मेरा दोस्त गुलाब भाटी कहता है कि भाई मोहब्बत हमने भी की थी, ऐसी बात ना है. पर हमारी मोहब्बत कामयाब ना हुई.
नई पीढ़ी में 'बिन फेरे हम तेरे' का ट्रेंड क्यों बढ़ रहा?
'कमिटमेंट वालों को ख़बर क्या, सिचुएनशिप क्या चीज़ है'. दुनिया भर में ज़ेन-ज़ी जनरेशन कह रही है कि शादी इज़ नॉट द ओनली वे. ये जेनरेशन अपने दिल को उस मक़ाम पर लाती जा रही है जहां संबंधों के कई खांचे हैं. इसके पीछे क्या वजह है?
कैसे कामयाब ना हुई.
न्यू कै भई शादी ना हुई.
एक लंबे समय तक कामयाब इश्क की परिभाषा विवाह के अंजाम से तय की गई. हमारी लोकसंस्कृति में मर्दाना पसीने में मिसमिसाते लड़के अपने परिवार से मिन्नतें करते थे. कहते थे कि बाप्पू मेरा ब्या करवा दे, मेरी खात्यर बहू तो ल्या दे.
लेकिन ये तय किसने किया कि इश्क का अंजाम शादी ही हो, तभी वो इश्क माना जाएगा? ये हम ना पूछ रए भईया साल 2000 के बाद पैदा हुए बालक-बालिकाएं पूछ रहे हैं. दुनिया भर में ये जनरेशन कह रही है कि शादी इज़ नॉट द ओनली वे. ये जेनरेशन अपने दिल को उस मक़ाम पर लाती जा रही है जहां संबंधों के कई खांचे हैं. कमिटमेंट वालों को ख़बर क्या, सिचुएनशिप क्या चीज़ है. Pew Research की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में 40% युवा शादी के बगैर जी रहे हैं. जापान में, हर चार में से एक युवा शादी के ख़िलाफ़ है. दक्षिण कोरिया में 70% युवा शादी को ज़रूरी नहीं मानते, लिव-इन को बेहतर मानते हैं. सवाल है कि ऐसा क्यों?
- दुनियाभर में शादियां कम क्यों हो रही हैं?
- क्या ये टेम्पररी ट्रेंड है या ये आंकड़े किसी बड़े सामाजिक बदलाव की आहट दे रहे हैं?
- ये पीढ़ी शादी से भागती क्यों है?
- ‘बिन फेरे हम तेरे’ का ट्रेंड किस घबराहट का नतीजा है?
जवाब जटिल है और पंगे वाला है. आज बात इसी पर.
शादी - टेक्निकली डिफाइन करें तो दो लोगों के बीच एक संबंध का नाम. लेकिन इस रिश्ते को ट्रायंगल बनाता है समाज.
सोसाइटी यानी एक सिस्टम, एक ऑर्डर ताकि लोग सुनियोनित तरीके से रहें. इस सिस्टम को चलाने के अलग-अलग तरीके हैं. मसलन पॉलिटिक्स से सत्ता का निर्धारण होता है. वहां से नियम कायदे बनते हैं. ये काम संसद, कोर्ट आदि इंस्टीट्यूशंस के जरिए होता है. लेजिस्लेचर, ब्यूरोक्रेसी भी ऐसे ही इंस्टीट्यूशन हैं. इनका स्ट्रक्चर अक्सर काफी फॉर्मल होता है. एक स्ट्रिक्ट हायरार्की होती है.
