इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की कुर्सी पर बैठे थे प्रीतिंकर दिवाकर. 22 नवंबर यानी आज का दिन उनका हाईकोर्ट में आखिरी वर्किंग डे था. प्रीतिंकर दिवाकर साल 1961 में पैदा हुए. जबलपुर की दुर्गावती यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई की. 1984 में वकालत शुरू की. संवैधानिक, क्रिमिनल, सिविल..हर तरीके के मुकदमे लड़े. स्टेट बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, सीबीएसई जैसी दिग्गज संस्थाओं के स्टैन्डींग काउंसिल रहे. यानी इन संस्थाओं के स्थानीय वकील. 1 नवंबर 2000 को मध्य प्रदेश से काटकर नया राज्य बनाया गया - छत्तीसगढ़. जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर की वकालत की जमीन बदलकर छत्तीसगढ़ हो गई. साल 2005 आते-आते वो छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के सीनियर वकील हो गए. और साल 2009 आते-आते हो गए छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में परमानेंट जज.
पतंजलि को सुप्रीम कोर्ट ने क्यों लताड़ा?
जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर, जस्टिस संजीब बनर्जी ने अपने साथ हुए भेदभाव पर क्या कहा?
कैलेंडर में तारीख लगी 3 अक्टूबर 2018. जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर के पास सुप्रीम कोर्ट से ट्रांसफर का आदेश आया - अब इलाहाबाद हाईकोर्ट जाना है. हाईकोर्ट के जजों का ट्रांसफर सुप्रीम कोर्ट के ही चीफ जस्टिस करते हैं. जिस समय प्रीतिंकर दिवाकर के पास ये आदेश आया, उस समय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कुर्सी पर दीपक मिश्रा बैठते थे. उन्होंने पदभार ग्रहण किया. लगभग पाँच सालों तक वो जजों की बेंच का हिस्सा थे. स्थिति बदली फरवरी 2023 में. जब उनके पास एक और चिट्ठी आई - अब आपको इलाहाबाद हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त किया जाता है. यानी उनका प्रोमोशन हो गया.
तब से लेकर अब तक प्रीतिंकर दिवाकर चीफ जस्टिस ऑफ इलाहाबाद हाईकोर्ट की कुर्सी पर बैठे हुए थे.
अब विवाद की बात. 22 नवंबर उनकी रिटायरमेंट की तारीख थी. इस दिन जज अमूमन बार काउंसिल, बार एसोसिएशन और सीनियर जजों को संबोधित करते हैं. इसमें कोर्ट में काम करने वाला सीनियर स्टाफ - जैसे रजिस्ट्री ऑफिस के लोग - भी अमूमन मौजूद रहते हैं. एक विदाई समारोह होता है. तो जब 22 नवंबर को प्रीतिंकर दिवाकर लोगों को अड्रेस कर रहे थे, तो उन्होंने छत्तीसगढ़ से इलाहाबाद हाईकोर्ट तक अपने ट्रांसफर की कहानी सुनाई. उन्होंने कहा,
"31 मार्च 2009 को मैंने बेंच ज्वाइन की. अक्टूबर 2018 तक बतौर जज मैंने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपनी जिम्मेदारी निभाई. तभी अचानक से कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिनके बारे में मुझे मालूम भी नहीं. और तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा ने मेरे पर कुछ ज्यादा ही स्नेह बरसाया और मेरा ट्रांसफर इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया गया. जहां मैंने 3 अक्टूबर 2018 को अपना चार्ज सम्हाला."
उन्होंने आगे कहा कि मुझे लगता है कि ट्रांसफर करने का जो आदेश दिया गया, वो मुझे प्रताड़ित करने की दुर्भावना के तहत दिया गया था. लेकिन मैं बार के सदस्यों और अपने साथी जजों के प्रति शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होंने मेरा साथ दिया. इसके बाद उन्होंने कहा,
"मैं मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ का भी शुक्रगुजार हूं, जिन्होंने मेरे खिलाफ हुए अन्याय को दुरस्त किया."
इस समय प्रीतिंकर दिवाकर फरवरी 2023 में खुद को चीफ जस्टिस बनाए जाने के फैसले का जिक्र कर रहे थे, जो CJI चंद्रचूड़ के कार्यकाल में लिया गया.
