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भूटान में कौन तख़्तापलट करना चाहता है?

तख्तापलट का भारत पर क्या असर पर सकता था?

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भूटान के राजा खेसार नामग्याल वांगचुक और उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा. (तस्वीर: एपी)
इस कहानी की शुरुआत के कई और तरीके हो सकते थे. मगर मैंने सोचा, आज एक अलहदा से किरदार की सक्सेस स्टोरी से शुरुआत करूं. एक लड़का था- सामदु. पैदा हुआ, गाय के बथान में. मां-बाप की कल्पना में स्कूल की कोई जगह नहीं. उनके लिए जीवन माने- खेती करना, गाय चराना, जंगल से लकड़ियां काटना.
सामदु नौ साल का था, तो बड़े भाई की ज़िद से उसके स्कूल जाने की नौबत बनी. मां-बाप ने सोचा, हमारा लाड़ला बेटा, स्कूल जाकर घंटों भूखा रहेगा. कमज़ोर हो गया तो? भोले मां-बाप ने युक्ति निकाली. तय किया, सामदु के साथ एक गैया भी स्कूल जाएगी.
ज़िंदगी यहां तक बेहतर थी. इसके बाद साथ लगीं दुर्घटनाएं और दुश्वारियां. कभी सामदु किसी ढहे हुए घर के नीचे दब गया. कभी नदी में डूबते-डूबते बचा. कभी ऊंचाई से नीचे गिरा और डॉक्टरों ने कहा, ये तो मर गया. 12 का था, तो परिवार बिखर गया. 14 का था, तो स्कूल छूट गया. 15 का हुआ, तो मां-बाप तीर्थ के बहाने ले जाकर धोखे से उसकी शादी करा आए. दो बच्चे हो गए, तो बीवी भाग गई. काफी इंतज़ार करने के बाद जब सामदु ने अपनी पसंद की लड़की से दूसरी शादी की, तो पहली बीवी लौट आई.
सामदु ने सोचा, जीवन में इतनी उलझनें आईं. क्या से क्या होता रहा. जिन चीजों पर बस नहीं, उसका मैं क्या करूं? मगर ये तो कर सकता हूं कि पॉजिटिव रहूं. कभी नकारात्मकता न फैलाऊं. ख़ुशियां बांटने का वो संकल्प इतना अटूट था कि सामदु लोगों को ख़ुश रहने का सीक्रेट सिखाने लगे. मोटिवेशनल स्पीकर हो गए. इतना ही नहीं, बल्कि उन्हें एक मुल्क की ख़ुशहाली का जिम्मा भी सौंप दिया गया. वो उस मुल्क के पहले 'नैशनल हैपिनेस सेंटर' के मुखिया बना दिए गए.
Saamdu Chetri
सामदु भूटान के नैशनल हैपिनेस सेंटर के मुखिया हैं.


कौन सा देश है ये?
वही, जिसका नाम सुनकर सबसे पहला शब्द ध्यान आता है- हैपिनेस. वो देश, जिसका कहना है कि GDP से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है जनता की ख़ुशी. और ये ख़ुशी मापने का बैरोमीटर है- GNH. यानी, ग्रॉस नैशनल हैपिनेस. इस देश का नाम है- भूटान. बीते रोज़ इसी भूटान से एक साज़िश की ख़बर आई है. इसमें सेना और न्यायपालिका के कुछ टॉप सीनियर्स की मिलीभगत बताई जा रही है. ये क्या मामला है, विस्तार से बताते हैं आपको.
हमारा पड़ोसी भूटान. हिमालय में बसा आख़िरी किंगडम. भूटान शब्द का ठीक-ठीक मतलब क्या है, पक्का नहीं. मगर कई जानकार कहते हैं कि ये संस्कृत भाषा से निकला नाम है. संस्कृत में तिब्बत को कहते थे, भोटा. और तिब्बत के बगल में बसा देश कहलाता था- भोटा अंत. मतलब, यहां तिब्बतन प्लैटू ख़त्म होता है. यही भोटा अंत आगे चलकर भूटान कहलाने लगा.
करीब 38 हज़ार स्क्वेयर किलोमीटर में फैला छोटा सा देश. बमुश्किल आठ लाख की आबादी. देश का 70 पर्सेंट इलाका जंगलों से ढका है. ख़ूब साफ़ आबोहवा है. GDP में दुनिया के सबसे गरीब देशों में हो, मगर ख़ुशहाली इंडेक्स में ख़ूब संपन्न है.
भूटान के उत्तर में है तिब्बत. जिसपर अब चीन का कब्ज़ा है. इसके सबसे बड़े पड़ोसी हैं हम. जो कि भूटान की पश्चिम, दक्षिण और पूरब, तीन दिशाओं में फैले हैं. यहां की भाषा है, जॉन्ख़ा. इसमें भूटान को भूटान नहीं कहते. स्थानीय भाषा में भूटान का नाम है- ड्रूक यूल. माने, बिजली की तरह गरजने वाले थंडर ड्रैगन का देश. 'थंडर ड्रैगन' तिब्बती माइथोलॉजी का एक किरदार है. ये भूटान का राष्ट्रीय प्रतीक भी है. थंडर ड्रैगन आपको भूटान के झंडे पर भी दिख जाएगा.
Bhutan Flag
भूटान का झंडा.


