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‘बोली सोनू बीड़ी देना... ’ सुनसान जंगल में कोई नाम लेता है, ये भूत है या अपना ही दिमाग?

'रात को जाते हुए पीछे से आवाज आई, सुनो बीड़ी है? अगर उस दिन मैं पलट कर पीछे देख लेता, तो आज तुम्हें ये कहानी नहीं सुना रहा होता.'- ये कहानियां आपने भी सुनी, सुनाई होंगी. अक्सर सन्नाटे में बैठे आपको भी ऐसा लगा होगा कि कोई आपका नाम बुला रहा है. तो इसके पीछे ‘गंजी चुड़ैल’ है या फिर विज्ञान में इसका कोई जवाब है?

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विज्ञान वाले इसे 'ऑडियो पेरीडोलिया' नाम देते हैं

अक्सर गांव के कुछ पुराने बुजुर्ग. बुजुर्ग तो पुराने होते ही हैं, लेकिन कुछ इतने होते हैं कि उनके जमाने में इंद्रधनुष ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ होते थे. उन्होंने डायनासोर के अंडों का आमलेट खाया होता है. (मजाक था) ऐसे कुछ प्यारे दादा लोग कहानियां सुनाते हैं. उन कहानियों में, एक कहानी बीड़ी की भी हुआ करती है. “रात को जाते हुए पीछे से आवाज आई, सुनो बीड़ी है?” फिर कहा जाता है, अगर उस दिन मैं पलट कर पीछे देख लेता, तो आज तुम्हें कहानी नहीं सुना रहा होता. ना जाने कितने लोगों ने ये कहानियां सुनी, सुनाई होंगी. अक्सर सन्नाटे में बैठे आपको भी ऐसा लगा होगा कि कोई आपका नाम बुला रहा है. तो इसके पीछे ‘गंजी चुड़ैल’ है या फिर विज्ञान में इसका कोई जवाब है, आज आपको सब बताते हैं (Hearing Ghost voice or science).

आपने देखा होगा कि कई बार हमको दीवारों के उखड़े पेंट में, पत्थरों में, यहां तक आलू में चेहरे जैसी आकृतियां नजर आती है. अक्सर हम कई जगह चेहरों के पैटर्न देखते हैं. या कहें हमारा दिमाग हमें दिखाने की कोशिश करता है.

रैंडम चीजों में जानी पहचानी आकृतियां देखने को, विज्ञान की भाषा में पेरीडोलिया (Pareidolia) कहा जाता है. जैसे नासा ने चांद की सतह की ये तस्वीर जारी की तो लोगों को लगा वहां किसी एलियन का चेहरा बना है. जबकि वो बस चट्टानें थीं.

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चांद पर रैंडम चट्टानें हमें किसी इंसान की शक्ल जैसी नजर आ सकती हैं.(Image credit: NASA.)

इसी चीज को अब देखने की बजाय सुनने से समझते हैं. जब किसी रैंडम आवाज के पैटर्न के बीच, हम कोई जानी पहचानी सी आवाज सुनते हैं. उसे ऑडिटरी पेरीडोलिया कहते हैं. माने बहते हुए पानी, कूलर की आवाज, हवा की सरसराहट, प्लेन का इंजन या फिर जेसीबी की खुदाई जैसी आवाजें.

इन आवाजों का कोई अर्थ हमारे मन में नहीं है. मतलब हम जेसीबी की भाषा नहीं जानते. लेकिन इन आवाजों के बीच से ही, हमारा दिमाग जानी-पहचानी आवाज हमें सुना देता है. समझते हैं ये पूरा मामला. 

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ये ना भ्रम है ना भूत!

भूतों के बारे में तो हमें नहीं मालूम. लेकिन ‘ऑडिटरी पेरीडोलिया’ को भ्रम (hallucinations) से कंफ्यूजियाने की जरूरत नहीं है. ये गलती कतई ना करें. ये किसी बीमारी या मेंटल कंडीशन की वजह से नहीं होता. ये बस हमें लगता है कि कोई हमें बुला रहा है. जैसे दुनिया में कई जगह ऐसे पहाड़ दिखते हैं, जो किसी इंसान ने नहीं बनाए हैं.

फिर भी उनमें चेहरे, जानवर वगैरह सब नजर आते हैं. ये बाकी दूसरे पहाड़ों जैसे ही हैं. बस इनमें जो पैटर्न है वो हमें जाना पहचाना लगता है. और कई बार हमारा दिमाग ऐसे पैटर्न में खुद से, चेहरा या कोई शख्स देखने की खुद कोशिश करता है. 