अब बात करते हैं दूसरे हाईकोर्ट और उससे जुड़े रहे एक और जज की. मेघालय हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस संजीब बनर्जी. उन्होंने भी जस्टिस दिवाकर से मिलता-जुलता बयान दिया. बयान के पहले उनका करियर और जीवन समझ लीजिए, तो बात समझ में आएगी.
1961 में उनकी पैदाइश हुई. पढ़ाई लिखाई कलकत्ता और दार्जिलिंग में. 1987 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई की. 1990 में शुरू की वकालत. कुछ दिनों बाद कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की. साल 2006 आते-आते उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का परमानेंट जज बना दिया गया. साल 2020 में मद्रास हाईकोर्ट पहुंचे. जनवरी 2021 में मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बनाए गए. संभव था कि कुछ सालों बाद इसी बेंच से बतौर रिटायर होते. लेकिन 11 महीने बीते नवंबर 2023 आते-आते एक आदेश आया. उन्हें मद्रास हाईकोर्ट से हटाकर भेज दिया गया मेघालय हाईकोर्ट. वो वहाँ के चीफ जस्टिस बने. और 1 नवंबर 2023 को वहां से वो रिटायर हो गए.
अब बनर्जी का जो कार्यकाल बतौर चीफ जस्टिस मद्रास हाईकोर्ट का था, उसी कार्यकाल में एक विवाद हुआ. आपको ध्यान होगा कि इसी साल देश में कोरोना की दूसरी लहर आई थी. हर जगह आक्सिजन और दवाओं के लिए लोग भागे-भागे फिर रहे थे. श्मशान घाटों पर लाशों की गिनती नहीं हो पा रही थी. और इसी बीच अप्रैल के महीने में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे - बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडु. तमिलनाडु में एक चरण में चुनाव हुए थे. चुनावी रैलियों में भीड़ पहुंच रही थी. कोविड प्रोटोकाल की धज्जियां उड़ाई जा रही थी. इन चीजों को देखते हुए संजीव बनर्जी ने टिप्पणी की थी - कोविड प्रोटोकॉल तोड़ने के लिए चुनाव आयोग पर हत्या का अभियोग चलाना चाहिए.
चुनाव आयोग इस टिप्पणी से बहुत नाराज हुआ था. उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि मद्रास हाईकोर्ट की ये टिप्पणी अपमानजनक है. इस टिप्पणी को खारिज कर दिया जाए. और इसकी रिपोर्टिंग पर रोक लगाई जाए. सुप्रीम कोर्ट ने दोनों ही बातों को मानने से मना कर दिया.
लेकिन कुछ ही महीनों बाद सुप्रीम कोर्ट ने संजीव बनर्जी का ट्रांसफर मेघालय कर दिया. इंडियन एक्सप्रेस की खबर बताती है कि ट्रांसफर का आदेश आते ही जूडिशियरी के गलियारों में ये फुसफुसाहट शुरू हो गई कि ये संजीब बनर्जी द्वारा चुनाव आयोग पर की गई टिप्पणी के बाद हुई कार्रवाई है.
अब अपने ट्रांसफर पर इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए संजीव बनर्जी ने कहा कि मुझे कारण नहीं पता. लेकिन साल 2021 में जब मुझे तत्कालीन CJI NV रमन्ना के ऑफिस से मेल आया, तो मैंने सहमति जताई. जस्टिस बनर्जी ने बताया कि CJI के ऑफिस से आए मेल में कारण नहीं था, बस लिखा था कि ट्रांसफर न्याय के बेहतर प्रशासन को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है. अंग्रेजी में लिखा हुआ था - “in interest of better administration of justice.”
अब आप ध्यान देंगे तो दोनों ही रिटायर्ड जजों ने कहा है कि उनको उनके ट्रांसफर के कारण नहीं बताए गए. बस ट्रांसफर हो रहा है, ऐसी सूचना दे दी गई. एक जज ने तो पूर्व cji का नाम लेकर भी प्रताड़ित करने के आरोप लगाए. इन आरोपों को सुनें तो आपको सुप्रीम कोर्ट की कार्यशैली थोड़ी सवालों के घेरे में दिखाई देती है. आपके मन में ये सवाल उठते हैं कि क्या जजों का ट्रांसफर और पोस्टिंग एक अपारदर्शी प्रक्रिया है, जिसके बारे में उन जजों को भी नहीं पता, जिनके नाम ट्रांसफर और पोस्टिंग वाली चिट्ठी में लिखे जाते हैं?
