबर भारत को लग गई. धड़ाधड़ बैठकें होने लगीं. सेना और सरकार के आला अधिकारियों ने प्रधानमंत्री मोदी के सामने कुछ विकल्प रखे. और 17 जून को देर रात प्रधानमंत्री ने ऑपरेशन जुनिपर को मंज़ूरी दे दी. फौज पहले से तैयार थी. 18 जून की सुबह जब चीनी सैनिक और मज़दूर डोकलाम में अपनी आंखें मल रहे थे, उन्हें बुलडोज़र चलने की आवाज़ सुनाई दी. ये बुलडोज़र चीन का नहीं था. आवाज़ उन बुलडोज़र्स से आ रही थी, जिन्हें भारत की फौज अपने साथ भूटान की सीमा के अंदर ले आई थी. फौज ने तुरंत भूटान के हिस्से की ज़मीन पर एक मानव श्रंखला बना दी. और चीनियों की सड़क का काम बंद करवा दिया.
बात ये थी, कि चीन अगर अपनी सड़क बनाने में कामयाब हो जाता, तो चीनी सेना के लिए भारत की डोका ला पोस्ट की घेरेबंदी आसान हो जाती. चीन झंपेरी की पहाड़ियों तक जाना चाहता था, ताकि वहां से सीधे सिलिगुड़ी कॉरिडोर पर नज़र रख सके, जो भारत को स्वीकार नहीं था. 73 दिनों तक दोनों देशों की सेनाएं आंखों से आंखे मिलाए वहां खड़ी रहीं. और फिर दोनों सेनाएं पीछे हटीं.
लेकिन चीन इतनी जल्दी डोकलाम का पीछा छोड़ने नहीं वाला था. वो 1998 से यहां सड़क बनाने की कोशिश कर रहा है. हर साल थोड़ी थोड़ी सड़क बनाता है. 2019 में वो भूटान से बातचीत को वहां तक ले आया, जिसके बाद कहा जाने लगा कि संभव है, चीन को उतनी ज़मीन बख्श दी जाए, जितनी वो कब्ज़ाकर बैठा हुआ है. लेकिन इन चीज़ों में वक्त लगता है. इसीलिए चीन पुराने तरीके से ज़मीन हथियाने में लगा हुआ है. इंडिया टुडे के लिए अभिषेक भल्ला और अंकित कुमार ने एक रिपोर्ट की है, जिसमें सैटेलाइट तस्वीरों के माध्यम से दिखाया गया है कि चीन किस तरह डोकलाम में अपनी मौजूदगी को मज़बूत कर रहा है.
2020 में चीन ने ट्राइजंक्शन से करीब 9 किलोमीटर दूर उसने भूटान के इलाके में एक पूरा गांव बना दिया. इसका नाम है पांगडा. 2021 में गांव का विस्तार हुआ. गांव सुनकर आप कंफ्यूज़ मत होइए. गांव हमने आकार के लिए कहा है. सुविधाएं यहां शहरों वाली ही हैं. पक्के मकान, पक्की सड़कें. बस नागरिक नहीं हैं. क्योंकि ये गांव चीन की फौज के लिए हैं. ऐसा सिर्फ एक गांव नहीं है. यहां कई गांव बना लिए गये हैं. सितंबर और नवंबर 2022 की तस्वीरों में नज़र आता है कि नई ईमारतें बन गई हैं और आगे के निर्माण के लिए ज़मीन को समतल किया जा रहा है. यहां चीन ने तोरसा पर एक पुल भी बना लिया है.
मतलब साफ है कि चीन 2017 में बिलकुल हतोत्साहित नहीं हुआ था. वो लगातार निर्माण कर रहा है. साफ है, भारत ये कह तो रहा है कि वो ज़मीन नहीं खो रहा. लेकिन चीन मैदानी हकीकत को बदलता जा रहा है. नक्शे झूठ नहीं बोलते. भारत भी अपनी ओर से सड़कों के निर्माण पर ज़ोर दे रहा है. लेकिन क्या हम इससे चीनी विस्तारवाद को रोक पाएंगे, समय बताएगा.
सीमाओं से अब चलते हैं सीमा पार के व्यापार की ओर. आप जानते ही हैं, सीमा पर भले कंबल कुटाई चलती रहे, व्यापार में तनाव के लिए कोई जगह नहीं होती है. गलवान से लेकर तवांग के बीच जब-जब दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता है विपक्षी पार्टियां व्यापार कम करने का दबाव बनने लगती हैं. सरकार से जुड़े नेता भी अक्सर कहते नजर आते हैं कि हम चीन से व्यापार घटाने की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं. जबकि सच ये कि बीते दिनों भारत और चीन के बीच का व्यापार बढ़ा है. ये हम नहीं खुद भारत सरकार के आंकड़े कहते हैं.
भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के आंकड़ों से यह साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कि भारत की चीन से सामान आयात पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है. मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2021-22 में दोनों देशों के बीच क़रीब 115 अरब डॉलर का व्यापार हुआ. जो पिछले साल की तुलना में बढ़ा है क्योंकि तब यानी 2020-21 के साल यह आंकड़ा 86 अरब डॉलर था.
वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी जानकारी से ही पता चलता है कि फाइनेंशियल ईयर 2020-2021 की पहली छमाही यानी जब पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिक आपस में भिड़े थे, उस वक्त से लेकर चालू फाइनेंशियल ईयर के पहले छह महीनों के बीच भारत ने चीन से बड़े पैमाने पर चाइनीज सामान खरीदा है. अपना सामान उसे बेचा भी. सरकार की तरफ से संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक करेंट फाइनेंशियल ईयर यानी अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक भारत ने चीन से 60.27 अरब डॉलर का सामान खरीदा. जबकि भारत से चीन के सिर्फ 8.77 अरब डॉलर का ही सामान खरीदा. ऐसे में महज सात महीनों में भारत को 51.5 अरब डॉलर का व्यापार घाटा हुआ है. द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक 2020-21 की बात करें तो चीन से भारत का व्यापार घाटा $44.03 अरब डॉलर था, जब 2021-22 के वित्तीय वर्ष में बढ़कर 73.31 अरब डॉलर हो गया.
दो देशों के बीच व्यापार होता है और ग्लोबल इकॉनमी की अच्छी सेहत के लिए ऐसा होना ही चाहिए. अमेरिका-चीन को अपना प्रतिद्वंदी बताता है, साउथ चाइना सी, ताइवान के मुद्दे पर अक्सर दोनों के भी एग्रेशन भी देखने को मिलता है. मगर फिर भी व्यापार पर कोई फर्क नहीं पड़ता. हमारे यहां भी नहीं पड़ना चाहिए. सीमा विवाद अपनी जगह है, व्यापार अपनी जगह. मगर दिक्कत व्यापार घाटे की है. जो आत्मनिर्भर भारत के अभियान को मुंह चिढ़ा रहा है. और लगातार बढ़ता जा रहा है. इससे ये भी पता चलता है कि कुछ ऐप्स बैन करने से चीन की सेहत पर कोई असर भी नहीं पड़ता, वो दूसरे सामान बेच पैसे बना रहा है. अब लगे हाथ ये भी जान लेते हैं भारत चीन से सबसे ज्यादा कौन कौन सी चीजें खरीदता है.
भारत चीन से मुख्य तौर से इलेक्ट्रॉनिक आइटम, केमिकल, कॉपर, कॉटन यार्न, जूता चप्पल, स्टील, सर्किट, सेमीकंडक्टर, फर्टिलाइजर, टीवी कैमरा, ऑटो एसेसरीज जैसे सामान जमकर खरीदता है. जानकार कहते हैं कि भारत की फ़ार्मा इंडस्ट्री में इस्तेमाल होने वाले 60 से 70 परसेंट केमिकल चीन से ही आते हैं. चीन दवाइयों के रॉ मटैरियल का बड़ा प्रोड्यूसर है इसके अलावा भारत, चीन से मोबाइल फोन, लैपटॉप और कंप्यूटर भी खूब खरीदता है. कामर्स मिनिस्टर पीयूष गोयल ने राज्यसभा में कहा,
''भारत को चीन से ये सब सामान इसलिए मंगाना पड़ता है क्योंकि देश में इन चीजों की मांग ज्यादा और सप्लाई कम है."
अब ये भी समझते हैं कि भारत चीन को बेचता क्या क्या है. भारत चीन को मुख्य तौर पर कई रॉ मैटेरियल, कॉटन, तांबा, एल्यूमीनियम, और नैचुरल हीरे और रत्नों का निर्यात करता है. भारत से चीन को मछलियां, मसाले जैसे खाद्य वस्तुओं से लेकर लौह अयस्क, ग्रेनाइट स्टोन और पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात होता है.
कामर्स मिनिस्टर पीयूष गोयल द्वारा संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक साल 2014-15 में भारत ने चीन को 11.93 अरब डॉलर का सामान बेचा था, जो 2021-22 में बढ़कर 21.26 अरब डॉलर पर पहुंच गया है. जबकि भारत ने 2014-15 में चीन से 60.41 अरब डॉलर का सामान खरीदा था, जो 2021-22 में बढ़कर 94.57 अरब डॉलर पर पहुंच चुका है. मतलब ये कि भारत ने भी चीन को पहले की तुलना में ज्यादा सामान बेचा, मगर जो व्यापार घाटे का अंतर भी बढ़ा है. अगर और पहले से तुलना करें तो 2004-05 में चीन से व्यापार घाटा 1.48 अरब डॉलर का था, जो वित्त वर्ष 2022-23 में अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक बढ़कर 51.5 अरब डॉलर पर पहुंच गया.
हालांकि, पीयूष गोयल ने कहा कि भारत सरकार चीन से व्यापार घाटे को कम करने के लिए लगातार कदम उठा रही है. सरकार देश के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को मजबूत बनाने की कोशिश कर रही है. इसके लिए सरकार ने प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीमों की भी शुरुआत की है. सरकार की कोशिशें रंग लाए ये हर भारतवासी को कामना करनी चाहिए. क्योंकि बिना आर्थिक रूप से मजबूत हुए, चीन से अर्थव्यवस्था की दुनिया में मुकाबला करना बड़ा मुश्किल है.
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