इसके इतर कई मेडिकल कंडीशन भी हो सकती हैं. जिनकी वजह से लोगों को आवाजें सुनाई देती हैं. जैसे सिज़ोफ्रेनिया, पोस्ट ट्रमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर वगैरह (PTSD). लेकिन वो अलग मसला है. ये वाला मामला किसी बीमारी का नहीं है, बस इंसानी दिमाग के काम करने का तरीका है. 

आपने आप्टिकल इल्यूजन के बारे में सुना होगा, जैसे ऊपर का ये वीडियो है. जिसमें लग रहा कि ये कार्टून चल रहे हैं, लेकिन ये रंगों और दिमाग की मिली भगत से हो रहा है. ये कार्टून चल नहीं रहे, हमें लगता है कि ये चलते हैं. 

ऐसे ही कुछ साउंड इल्यूजन भी हैं. जिनमें हमें एक ही साउंड को सुनने के बाद भी भ्रम होता है कि वो अलग-अलग हैं. माने जब होंठ एक तरीके से हिलते दिखते हैं तो अलग शब्द सुनाई देता लगता है. वहीं जब दूसरी तरह से हिलते हैं तो अलग. इसे मक्गर्क इफेक्ट कहा जाता है. नीचे लगे वीडियो में खुद ही ट्राई कीजिये.

हालांकि ऑडियो इल्यूजन का मामला ऑडियो पेरीडोलिया से अलग है. लेकिन इससे ये समझा जा सकता है कि कानों पर कितना भरोसा किया जा सकता है. ये हमेशा वही नहीं सुनाते जो ये सुनते हैं.

एक्सपर्ट्स क्या कहते हैं?

इस बारे में ऑडियोलॉजिस्ट नील बाउमान लाइव साइंस को बताते हैं. उनके मुताबिक,

आपका दिमाग किसी कंप्यूटर की तरह है. जिसमें आवाज, तस्वीर, शब्द वगैरह का तमाम डेटा फीड है. ये डेटा हमारी जिंदगी भर के अनुभव से आया है. जो कुछ भी हमने कहीं सुना है. वो दिमाग में फीड किया गया है. इससे ये एक पैटर्न बना लेता है. लेकिन जरूरी नहीं कि वो पैटर्न  हमेशा सही हो. या ये सही पहचान कर पाए.

वो कहते हैं जंगल में जब कोई आवाज सुनता है, तो हो सकता है कि वो जंगल की ही किसी आवाज का हिस्सा हो. और हमारा दिमाग उसमें अपना जाना-पहचाना पैटर्न बना ले.

इस बारे में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से न्युरोलॉजिस्ट एंड्रयू किंग बताते हैं कि ज्यादातर शोर की आवाजों में पैटर्न बदलते रहते हैं. फर्ज करिए कोई आवाज है, जो वैसे तो एक सी सरसराहट से आ रही है. लेकिन एक समय में उसके पैटर्न में थोड़ा सा बदलाव हो जाए. तो ये बदलाव काफी होगा, कि हमारा दिमाग किसी पहचानी आवाज या नाम से जोड़कर इसे हमें सुना दे.

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एक्सपर्ट्स के मुताबिक हमारा दिमाग लगातार ये कोशिश करता रहता है कि किसी पैटर्न का जाना पहचाना मतलब निकाल सके. इस प्रोसेस को कांट्रास्ट गेन कंट्रोल कहा जाता है. जिसमें हमारा दिमाग कोशिकाओं की संवेदनशीलता के साथ थोड़ा बदलाव करता है. ताकि लगातार आ रही एक सी आवाज या दृश्य के हिसाब से एडजस्ट कर सके. जैसे अंधेरे में हमारी आंखें एडजस्ट करने की कोशिश करती हैं. वैसा ही कुछ दिमागी कोशिकाओं के लेवल पर होता है.

वैसे तो दुनिया भर में लोग इस बारे में बताते हैं. अपना नाम सुना जाना या खरखराहट भरी आवाज में कोई जानी पहचानी बात सुनना ये होता है. अक्सर हम पूछते हैं, "मम्मी बुलाया क्या?" जवाब में आता है, नहीं तो.

हालांकि पेरीडोलिया पर जितनी रिसर्च हुई हैं. उतनी रिसर्च ऑडियो पेरीडोलिया पर नहीं हो पाई हैं. इसलिए इसे अभी इतना समझा नहीं गया है. लेकिन जितना समझा जा रहा है, उससे इसका 'गंजी चुड़ैल' से कोई लेना-देना नहीं नजर आता है!

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