भूटान की कहानी ठीक-ठीक कब शुरू हुई, कोई नहीं जानता. इसका फ़ॉर्मल इतिहास शुरू होता है, यहां बौद्ध धर्म के आगमन से. मानते हैं कि उसके पहले भी, कमोबेश आज जितने ही भूभाग में ये एक आज़ाद ज़मीन रही थी. कोई एक सेंट्रल अथॉरिटी नहीं थी. बल्कि कई अलग-अलग रियासतें थीं.
बौद्ध धर्म के मुताबिक भूटान का शुरुआती इतिहास हमें सन् 747 पर ले जाता है. तब बौद्ध धर्म में एक बड़े गुरु थे, कुमार पद्म संभव. इन्हीं का एक नाम है, गुरु रिंपोचे. वो तिब्बत में रहते थे. कहते हैं कि 747 के साल यही गुरु रिंपोचे एक बाघ पर सवार होकर उड़ते हुए तिब्बत से भूटान आए. मकसद था, यहां बौद्ध धर्म का प्रसार करना. मान्यता है कि भूटान आकर गुरु रिंपोचे ने एक शैतान को हराया. एक बीमार राजा का इलाज़ किया. इन चमत्कारों से लोग प्रभावित हुए और वो भी बौद्ध धर्म के अनुयायी बनने लगे. भूटान के लोग आज भी गुरु रिंपोचे की आराधना करते हैं. यहां बुद्ध के बराबर उनका भी मान है.
भूटानी इतिहास का दूसरा बड़ा दौर शुरू हुआ 17वीं सदी में
ये दौर जुड़ा है तिब्बत से भागकर आए कुछ बौद्धों से. तिब्बत के पश्चिमी हिस्से में सांग नाम का एक प्रांत है. यहां एक प्राचीन मॉनेस्ट्री है- रालुंग. ये मॉनेस्ट्री बौद्ध धर्म की महायान शाखा से जुड़ी है. महायान शाखा में कई सेक्ट्स हैं. इनमें से ही एक है- ड्रुक्पा. इसी ड्रुक्पा सेक्ट की पारंपरिक गद्दी थी रालुंग मॉनेस्ट्री.
अब कहानी में एक और सेक्ट की एंट्री होती है. इसका नाम था, गेलुग. ये तिब्बत बौद्ध परंपरा में सबसे नया सेक्ट माना जाता है. ये सेक्ट नया था, मगर इसने बहुत तेज़ी से अपना विस्तार किया. 16वीं सदी के आख़िर तक आते-आते ये पूरे तिब्बत में फैल गए. विस्तार की ये प्रक्रिया बस अनुयायियों की संख्या बढ़ाने तक सीमित नहीं थी. ये विस्तार राजनैतिक पावर का भी था. इस प्रक्रिया में कई पुराने सेक्ट्स इनके निशाने पर आए. इनमें से एक था, रालुंग मॉनेस्ट्री वाला ड्रुक्पा सेक्ट. उन्हें तिब्बत से भागने पर मज़बूर कर दिया गया. चूंकि भूटान इनके पड़ोस में था, सो ड्रुक्पा सेक्ट के कई लामा तिब्बत से भागकर यहीं चले आए. इन्हीं लामाओं में से एक थे- नावांग नामग्याल.
नावांग नाम्ग्याल के भूटान पहुंचने का साल था- 1616
इस वक़्त भूटान में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं था. देश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था. इन रियासतों को एक करके भूटान को एक संगठित शक्ल देने का काम किया नावांग ने. 1616 में यहां आने से 1651 में अपनी मौत तक, नावांग ने पूरे पश्चिमी भूटान को संगठित करके उसे एक यूनिट में बदल दिया. 1639 में नावांग ने अपने लिए उपाधि चुनी- शबड्रुंग. इसको समझिए भूटान का लौकिक और अलौकिक लीडर. सरकार चलाने के लिए शबड्रुंग, उर्फ़ नावांग ने अपने अधीनस्थ दो मुख्य पद बनाए. एक, जे केम्पो. यानी, मुख्य मठाधीश. दूसरा, डेब. यानी, कुछ-कुछ प्रधानमंत्री जैसा पद.
इन दोनों पदों की व्यवस्था देशरूपी यूनिट के दो मुख्य धड़ों, धर्म और प्रशासन का जिम्मा उठाती थी. इसके अलावा नावांग ने सुचारू रूप से शासन करने के लिए देश को कई प्रांतों में बांटा. इन प्रांतों का कामकाज देखने के लिए स्थानीय गवर्नर नियुक्त किए. फिर इन गवर्नरों के अधीन भी कई पद बनाए, जो कि लोकल लेवल पर रोज़मर्रा की जिम्मेदारियां देखते. इस तरह नावांग ने न केवल भूटान को यूनिफ़ाई किया, बल्कि उसे एक फ़ॉर्मल शासन पद्धति भी दी.
जब तक नावांग ज़िंदा रहे, ये सिस्टम कमोबेश स्मूद रहा. मगर उनके बाद डेब, यानी प्रधानमंत्री का पद मज़बूत होता गया. प्रांतीय गवर्नर भी ख़ुद की ताकत बढ़ाने लगे. लड़ाइयां होने लगीं. पहले की ही तरह फिर से कई स्वशासित इलाके बन गए.
Nawang Namgyal
नावांग नामग्याल ने पूरे पश्चिमी भूटान को संगठित करके उसे एक यूनिट में बदल दिया.