इन सवालों को एक और हाईकोर्ट के वर्किंग जज की टिप्पणी से थोड़ा बल मिलता है. उनका नाम जस्टिस विवेक चौधरी है. वो अभी तक कलकत्ता हाईकोर्ट में बतौर जज कार्यरत थे. उनका ट्रांसफर किया गया पटना हाईकोर्ट. तो उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में अपना विदाई संबोधन दिया 21 नवंबर को. और कहा कि उनका ट्रांसफर इस ओर इशारा करता है कि देश में शक्ति का ट्रांसफर executive body से judiciary को हो चुका है. Executive का मतलब यहां सरकार से निकालिए. judiciary की भी सबसे ऊंची सीट का उन्होंने जिक्र किया. यानी सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम. कोलेजियम क्या है? ये सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष जजों का वो समूह है, जो सुप्रीम कोर्ट में और देश की सभी हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर का निर्णय लेता है.
जस्टिस चौधरी की बात पर वापिस आते हैं. उन्होंने ये भी कहा कि उनका ट्रांसफर आपातकाल के बाद किये जा रहे सबसे बड़े ट्रांसफर में से पहला ट्रांसफर है. उन्होंने कहा
"साल 1975 में इमरजेंसी के समय 16 हाईकोर्ट जजों का सरकार ने एक झटके में ट्रांसफर कर दिया था. और अब 48 साल बाद हाईकोर्ट के 24 जजों का सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने एक बार में ट्रांसफर किया है. ये पॉवर का शिफ्ट है."
बता दें कि अगस्त 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने 24 हाईकोर्ट जजों का ट्रांसफर का आदेश पास किया था. दी हिन्दू में प्रकाशित कृष्णदास राजगोपाल की रिपोर्ट बताती है कि इन 24 में से बहुत सारे जजों ने कॉलेजियम से आग्रह किया था कि वो अपने आदेश की समीक्षा करें. कुछ जजों ने अपने बच्चों के बोर्ड एग्जाम का हवाला दिया था. कुछेक जजों ने एक राज्य के बजाय कोई दूसरा राज्य मांगा था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय और अपनी संस्तुति में कोई बदलाव नहीं किया, और ये ट्रांसफर अब जाकर शुरू हो चुके हैं.
ऐसे में एक सवाल उठता है. सवाल ये कि क्या यही कुछ केसेज़ हैं, जहां हाईकोर्ट के जजों को बिना कारण बताए एक सिरे से दूसरे सिरे भेजा गया? या ऐसे दूसरे केस भी हैं? और क्या ये पोस्टिंग किसी बदले या सबक सिखाने की तरह की जाती हैं? हमारे साथी सिद्धांत मोहन ने सुप्रीम कोर्ट के वकील दुष्यंत दवे से इसे लेकर बात की.
दुष्यंत दवे की बातों को सुनें तो सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट में न्यायपालिका के संचालन को लेकर परदादारी है?
एक बात तय है. बात ये कि अगर तंत्र - जिसमें संवैधानिक संस्थाएं, न्यायपालिकाएं और विधायिकाएं आती है - उसमें किसी भी स्तर पर सवाल उठाए जा रहे हैं, या अपारदर्शिता की शिकायतें की जा रही हैं, उसे ठीक समय पर दुरुस्त किया जाना चाहिए. ठीक समय पर आरोपों और शंकाओं का शमन किया जाना चाहिए.
अब चलते हैं दूसरी खबर की ओर.