पर कुछ होते हैं- सोशल इंस्टीट्यूशन, और ऐसे सोशल इंस्टीट्यूशन जिनमें फॉर्मल हायरार्की नहीं होती. इनमें परंपरा, संस्कृति आदि का ज्यादा पुट होता है. जैसे कि परिवार इस तरह का एक इस्टीट्यूशन है. जो ऑर्गैनिक रूप से बिल्ट होता है. इसे बनाने के लिए लीगल उपक्रम है शादी. लेकिन परिवार के अधिकतर हिस्से, मां-बाप, भाई, बहन, ऑर्गैनिक रूप से बिल्ड होते हैं. इन्हें बाहर से लाकर जोड़ा नहीं जाता. इसके बावजूद, चूंकि परिवार समाज का एक इंस्टीट्यूशन है, इसलिए इसमें बाकी इंस्टीट्यूशंस की ही तरह सोशियोलॉजी के कई नियम लागू होते हैं.
सोशियोलॉजी में एक कॉन्सेप्ट है- स्ट्रक्चरल फंक्शनलिज़्म. जिसका मतलब है, समाज में कोई भी चीज़ तब तक ही एक्सिस्ट करती है जब तक उसकी जरूरत होती है. जब समाज को उस इंस्टीट्यूशन की जरूरत नहीं होती तो वो इंस्टीट्यूशन खत्म हो जाता है. मसलन 50 साल पहले देश में ज्यादातर जॉइंट फैमिलीज होती थीं. जैसे-जैसे वैश्वीकरण के विस्तार के साथ विकास हुआ, इंडस्ट्रीज आईं, देश के कुछ शहर रोजगार का हब बन गए, लोग घरों को छोड़ यहां कमाने आ गए, वैसे-वैसे जॉइंट फैमिलीज़ टूटीं और न्यूक्लियर फैमिलीज़ बढ़ीं.
न्यूक्लियर फैमिलीज़ यानी वो परिवार जिनमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं, बस. इस वजह से जॉइंट फैमिली का इंस्टीट्यूशन खत्म होने लगा. और ऐसा सिर्फ भारत में नहीं हुआ. ये सोशल चेंज पूरी दुनिया में आया. यूरोप और अमेरिका में ये बदलाव 19वीं शताब्दी में हुआ क्योंकि वहां औद्योगिकीकरण पहले हुआ. हमारे यहां बाद में.
जॉइंट फैमिली का न्यूक्लियर फैमिली में चेंज होना, सोशल इंस्टीट्यूशन में बदलाव का एक उदाहरण है. और ये चेंज जरूरत में बदलाव के कारण आया. अब इसी फॉर्मूला को हम शादी पर लगाएं तो हालिया ट्रेंड को समझना आसान होगा. फैमिली की ही तरह शादी भी एक सोशल इंस्टीट्यूशन है. स्ट्रक्चरल फंक्शनलिज़्म के अनुसार इसमें बदलाव के पीछे भी कोई न कोई फंडालमेन्टल चेंज रहा होगा. ऐसे कौन से बदलाव हैं, जिनके चलते लोग शादी से कन्नी काट रहे हैं?
#शादी की उपयोगिता कितनी बची?शादी की उपयोगिता क्या थी, यूटिलिटी क्या थी और दुनियाभर में इसका हिसाब-किताब क्यों बदला, पहले इसे समझते हैं. इसके लिए चलना होगा यूरोप. बात ऐसी है कि 18वीं सदी तक यहां के लोग गांव में रहते थे. खेती-बाड़ी करते थे. और लोगों के काम धाम से ही जुड़ा था शादी का कॉन्सेप्ट. शादी की बेसिक 3 जरूरतें थीं.
- वंश आगे बढ़ाना.
- परिवार में काम काज का बंटवारा, जैसे पुरुष खेत में काम करेगा और महिला घर का काम संभालेगी.
- प्यार, स्नेह और शारीरिक जरूरतें.