हिस्ट्री को थोड़ा फॉरवर्ड करके आते हैं 18वीं सदी पर
इस वक़्त भारत में मुगल साम्राज्य का पतन हो रहा था. इसी दौर में भूटान के राजा भी अपना साम्राज्य बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे. उनकी नज़र थी सीमावर्ती इलाकों पर. इनमें से एक था, कूच बिहार. उसने मुगलों से निपटने के लिए भूटान की मदद मांगी. मदद के चक्कर में समूचा कूच बिहार एक तरह से भूटान के कंट्रोल में आ गया.
इसी कूच बिहार को लेकर सीन में एंट्री हुई अंग्रेज़ों की. ये साल था, 1772. कूच बिहार में राजा की मौत हो गई थी. गद्दी पर कौन बैठेगा, इसके लिए खेमेबाज़ी होने लगी. भूटान की कोशिश थी कि अगले राजा के चुनाव में उसका भी दखल हो. ताकि उसकी पसंद का दावेदार गद्दी संभालने के बाद भूटान के हित सुरक्षित करे. मगर यहां एक दिक्क़त हुई. उसने जिस दावेदार के सिर पर हाथ रखा, उसके विरोधी दावेदार ने मदद के लिए अंग्रेज़ों को बुला लिया. अंग्रेज़ तो ऐसे ही मौकों की तलाश में थे. उन्होंने अपनी एक टुकड़ी कूच बिहार भेज दी. इनकी लड़ाई हुई भूटानी सेना से. अंग्रेज़ों ने उन्हें हरा दिया.
भूटान के डाब को आशंका हुई कि कहीं अंग्रेज़ उनके यहां भी न बढ़ आएं. इसीलिए उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ एक शांति समझौता करने में बेहतरी समझी. ट्रीटी तो हो गई, मगर गर्मागर्मी ख़त्म नहीं हुई. दोनों ही पूर्वोत्तर भारत में विस्तार करना चाहते थे. बंगाल और असम पर दोनों की नज़र थी. इसी खींचातानी का नतीजा था, 1864 में अंग्रेज़ों की भूटान से हुई दूसरी लड़ाई. इसमें भी भूटान की हार हुई. 1865 में फिर से उसने अंग्रेजों के साथ एक समझौता किया. ये समझौता कहलाता है, ट्रीटी ऑफ़ सिनचुला. इसके तहत भूटान ने असम और बंगाल के कुछ इलाकों से दावा छोड़ा. बदले में ब्रिटिश सरकार ने उसे एक सालाना रकम देने का करार किया.
Treaty Of Sinchula
1865 का ट्रीटी ऑफ़ सिनचुला.