ये खबर है पश्चिम बंगाल से. गौतम अडानी देश के बड़े बिज़नेसपर्सन हैं. देश के सबसे बड़े अमीरों की सूची में रहे हैं. लेकिन जितनी मौजूदगी उनकी बिज़नेस-जगत में है, उतनी ही ख़बरों में है. कभी SEBI की कार्रवाई पर हेडलाइन बनती है, कभी विदेश से आई किसी रिपोर्ट पर. संसद में भी उनके नाम पर ख़ूब शोर मचता है. माने कुछ बिज़नेस किया, कुछ विवाद में फंसे. कभी विवाद बिज़नेस के आड़े आता रहा, कभी बिज़नेस में काम उलझता रहा. जैसे, ये हालिया ख़बर. टीवी की एक पंक्ति उधार लेकर बताएं तो पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने अडानी ग्रुप से 25 हज़ार करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट 'छीन' लिया है.
अब इसको विस्तारते हैं. कोलकाता से 170 किलोमीटर दूर एक क़स्बा है ताजपुर. बंगाल की खाड़ी के तट पर. दीघा के पास. बंगाल सरकार की लंबे समय से यहाँ पर एक बंदरगाह बनाने की योजना है. माना जाता है कि अगर बंदरगाह बन गया तो इससे सीधे तौर पर 25 हज़ार नौकरियां पैदा होंगी. बड़े-बड़े जहाज आएंगे तो सामान लाएंगे. पैसे का लेन-देन होगा. जाहिर है कि निवेश बढ़ेगा.
अब ये ताजपुर पोर्ट बनाने के लिए बंगाल सरकार ने साल 2022 में एक ठेका निकाला था. ठेका जीता अडानी पोर्ट्स ने. ये कुल 25 हजार करोड़ का प्रोजेक्ट था. अगस्त 2022 में जब बंगाल ग्लोबल बिज़नेस समिट में गौतम अडानी आए,तो उन्होंने 10 हज़ार करोड़ रुपये के निवेश का एलान भी कर दिया था. इसके दो महीने बाद अक्टूबर 2022 में उनके बेटे अडानी पोर्ट्स के CEO कारण अडानी आए. तो ममता बनर्जी ने ख़ुद उन्हें ताजपुर पोर्ट का LOI (Letter of Intent) सौंपा था. यानी सरकार का मन है, उन्हें ये परियोजना का काम सौंपने का. अब वो चाहें तो तमाम कार्रवाई पर आगे बढ़ सकते हैं.
अब यही परियोजना कैन्सल हुई. कैसे? बंगाल बिजनेस समिट का इस साल का सत्र चल रहा है. 21 नवंबर को इस समिट में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ़ किया कि ताजपुर प्रोजेक्ट के लिए जल्द ही फ़्रेश टेंडर जारी किया जाएगा. यानी पुराना टेंडर रद्द. अडानी का प्रोजेक्ट फेल. अब नए सिरे से पूरी कार्रवाई.
इसमें एक बात और है कि अडानी की इस बिजनेस समिट में गैरमौजूदगी. इसमें रिलायंस इंडस्ट्री के मुकेश अंबानी आए, एनर्जी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी RPSG ग्रुप के संजीव गोयनका आएऔर विप्रो के रिशद प्रेमजी आए. सब लोग आए. अपने बिज़नेस के लिए संभावनाएं तलाश रहे. लेकिन अडानी समूह नहीं आया है. उनके न आने ने ताजपुर प्रोजेक्ट में उनकी भूमिका पर सवालों को और गहरा दिया है.
लेकिन अडानी समूह ने हार नहीं मानी है. द हिंदू ने सूत्रों के हवाले से छापा है कि अडानी ग्रुप लेटर ऑफ़ अवॉर्ड (LOA) का इंतज़ार कर रहा है. LOA , LOI सौंपे जाने के बाद ज़मीनी स्तर पर काम आगे बढ़ाने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है.
अब इसकी राजनीति समझिए TMC और बंगाल सरकार लंबे समय से अडानी पर हमला करती रही है. महुआ मोइत्रा का जो हालिया विवाद है, वो संसद में अडानी पर सवाल पूछने को लेकर ही हुआ. आरोप लगे कि उन्होंने पैसे लेकर अडानी पर सवाल पूछे. अब ये टेंडर कैंसिल होता दिख रहा है तो सरकार ने क्या आधिकारिक तौर पर कुछ कहा है? नहीं.