अब 18वीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति, जिसने दुनिया को बदल दिया. फैक्टरियां लगीं, मजदूरों की जरूरत पड़ी. इस वजह से शुरू हुआ माइग्रेशन. गांव से निकले मजदूर शहर पहुंचे. जैसे-जैसे इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अलग-अलग देशों में पहुंचा, वैसे-वैसे उन देशों में एक जैसे बदलाव देखने को मिले. भारत भी इनमें से एक है. इस पूरी प्रक्रिया में तीन बड़े बदलाव हुए-
- फैक्टरियों और उद्योगों ने महिलाओं के लिए भी रोजगार के दरवाजे खोल दिए. माने परिवार में कामकाज के बंटवारे का जो नियम था वो खत्म हो गया.
- माइग्रेशन की वजह से लोग अपनी सीमित दुनिया छोड़कर एक्सप्लोर करने निकले. महिलाओं का इंटरेक्शन सिर्फ उनके घरों तक सीमित था और पुरुषों का इंटरेक्शन सिर्फ उनके गांव जवार तक. शहर पहुंचकर नए लोगों से मेल जोल हुआ.
- इंडस्ट्रीज आने के साथ बढ़ती है पैसे की असमानता. माने कोई बहुत कमा रहा था तो कोई कम.
लेकिन जेब में पैसे हों या न हों, बाजार में घूमते वक़्त ख्वाहिशें तो होती ही हैं. ये ख्वाहिशें ही पैसा कमाने की इच्छा को जन्म देती हैं.
अब सोचिये, इससे इंसान के मनोविज्ञान पर क्या असर पड़ा होगा. सबसे पहले लोग, नए लोगों से मिले तो पार्टनर को लेकर उनका पर्सपेक्टिव बदला. माने लड़के और लड़कियों, दोनों को समझ आया कि समाज में कैसे पार्टनर्स होते हैं. पार्टनरशिप में भी विकल्प नाम की कोई चीज़ हो सकती है. ये मंथन करने की गुंजाइश हुई कि हमारे लिए कौन सा व्यक्ति उपयुक्त होगा. दूसरा असर पढ़ा एम्बिशन का, इंडस्ट्रिलाइजेशन के पहले जिसके पास जमीन है, या वो राजसी घराने से है, वही इंसान ताकतवार होता था. लेकिन इंडस्ट्रिलाइजेशन ने पावर गेम को डेमोक्रेटिक बना दिया.
कैसे?
अब कोई भी गरीब घर का व्यक्ति बिजनेसमैन बन सकता था. यानी मेहनत करके राजा बन सकता था, जैसा ओझा सर कहते हैं. इसलिए इंसान का फोकस परिवार नहीं बल्कि पैसा बन गया. तीसरा और सबसे बड़ा असर पड़ा महिलाओं पर. उनको मिली आज़ादी और नौकरी. जिसने उन्हें आर्थिक रूप से निर्भर और सामाजिक रूप से स्वतंत्र बना दिया.
इस सोशल और मनोवैज्ञानिक बदलावों ने लोगों के बिहेवियर में कुछ नए बदलाव किए. जैसे,
- समूह की जगह व्यक्ति की चाहत को ज्यादा अहमियत मिली. UPSC की भाषा में, कलेक्टिविज़्म (समष्टिवाद) की जगह इंडिविजुअलिज्म (व्यक्तिवाद) को वरीयता मिलने लगी.
लोगों ने अपने प्रोफेशनल गोल्स पर फोकस किया. - इसका असर सामाजिक नियमों पर भी पड़ा. रिश्तों की तस्वीर बदली. जहां पहले लड़का-लड़की के साथ आने के लिए शादी ही एकमात्र ऑप्शन था, वहीं अब व्यक्तिगत आजादी के साथ लोगों ने नए तरीके के रिश्तों को आजमाना शुरू कर दिया.
यहीं से जन्म हुआ अलग-अलग तरह के रिश्तों का. पहले लव मैरिज आई. फिर शादीमुक्त रिश्ते आए. जैसे-
1. लिव इन रिलेशनशिप: जब आप अपने पार्टनर के साथ बिना शादी के साथ रहते हैं, तो उसे लिव-इन रिलेशनशिप कहते हैं.
