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अकबर के शिक्षक और गार्जियन बैरम खां की हत्या किसने की?

हज पर जाते वक़्त हुई बैरम खां की हत्या का सच क्या है?

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पानीपत का दूसरा युद्ध और बैरम खां की हत्या के प्रतीकात्मक चित्र

 ‘जिस तरह हमारे पूर्वज पुश्तैनी बादशाह थे, उसी  तरह  उसके पूर्वज भी सुल्तान थे’

टी. सी. ए. राघवन की किताब ‘Attendant Lords’ के मुताबिक़ ये शब्द मुग़ल बादशाह बाबर ने अपने बेटे हुमायूं से कहे थे. बैरम खां के सन्दर्भ में. बैरम खां अकबर के अतालिक थे, गुरु थे, हुमायूं की मौत के बाद अकबर की ताजपोशी भी बैरम खां ने ही करवाई थी. दिल्ली पर वापस कब्जा दिलाया था और फिर एक हज यात्रा के दौरान उनकी हत्या कर दी गई.
आज 31 जनवरी है. और आज की तारीख़ का संबंध है बैरम खां की हत्या से. बैरम खां की पृष्ठभूमि ‘बैरम खां के परिवार का अकबर और उनके परिवार से पुराना नाता था. दरअसल बैरम तुर्क जनजातीय साम्राज्य कारा कोयूंलु(Qara Qoyunlu) के बहरलू(Baharlu) वंश से ताल्लुक रखते थे. साल 1437 से 1467 के दरम्यान  मिर्ज़ा जहां शाह का शासन आज के इराक, अफगानिस्तान, पर्शिया और अज़रबैज़ान तक फैला हुआ था. इन्हीं मिर्ज़ा जहां शाह के दरबार में बहरलू वंश के अली शुकुर बेग दरबारी नेता हुआ करते थे. लेकिन कारा कोयूंलु साम्राज्य को प्रतिद्वंदी साम्राज्य अक़ कोयूंलु (Aq Qoyunlu) से लगातार पराजय मिल रही थीं. हालात खराब थे, ऐसे में अली शुकुर बेग और उनके परिवार को वहां से कूच करना पड़ा. और दूसरे राजाओं के दरबार में सहारा लेना पड़ा. अली शुकुर बेग के वैवाहिक संबंध तिमुरिद(Timurid) वंश के संभ्रांत परिवारों में थे. और बाबर के पूर्वज इसी तिमुरिद वंश के एक कुलीन परिवार से आते थे. अली शुकुर की औलादों का भी कुछ वैवाहिक संबंध इसी परिवार से था. इसलिए जब अक़ कोयूंलु वंश काबिज होने लगा तो अली शुकुर बेग के पोते ‘यार अली बेग’ और परपोते ‘सैफ अली बेग’ बाबर के दरबार में काम करने लगे. और इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सैफ़ अली बेग के बेटे बैरम खां भी बाद में बाबर के दरबार में शामिल हुए. अकबर की ताजपोशी बाबर के बाद मुग़ल साम्राज्य के दूसरे शासक थे हुमायूं. 24 जनवरी 1556 को दिल्ली में हुमायूं अपनी लाइब्रेरी की सीढ़ियों से फिसल गए थे. कहा जाता है, इसके तीन दिन बाद 27 जनवरी को हुमायूं की मृत्यु हो गई थी. बैरम खां हुमायूं के सबसे विश्वासपात्र दरबारी थे. जिस वक़्त हुमायूं की मौत हुई बैरम खां और हुमायूं का 13 वर्षीय बेटा जलालुद्दीन अकबर पंजाब के गुरदासपुर ज़िले में कलानौर के कैंप में थे. हुमायूं की मौत की ख़बर आने के बाद आनन-फानन में वहीं अकबर की ताजपोशी कर दी गई. तारीख़ थी 14 फरवरी 1556. इस बारे में अबुल फज़ल ने ‘अकबरनामा’ में लिखा है, ‘हुमायूं की मौत के बाद बैरम खां फ़ौरन सभी ख़ास दरबारियों को बुलाकर अकबर की ताजपोशी कर देता है’. जिस चबूतरे पर अकबर की ताजपोशी की गई थी उसे बैरम खां द्वारा तख़्त-ऐ-अकबर का नाम दिया गया था. 11 वर्ग मीटर का यह चबूतरा आज भी मौज़ूद है. और ASI की देख-रेख में है. बैरम खां न केवल अकबर के अतालिक़ यानी गार्जियन थे बल्कि उन्हें वकील-उस-सल्तनत का दर्जा भी दिया गया था. मुग़ल काल में ये सल्तनत का सबसे बड़ा आधिकारिक ओहदा हुआ करता था.
अकबर की ताजपोशी(photo Source Twitter)
अकबर की ताजपोशी(फोटो सोर्स - Twitter)