सरकार ने क्या कहा है? इस मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है. हालांकि, अंदरखाने की कहानी है कि अडानी और महुआ मोइत्रा के विवाद की वजह से ममता ने अडानी से दूरी बनाई है. चूंकि महुआ का नाम आ ही गया है, तो फिर ये भी जान लीजिए कि TMC सांसद महुआ मोइत्रा का अडानी बिज़नेस पर क्या रुख है? क्योंकि उन पर और उनकी पार्टी पर ताजपुर पोर्ट को लेकर सवाल उठाए जाते रहे कि वो एक तरफ अडानी पर हमलावर हैं और एक तरफ उन्हें पोर्ट सौंप रहे हैं. हमारे साथी सिद्धांत मोहन ने महुआ के साथ बातचीत की थी, जो दी लल्लनटॉप पर 5 सितंबर 2023 को पब्लिश हुई थी.
माने महुआ सीधे तौर पर कह रही हैं कि अडानी भारत का सबसे बड़ा स्कैम चला रहे हैं और स्टॉक मार्केट के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. और, ये वो उनपर लगे आरोपों से पहले से कह रही हैं. इस खबर की बढ़त जैसी और जब होगी, हम उसे आपको बताएंगे. अभी चलते हैं अगली खबर की ओर,
तीसरी ख़बर पतंजलि आयुर्वेद से जुड़ी हुई है.
रामदेव और बालकृष्ण के बिजनेस वेंचर को सुप्रीम कोर्ट से बड़ा झटका लगा है. बीते कुछ दिनों से सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) की एक याचिका पर सुनवाई कर रही है. IMA ने अपनी याचिका में आरोप लगाए हैं कि पतंजलि और रामदेव ने मॉडर्न मेडिसीन प्रैक्टिसेज़ के ख़िलाफ़ कैम्पेन चलाया हुआ है. अब 21 नवंबर को जब सुनवाई हुई तो बेंच ने पतंजलि आयुर्वेद को पैरों के नीचे से जमीन खींचने वाला आदेश दिया. बेंच ने कहा कि वो मॉडर्न मेडिसीन (आसान भाषा में एलोपेथी) के ख़िलाफ़ भ्रामक दावे न छापें. बेंच ने यहां तक कहा कि अगर कोई ग़लत दावा करता है कि उनकी अमुक दवा अमुक बीमारी को ठीक करती है, तो उनके ऐसे हरेक प्रोडक्ट पर 1 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया जाएगा. यानी एक तेल का गलत प्रचार किया तो 1 करोड़. एक मंजन का गलत प्रचार किया तो उस पर भी एक करोड़.
जब कोर्ट ने ये आदेश दिया तो कोर्ट में पतंजलि के वकील ने कोर्ट को भरोसा दिलाया. भरोसा ये कि वो आगे कभी ऐसे विज्ञापन नहीं छापेंगे, और ना ही मीडिया में ऐसे गैरजिम्मेदाराना बयान देंगे. कोर्ट ने पतंजलि का ये बयान अपने संज्ञान में ले लिया.
लेकिन ठीक अगले दिन यानी 22 नवंबर को पतंजलि आयुर्वेद के सह-संस्थापक और प्रोमोटर रामदेव ने दोपहर तीन बजे एक पत्रकारवार्ता को संबोधित किया. और अपनी कंपनी और कैम्पेन को डिफ़ेंड किया. कहा कि वो झूठा प्रचार नहीं कर रहे है. और उन्होंने अपने तरीकों से बहुत सारे लोगों को ठीक किया है. और साथ ही आरोप लगाये डॉक्टरों पर कि वो दुष्प्रचार कर रहे हैं. सुनिए
ध्यान रहे कि रामदेव कोर्ट में वादा करने के बाद फिर से ये सारे दावे कर रहे थे. वो ये भी कह रहे थे कि जरूरत पड़ी तो साक्ष्य सामने रखेंगे. जाहिर है कि साक्ष्य सामने आने चाहिए. ताकि देश का, देश के स्वास्थ्य तंत्र का वैज्ञानिक चेतना पर भरोसा जम सके. भरोसा मजबूत हो सके. वरना कांग्रेस के राहुल गांधी हों या भाजपा के अमित मालवीय, वे तमाम नेताओं और प्रधानमंत्रियों को "पनौती" यानी अपशगुन करार देकर तमाम वैज्ञानिकों, वैज्ञानिक चेतनाओं का मज़ाक उड़ाते ही रहते हैं.