2. कैजुअल डेटिंग: दो लोगों के बीच फिजिकल और इमोशनल रिश्ता, जिसमें कोई गंभीर रोमांटिक रिश्ते की ज़िम्मेदारी नहीं है, किसी के भी कंधे पर.
3. सिचुएशनशिप: एक ऐसा रिश्ता जिसमें लोग इंटीमेट होते हैं, पर इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चाहते. इसमें कोई कमिटमेंट नहीं होता.
4. ओपन रिलेशनशिप: एक समय में एक से ज्यादा रोमांटिक या सेक्सुअल पार्टनर होना. इसमें दोनों पक्ष सहमत होते हैं कि यह रिश्ता एक्सक्लूसिव नहीं है, यानी उनका पार्टनर किसी और से भी संबंध रखने के लिए आज़ाद है.
स्थायी रिश्ते के बजाय, शॉर्ट टर्म पार्टनर रखने को ‘कमिटमेंट डिलेमा’ कहते हैं. इसी को सोशियोलॉजी की भाषा में “नॉमर्ल केऑस इन अ रिलेशनशिप” कहते हैं. इसलिए दुनिया ‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने’ से चलकर ‘घर पे चलना है कि पहले जाएगी क्लब’ तक आ गई है. इसे एक असल उदाहरण से समझते हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में इस विषय पर एक रिपोर्ट छपी. इसमें मुंबई में रहने वाले अनिर्बन सेन का अनुभव छपा है. 35 की उम्र में, अनिर्बन सेन एक नए अंदाज़ के पिता हैं. मुंबई में एक सफल आईटी प्रोफेशनल के रूप में, अनिर्बन की ज़िंदगी उन लोगों से बिल्कुल अलग है जो आज के दौर में रिश्तों में जीते हैं. हर शाम 7 बजे तक वो घर पहुंच जाते हैं. अपने बेटों के एजुकेश सेशन संभालते हैं. उनके लिए प्ले डेट्स प्लान करते हैं.
लेकिन बाकी लोगों से अलग अनिर्बन ने शादी नहीं की है. बच्चे पाने के लिए 2019 में उन्होंने सरोगेसी का रास्ता अपनाया. अधिकतर लोगों के लिए ये अटपटा हो सकता है, लेकिन अनिर्बन ऐसा नहीं मानते. उनके हिसाब से, “शादी एक जटिल संबंध है. सबके अपने सपने हैं, इच्छाएं हैं. जो कई बार शादी की पेचीदगियों के चलते मुकम्मल नहीं हो पाते.”
शादी क्यों नहीं की, इस पर अनिर्बन कहते हैं, “अगर मुझे मेरे मन का साथी मिलता है, तो मैं उसे अपनाऊंगा. मगर शादी उसके लिए ज़रूरी नहीं." अनिर्बन का कहना है कि शादी के बजाय उनके लिए पिता बनना ज्यादा अहम था. इसलिए उन्होंने ये रास्ता चुना.
ये एक उदाहरण है. ऐसे कुछ और उदाहरणों को आप शायद खुद भी जानते होंगे.
अंत में इस मसले के निष्कर्ष पर चलें तो ओशो की एक बात याद आती है. अपने किसी प्रवचन में वो कहते हैं, "जब कोई मुझसे पूछता, ये दाढ़ी क्यों रखी है. मैं जवाब देता, दाढ़ी काटी जाती है, रखी नहीं जाती. दाढ़ी का उग आना स्वाभाविक है. काटना आपका फैसला."
रिलेशनशिप के मौजूदा ट्रेंड्स के पीछे नए लोगों का कुछ ऐसा ही तर्क है. शादी क्यों नहीं की, ये सवाल उन्हें वाजिब नहीं लगता. शादी क्यों करें, ये सवाल उनके लिए ज्यादा मायने रखता है. गिव मी अ गुड रीज़न टू मैरी, अदरवाइज़ आयम गुड ब्रो.
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