हमारे न्यूज़रूम में बहस हो रही थी. एक साथी कह रहा था कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव दिलचस्प होने जा रहे हैं. बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के कुल जमा 527,371 मूल्य के वोट हैं. नीतीश कुमार की जेडीयू और बीजू जनता दल सहित कई दलों ने कोविंद के समर्थन की बात कही है. ऐसे में एनडीए के उम्मीदवार के जीतने की पूरी उम्मीद है. लेकिन खुदा ना खास्ता अगर क्रॉस वोटिंग हुई तो मुकाबला दिलचस्प हो जाएगा. यह केवल पत्रकारों की चकल्लस है.
राष्ट्रपति चुनाव में वोट कौन डालता है, हर किसी का वोट बराबर क्यों नहीं होता है?
आपके हर पेचीदा सवाल का आसान जवाब है यहां.
घर से दफ्तर के लिए निकलते वक़्त अक्सर आलम मिस्त्री के पास रुक जाता हूं. दरअसल हमारी दोस्ती पांच साल पुरानी है जोकि एक पंचर बनवाने से शुरू हुई थी. सुबह दफ्तर जाने से पहले नीचे चौरसिया के पास चाय पीने रुकता हूं तो एक चाय आलम के लिए भी ले लेता हूं. चाय पीते-पीते मैं आलम से दीन-दुनिया की तमाम बात करता हूं. आलम दोस्त होने के साथ ही मेरे लिए किसी खबर का लिटमस टेस्ट भी है. किसी खबर में उसकी दिलचस्पी दफ्तर में मेरे काम को निर्धारित करती है. आज की बात के दौरान ही मैंने उसे बताया कि आज तो राष्ट्रपति चुनाव है. जैसा कि मुझे उम्मीद थी, आलम भाई को इस महकमे के बारे में रत्ती भर अंदाजा नहीं था. चौरसिया, जोकि रोज अखबार पढ़ता है उसे उम्मीदवारों के नाम तो पता हैं लेकिन उसे यह पता नहीं है कि ये चुनाव होता कैसे है? आपमें से भी कई लोग इस बारे में जानना चाहते होंगे?
कौन चुनता है हमारा राष्ट्रपति?
हमारे देश के राष्ट्रपति हैं. हम इन्हें क्यों नहीं चुनते? जैसा अमेरिका में होता है. वहां तो राष्ट्रपति के चुनाव में हर आदमी वोट डालता है, यहां पर हमने कभी वोट नहीं डाले. दरअसल हमारे देश का राष्ट्रपति हम ही चुनते हैं. सीधे तौर पर नहीं. हमारे चुने हुए विधायक और सांसद इस चुनाव में हमारी नुमाइंदगी करते हैं.
हमारे देश में नौ राज्यों में विधानपरिषद है. साधारण भाषा में इनके सदस्यों को एमएलसी कहते हैं. ये लोग इस चुनाव में वोट नहीं डाल सकते. इसके अलावा राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा 12 मनोनीत सदस्य होते हैं. इन लोगों को भी इस चुनाव में वोट डालने का अधिकार नहीं होता है. कारण यह है कि इस सदस्यों को जनता सीधे तौर पर अपना प्रतिनिधि नहीं चुनती है. फिर तो इस हिसाब से राज्यसभा सदस्यों को भी वोट डालने का अधिकार नहीं होना चाहिए. राज्यसभा के सदस्य भी तो सीधे नहीं चुने जाते. दरअसल राज्यसभा के सदस्य राज्य का केंद्र में प्रतिनिधित्व करते हैं. इसलिए उन्हें इस चुनाव में वोट डालने का अधिकार होता है.
एक वोट की कीमत अलग-अलग क्यों?
हम अक्सर बात करते हैं कि राष्ट्रपति के चुनाव में फलाने उम्मीदवार को इतने मूल्य के वोट मिले. सीधा क्यों नहीं बोलते हैं कि इतने वोट मिले. ये मूल्य का क्या चक्कर है? इस देश में 29 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं. हर जगह जनसंख्या अलग-अलग है. सब धान 22 पसेरी तो नहीं हो सकता. इस चुनाव में हर एक वोट की औकात अपने राज्य की जनसंख्या के हिसाब से तय होती है. ताकि हर वोट सही मायने में जनता की नुमाइंदगी करे.
कैसे तय होता है वोट का मूल्य?
जैसा कि पहले से बताया जा चुका है कि किसी भी विधायक का वोट उस राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय होता है. लेकिन इसमें एक पेंच है. यह हाल की जनसंख्या के आधार पर तय नहीं हो रहा है. इसके लिए 1971 की जनसंख्या को आधार बनाया गया है. विधायक और सांसद के वोट का मूल्य तय करने का तरीका अलग-अलग है.
विधायक के वोट का मूल्य एक साधारण फॉर्म्युले से तय होता है. सबसे पहले हम उस राज्य की जनसंख्या (1971 की जनसंख्या के हिसाब से) रख देते हैं. इसके बाद हम उस राज्य के कुल विधायकों की संख्या को 1000 से गुणा कर देते हैं. जो संख्या प्राप्त होती है उसका भाग कुल जनसंख्या में दे देते हैं. जवाब में जो संख्या प्राप्त होती है वही उस राज्य के विधायक के वोट का मूल्य होता है.