पानीपत का दूसरा युद्ध 1556 में जब हुमायूं की मौत की खबर बंगाल पहुंची तो हेमू ने मुग़लों से सत्ता हथियाने का प्लान बनाया था. इस दौरान हेमू ने 22 जंगें लड़ीं और सभी में अजेय रहा था. उसका अगला पड़ाव आगरा था. आगरा के गवर्नर को जब हेमू के आने की खबर लगी तो वो दिल्ली भाग गया. उस समय दिल्ली का गवर्नर तर्दी बेग खान हुआ करता था. उसने हेमू के खिलाफ लड़ने के लिए बैरम ख़ां से मदद मांगी. जो उस समय साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर तैनात थे. लेकिन सिकंदर शाह सूरी के ख़तरे को देखते हुए बैरम ख़ां ने अतिरिक्त टुकड़ियां भेजने से इनकार कर दिया. जिसके बाद 7 अक्टूबर 1556 को तुग़लकाबाद में हेमू और तर्दी बेग खान का आमना-सामना हुआ. चंद दिनों की इस लड़ाई में मुग़लों की हार हुई थी. इसके बाद दिल्ली और आगरा पर हेमू का कब्जा हो गया. हेमू ने खुद को भारत का शासक घोषित किया और विक्रमादित्य की उपाधि के बाद हेमू, हेमचंद्र विक्रमादित्य हो गए.
14 साल का अकबर तब जालंधर में था. उसे मुग़ल शहंशाह घोषित कर मुग़ल सेना की बाग़डोर बैरम ख़ां ने संभाल ली थी. दिल्ली पर कब्जे की खबर मिली तो बैरम ख़ां ने अली कुली खान को 10 हज़ार रिसाला फ़ौज के साथ आगरे की तरफ़ भेजा. क़िस्मत अच्छी थी कि रास्ते में उनकी मुलाक़ात अफ़ग़ान फ़ौज की एक टुकड़ी से हो गई जो artillery लेकर पानीपत की तरफ़ बढ़ रही थी. हेमू की तरफ़ से लड़ने के लिए. लेकिन अली कुली खान ने इस टुकड़ी का सफ़ाया कर artillery पर कब्जा कर लिया. ये एक बड़ा सेटबैक था. लेकिन अब भी हेमू के पास 500 हाथी थे. साथ ही उसकी फ़ौज मुग़लों से कहीं ज़्यादा ताकतवर थी. जिसमें करीब 30,000 पैदल अफ़गान सैनिक थे.
इसके बाद 5 नवंबर 1556 को दोनों सेनाओं का आमना-सामना पानीपत के मैदान पर हुआ. बैरम ख़ां 8 हजार सैनिकों के साथ कुछ दूर रुके हुए थे ताकि ज़रूरत पड़ने पर अचानक हमला कर सकें. जंग का बिगुल बजा तो हेमू ने हाथियों को सामने के बजाय दाएं और बाएं फ़्लैंक की ओर दौड़ाया. मुग़ल सेना का सेंटर डिविज़न आइसोलेट हो चुका था. मुग़ल तीरंदाज़ों ने पीछे हटने की बजाय सेंटर की तरफ़ मूव किया और हेमू के खेमे वाले हाथियों के पैरों में निशाना लगाया. मुग़ल सेना के सेंटर डिविज़न के आगे खुदाई की गई थी. हाथियों के लिए इसे पार करना मुश्किल पड़ रहा था. तोप के गोलों की लगातार बरसात हो रही थी. हेमू को हाथियों सहित पीछे हटना पड़ा. हेमू की सेना को पीछे हटता देख मुग़ल घुड़सवार सेना ने हमला कर दिया. कुछ देर में लाशों और धूल ने रास्ते को पाट दिया तो हेमू के हाथियों ने पूरी ताक़त से फ़ॉर्वर्ड मार्च किया. हाथियों ने सेंटर डिविज़न पर हमला किया और मुग़ल सेना में खलबली मच गई. बाएं और दाएं फ़्लैंक पहले ही टूट चुके थे. हेमू को जीत साफ़ दिख रही थी. लेकिन तभी एक तीर उसकी एक आंख पर लगा और जंग की सूरत बदल गई. हेमू बेहोश हो चुका था. हाथी से कमांडर को गायब देख अफ़ग़ान सेना का हौसला टूट गया. और हेमू जीती हुई लड़ाई हार गया.
हेमू लगभग अधमरा हो चुका था. इसी हालत में उसे अकबर के पास ले ज़ाया गया. बैरम ख़ां ने अकबर से कहा कि वो खुद उसे मौत की सजा दे. इस पर अकबर बोला कि ये तो पहले ही मर चुका है, इसके जिस्म में हरकत होती तो मैं इसे सजा देता. इसके बाद बैरम ख़ां ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया जिसे दिल्ली ले जाकर ‘पुराना क़िला’ के गेट पर लटका दिया गया. ये युद्ध बैरम खां के लिए उतना ही महत्वपूर्ण था जितना अकबर के लिए. इस युद्ध के बाद अकबर के दरबार में बैरम का सम्मान और बढ़ गया था. 
पानीपत का दूसरा युद्ध (photo Credit Wikimedia Commons)
पानीपत का दूसरा युद्ध (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)