अब कहानी को फॉरवर्ड करके आते हैं 20वीं सदी पर
नावांग नाम्ग्याल की मौत के बाद से ही भूटान में आंतरिक कलह का माहौल था. प्रांतों के गवर्नर लगातार आपस में लड़ते रहते थे. अंग्रेज़ों को लगा कि अगर भूटान में एक मज़बूत केंद्रीय ताकत हो, तो हमारे लिए भी अच्छा रहेगा. मज़बूत केंद्रीय सत्ता कायम करने के लिए आंतरिक कलह ख़त्म करना ज़रूरी था. और ये कलह ख़त्म करने का फॉर्म्युला निकला- वंशानुगत राजशाही. हेरेडिट्री मोनार्की.
मगर ये सिस्टम शुरू किससे किया जाए? कौन हो सही दावेदार? इस रेस में दो नाम थे. एक, पारो वैली का गवर्नर. दूसरा, तोंग्सा प्रांत का गवर्नर. तोंग्सा के गवर्नर का अंग्रेज़ों के साथ दोस्ताना था. वो अंग्रेज़ों से कोऑपरेट करने के पक्षधर थे. इसीलिए अंग्रेज़ों ने उन्हीं को अपना कैंडिडेट चुना. भूटान में ऐलान हो गया कि अब यहां एक राजशाही बनाई जाएगी. इस आइडिया को जनता से भी समर्थन मिला. और इस तरह 17 दिसंबर, 1907 को तोंग्सा के गवर्नर उग्येन वांगचुक की ताजपोशी हुई. वो कहलाए, ड्रुक ग्यालपो. माने, भूटान के राजा.
Ugyen Wangchuck
उग्येन वांगचुक 1907 में भूटान के राजा बनाए गए थे.


इसी वांगचुक वंश के चौथे राजा थे- जिगमे सिंनगे वांगचुक. जिन्हें मॉडर्न भूटान के गठन का श्रेय दिया जाता है. जिगमे से पहले के शासक भूटान की सरहदों में जैसे ताला लगाकर रखते थे. एकदम अलग-थलग, किसी से संपर्क नहीं. 1972 में जब जिगमे की ताजपोशी हुई, तब तक किसी बाहरी को भूटान में पैर रखने की भी इज़ाजत नहीं थी. जिगमे की ताजपोशी में पहली बार विदेशी डिगनिटरीज़ को भूटान आने का आमंत्रण मिला. दो बरस बाद 1974 में भूटान को पर्यटकों के लिए भी खोल दिया गया. मगर बहुत सीमित और चुनिंदा पर्यटकों के लिए. क्योंकि भूटान नहीं चाहता था कि उसके यहां नेपाल की तरह पर्यटकों की भीड़-भाड़ रहे. उसे खुलना तो था, मगर ज़्यादा नहीं.
कहते हैं, जिगमे से ज़्यादा कोई पॉपुलर राजा नहीं हुआ कभी. उन्होंने ही भूटान में आधारभूत ढांचा बनाना शुरू किया. बिजली लाए. सड़कें बनवानी शुरू कीं. उन्हीं का लाया कॉन्सेप्ट है- ग्रॉस नैशनल हैपिनेस. यानी जनता की असली ख़ुशहाली मापने का सिस्टम. उन्होंने ही भूटान में लोकतंत्र की भी शुरुआत की. धीरे-धीरे अपनी असीमित शक्तियां कम करते गए. फिर 2006 में उन्होंने भूटान से ऐब्सोल्यूट मोनार्की का सिस्टम ही ख़त्म कर दिया. इसकी जगह लाई गई, कॉन्स्टिट्यूशनल मोनार्की. इसी के तहत 2008 में आया भूटान का संविधान. इसी साल देश में पहला आम चुनाव भी कराया गया.
जिगमे सिंनगे के बेटे जिगमे खेसार नामग्याल वांगचुक भूटान के मौजूदा राजा हैं. उनकी पढ़ाई भारत और अमेरिका में हुई है. वो काफी उदार और मॉडर्न आउटलुक वाले माने जाते हैं. 2011 में उन्होंने एक कॉमनर जेत्सुन पेमा से शादी की. वो दोनों आज की तारीख़ में भूटान का सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं.
Jigme Khesar Namgyel Wangchuck
भूटान के राजा खेसार नामग्याल वांगचुक. (तस्वीर: एपी)


भूटान का ज़िक्र हो और भारत छूट जाए?
भूटान हमारा सबसे करीबी पड़ोसी है. उसके साथ आधिकारिक संबंधों की विरासत हमें अंग्रेज़ों से मिली. इस विरासत का एक अहम हिस्सा थी, 1910 की ट्रीटी ऑफ़ पुनाखा. इसके तहत भूटान के पास आंतरिक स्वायत्तता थी. मगर अपनी रक्षा ज़रूरतों और विदेशी संबंधों के लिए वो ब्रिटिश साम्राज्य पर निर्भर था. अंग्रेज़ों के लिए इस अजस्टमेंट का मकसद था, चीन के पार बसे रूसी साम्राज्य को भारत से दूर रखना. बदले में भूटान के प्रॉटेक्शन का जिम्मा लेना.
यही कॉन्सेप्ट भारत के साथ उसके शुरुआती संबंधों का भी आधार बना. आज़ादी के बाद शुरुआती दौर में नेहरू सरकार भूटान को भारत में शामिल करना चाहती थी. ताकि हमारी सरहदें और सुरक्षित हो जाएं. मगर भूटान इसके लिए राज़ी नहीं था. उसका कहना था कि वो भारत के साथ मज़बूत संबंध चाहता है. मगर भारत का हिस्सा नहीं बनना चाहता. नेहरू सरकार ने भूटान के इस फ़ैसले का सम्मान किया. कहा कि जो होगा, म्युचुअल होगा. अगर भूटान नहीं चाहता, तो भारत जबरन उसपर कब्ज़ा नहीं करेगा.
Jawahar Lal Nehru
भारत के पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू. (तस्वीर: एएफपी)


ग़ौर से देखिए, तो भारत और भूटान म्युचुअल रिश्ते की एक मिसाल हैं. दोनों को एक-दूसरे की सख़्त ज़रूरत है. भूटान छोटा देश है. लैंड लॉक्ड है. संसाधन कम हैं उसके पास. इसीलिए वो आर्थिक और रक्षा ज़रूरतों के लिए भारत पर निर्भर है. वहीं भारतीय हितों को देखिए तो भूटान हमारे और चीन के बीच बफ़र ज़ोन का काम करता है. यही बफ़र ज़ोन वाली चीज थी, जिसके चलते ब्रिटिश सरकार भी भूटान को अहमियत देती थी. उन्हें लगता था कि अगर भूटान के साथ दोस्ताना रिश्ते हों, तो चीन और रूस जैसी बड़ी शक्तियां ठीक उसके भारतीय साम्राज्य के दरवाज़े पर नहीं आ धमकेंगी. उनसे सुरक्षित दूरी बनी रहेगी.
Treaty Of Friendship 1949
ट्रीटी ऑफ़ फ्रेंडशिप.


आज़ादी के बाद भारत के आगे भी यही चुनौती थी. चीन भूटान को अपने पाले में करना चाहता था. ऐसा होता, तो हम एक और मोर्चे पर चीन से घिर जाते. भारत ने उसकी प्लानिंग नाकाम कर दी. 1949 में दोनों देशों के बीच एक संधि हुई. इसे ट्रीटी ऑफ़ फ्रेंडशिप कहते हैं. 2007 में दोनों देशों ने दोबारा इस संधि को अपग्रेड किया.
हम आज ये सब क्यों बता रहे हैं आपको?
इसकी वजह है, 17 फरवरी को भूटान से आई एक ख़बर. पता चला कि भूटानीज़ पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के सबसे सीनियर जज कुएनले शेरिंग को अरेस्ट किया है. इनके अलावा एक डिस्ट्रिक्ट जज येशे दोरजी को भी गिरफ़्तार किया गया है.
भूटानी अख़बार 'कुएनसेल' के मुताबिक, इन दोनों गिरफ़्तारियों का संबध है थिनले टोबग्ये नाम के एक शख़्स से. थिनले सेना में ब्रिगेडियर पद पर हैं. पूर्व रॉयल बॉडी गार्ड कमांडेंट रह चुके हैं. गिरफ़्तारियों का सिलसिला इनसे ही शुरू हुआ. आरोप है कि न्यायपालिका और सेना के ये सभी लोग एक बड़ी साज़िश का हिस्सा हैं. इनकी प्लानिंग थी, चीफ़ ऑपरेशन्स ऑफ़िसर 'लेफ़्टिनंट जनरल गूनग्लोएन गोन्गमा' का तख़्तापलट करना. चीफ़ ऑपरेशन्स ऑफिसर को हमारे आर्मी चीफ के समकक्ष मान लीजिए. वो रॉयल भूटान आर्मी के मुखिया होते हैं.
Batoo Tshering
लेफ़्टिनंट जनरल गूनग्लोएन गोन्गमा


भूटानीज मीडिया रपटों के मुताबिक, घटनाक्रम ये है कि कुछ महीनों पहले किसी और केस के सिलसिले में एक महिला की गिरफ़्तारी हुई थी. उससे पूछताछ के दौरान पुलिस को इस मौजूदा साज़िश की बात पता चली. महिला ने जस्टिस कुएनले शेरिंग, ब्रिगेडियर थिनले टोबग्ये समेत तीन नाम लिए. कहा कि ये लोग आर्मी चीफ़ का तख़्तापलट करने की प्लानिंग कर रहे हैं. अजस्टमेंट ये हुआ है कि तख़्तापलट के बाद तीनों में से एक बनेगा आर्मी चीफ़. दूसरा बनेगा, सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस. और तीसरा बनेगा, अटॉर्नी जनरल.
Kuenlay Tshering
जस्टिस कुएनले शेरिंग.


तख़्तापलट होता कैसे?
रिपोर्ट्स के मुताबिक, साज़िशकर्ता इसके लिए आर्मी चीफ को एक झूठे करप्शन केस में फंसाने की सोच रहे थे. पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज कर लिया है. ऑफ़िस ऑफ अटॉर्नी जनरल ने भी इनपर आरोप तय कर दिए हैं. इन तीनों पर लगाए गए मुख्य आरोप पॉइंट्स में जान लीजिए-
1. आपराधिक साज़िश रचना 2. विद्रोह भड़काने की कोशिश 3. भाई-भतीजावाद और फेवरेटिज़म को बढ़ावा देना 4. सेना से जुड़े फंड में गबन करना 5. लोन लेने के लिए फ़र्जी काग़जात बनवाना
18 फरवरी को इन तीनों आरोपियों की डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पेशी हुई. यहां उनकी जमानत याचिका खारिज़ कर दी गई. जानकारी के मुताबिक, 10 दिनों के भीतर ट्रायल शुरू हो जाएगा.
भूटान के संदर्भ में देखें, तो ये अभूतपूर्व स्थिति है. बग़ावत और साज़िश की घटनाएं वहां आम नहीं हैं. अभी इस केस से जुड़े कई ब्योरों का स्पष्ट होना भी बाकी है. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में तस्वीर और क्लियर होगी. तब हम भूटान की कहानी लेकर फिर लौटेंगे. क्योंकि अभी तो उसके बारे में कितना कुछ बताना बाकी है.