मसलन पश्चिम बंगाल की 1971 की जनगणना के हिसाब से कुल जनसंख्या 44,312,011 है. वहां कुल विधायक हैं 294. जब हम 294 को 1000 से गुणा करते हैं तो जवाब आता है 294000. अब 44,312,011 में जब हम 294000 का भाग देते हैं तो जवाब आता है 150.72. अब वोट दशमलव वाली संख्या तो नहीं हो सकता. इसके लिए नियम यह बनाया गया है कि अगर भाग देने के बाद जितना शेषफल बचता है उसे प्रति हजार के हिसाब से एक मूल्य गिन लिया जाता है. इस हिसाब से बंगाल का एक विधायक का मूल्य हुआ 151. सिक्किम के एक विधायक के वोट की कीमत महज 7 है, जोकि देश में सबसे कम है. उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट की कीमत 208 है. यह देश में सबसे ज्यादा है.
सांसदों के वोट की कीमत तय करने का तरीका तो और भी आसान है. सबसे पहले देश भर के सभी विधायकों के वोट की कीमत जोड़ ली जाती है. इसके बाद उसमें राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों की संख्या को जोड़ कर उसका भाग दे दिया जाता है. जो संख्या मिलती है वही एक सांसद के वोट की कीमत होती है. मसलन उत्तर प्रदेश में 403 विधायक है. एक विधायक के वोट की कीमत 208 है. जब हम 208 को 403 से गुणा कर देते हैं तो सभी विधायकों के वोट की कुल कीमत 83,824 आ जाती है. इसी तरह से हर राज्य के सभी विधायकों के वोट की कीमत को जोड़ लिया जाता है. यह संख्या 549,495 है.
राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 233 है. लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या 543 है. कुल मिलाकर हुए 776. अब 549,495 में 776 का भाग देने पर हमें जवाब मिलता है 708.11. इसे राउंड फिगर में 708 मान लिया जाता है. विधायकों और सांसदों के कुल वोट को मिलाकर कहा जाता है, 'इलेक्टोरल कॉलेज.' यह संख्या बैठती है, 10,98,903.कैसे होता है चुनाव?
इस चुनाव में कोई भी पार्टी व्हिप जारी नहीं कर सकती. व्हिप का मतलब होता है एक किस्म का आदेश. जब किसी ख़ास मुद्दे जैसे अविश्वास प्रस्ताव वगैरह पर संसद में वोटिंग होती है तो हर पार्टी की तरफ से एक व्हिप जारी की जाती है कि पार्टी का हर सांसद या विधायक अमुक मसले पर अमुक पक्ष में वोट डालेगा. अगर कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी सदस्यता निरस्त हो जाती है. इस चुनाव में ऐसी कोई व्हिप जारी नहीं की जा सकती है.
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार मीरा कुमार और रामनाथ कोविंद
इस बार के चुनाव में दो रंग के मतपत्र जारी किए गए हैं. पहला हरे रंग का जिस पर सांसद अपना वोट देंगे. दूसरा गुलाबी रंग का जिस पर विधायक अपना वोट देंगे. आम चुनाव की तरह यहां उम्मीदवार के नाम के सामने मोहर नहीं लगाई जाती. बल्कि नंबर लिखा जाता है. जिस उम्मीदवार को पहली वरीयता का वोट देना है उसके नाम के सामने 1 लिख दिया जाता है. जिस उम्मीदवार को दूसरी वरीयता का वोट देना है, उसके सामने 2 लिख दिया जाता है. अगर कोई विधायक या सांसद अपना वोट देते वक़्त नंबर की जगह शब्द लिख दे तो वो वोट अमान्य हो जाता है. कोई भी सदस्य अपने पेन से वोट नहीं दे सकता. वोट देने के लिए चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित ख़ास बैंगनी रंग के पेन का इस्तमाल किया जाता है.
क्या है वरीयता वोट?
मान लीजिए मैं बंगाल का विधायक हूं. मेरे पास 151 कीमत का वोट है. क्योंकि कोई व्हिप जारी नहीं की गई है, तो मैं अपनी मर्जी के हिसाब से वोट दे सकता हूं. तो क्या मैं एक उम्मीदवार को 100 मूल्य के वोट दे सकता हूं और दूसरे को 51 मूल्य का? ऐसा नहीं है. वोट एक ही लगेगा. बस उसमें आपको अपनी पसंद चुनने का हक़ है. जिस उम्मीदवार को आप राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं उसे पहली वरीयता का वोट देंगे. अगर वो ना जीत पाए तो आप अपनी दूसरी वरीयता का वोट देते हैं.
वी.वी. गिरी
ऐसे वरीयता वाला वोट दिलवाने की जरुरत कहां पड़ी? मतलब एक ही उम्मीदवार को वोट दो और काम खत्म. दरअसल इस चुनाव में सबसे ज्यादा वोट लाने भर से कोई उम्मीदवार जीत नहीं जाता. उसे कम से कम 50 फीसदी से एक वोट ज्यादा हासिल करना जरूरी है. जब किसी भी उम्मीदवार को 50 फीसदी वोट नहीं हासिल होते तो दूसरी वरीयता के वोट गिने जाते हैं. इसमें जिसके सबसे ज्यादा वोट होते हैं, वो उम्मीदवार जीत जाता है. 1969 में वीवी गिरी के चुनाव में फैसला दूसरी वरीयता के वोट की गिनती के बाद आया था.
तो इस तरह चुने जाते हैं हमारे महामहिम. अगर आपको अब कोई संदेह रह गया हो तो आप हमें मेल करके, या कमेंट बॉक्स में लिख कर अपने सवाल पूछ सकते हैं.
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