खान-ऐ-खाना मुग़ल साम्राज्य में सबसे बड़ी उपाधि खान-ऐ-खाना की होती थी. आइन-ऐ-अकबरी में अबुल फज़ल ने खान-ऐ-खाना उपाधि और प्रतीक चिन्ह का ज़िक्र किया है. यूं तो इस उपाधि के साथ कोई ख़ास ऑफिशियल ज़िम्मेदारी नहीं तय होती थी लेकिन इसे पाने वाला साम्राज्य में बादशाह के बाद दूसरे नंबर पर होता था. बैरम खां पहला ऐसा व्यक्ति था जिसे इस उपाधि से नवाज़ा गया था. और उनके बाद, बेटे अब्दुर्रहीम को भी अकबर ने खाने-खाना की उपाधि दी थी.

बैरम खां की हत्या

टी. सी. ए. की किताब ‘Attendant Lords’ के मुताबिक़, ‘सन 1561 की जनवरी के आख़िरी दिन शाम घिर रही थी. एक बुजुर्ग व्यक्ति पाटन गांव के बाहरी इलाके में स्थित सहस्रलिंग तालाब में नाव पर सवार था. तालाब के बीच में बने पैवेलियन में बैठकर कुछ वक़्त बिताने के बाद उसकी नाव वापस किनारे लौटने के लिए चल पड़ी थी. जैसे ही उसकी नाव किनारे की तरफ बढ़ती है, कुछ लोग जो देखने में अफ़ग़ान लग रहे थे, उसे सलाम करते हैं. बूढ़े आदमी को ये एक सामान्य सी बात लगी. वह नाव को उन लोगों की दिशा में ले चलने का निर्देश देता है, जो कुछ 50 कदम की दूरी पर थे. जैसे ही वह व्यक्ति नाव से उतरकर उनकी तरफ बढ़ता है. उन अफगानो में से एक मुख्य आदमी आगे बढ़कर उन्हें गले लगा लेता है. और एक कटार इतनी ज़ोर से उस बूढ़े व्यक्ति की पीठ में घोंपता है कि वह सीने से बाहर आ जाती है. एक और अफ़गान शख्स अपनी तलवार से उनकी गर्दन पर वार करता है. और कुछ ही पलों में उस व्यक्ति की मौत हो जाती है.
राघवन ने जिस बूढ़े व्यक्ति का ज़िक्र अपनी किताब में किया है वह कोई नहीं बल्कि बैरम खां ही है.
बैरम खां की हत्या (photo Credit Wikimedia Commons)
बैरम खां की हत्या (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)

हत्यारा कौन था? गुजरात के पाटन में सहस्रलिंग तालाब के पास लगे हुए आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के साइन बोर्ड पर कुछ इस प्रकार लिखा है,
मक्का के सफ़र के दौरान पाटन से गुजरते वक़्त, बैरम खान, अकबर के प्रशिक्षक जब नाव से उतरकर अपने टेंट में जा रहे थे तब कथित रूप से उनकी ह्त्या कर दी गई.’
गुजरात के पाटन में रहने वाले कल्चरल हिस्ट्री के स्कॉलर मुकुंद ब्रह्मक्षत्रिय कहते हैं,
‘उन दिनों मक्का जाने के लिए सबसे छोटा रास्ता गुजरात से होकर गुजरता था. उत्तर भारत के लोग अरब जाने के लिए खम्बात के बन्दरगाह को प्राथमिकता देते थे. बैरम खां खम्बात के लिए प्रस्थान करने से पहले जरूर पाटन में सरकार (सुब्बा) के अतिथि के रूप में रुका होगा.’
कहा जाता है कि बैरम खां को 1560 में अकबर ने बर्ख़ास्त कर दिया गया था. जिसके बाद हज़ पर जाते वक़्त पाटन में उनकी हत्या अलवर के हाज़ी खान मेवाती ने कर दी थी. हाज़ी खां मेवाती ‘हेमू’ का विश्वास पात्र था. पानीपत के दूसरे युद्ध के बाद जब अकबर की सेना ने दिल्ली, आगरा और अलवर पर कब्ज़ा कर लिया तब हाजी खां मेवाती ने पाटन में शरण ले ली थी. पाटन में बैरम खां को हाजी खां मेवाती का एक सहयोगी लोहानी पश्तून पहचान लेता है. लोहानी पश्तून के पिता पानीपत के दूसरे युद्ध में बैरम की सेना द्वारा मारे गए थे. और 31 जनवरी 1561 यानी आज ही के दिन हाजी खां मेवाती ने बैरम खां की हत्या कर दी गई थी’. हालांकि थियरी ये भी है कि साम्राज्य में बैरम खां का कद बढ़ने लगा था. तो अकबर ने बैरम को उसके हिस्से की जागीर देकर बर्ख़ास्त कर दिया था. जिसके बाद बैरम खां ने अकबर से बगावत की असफल कोशिश की. इस घटना के बाद अकबर ने उसे माफ़ कर दिया और हज़ पर जाने के लिए कह दिया. जहां रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई.