सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त करते हुए जनरल नियाज़ी.
2021 का साल संन्यास लेने की तरफ़ बढ़ रहा है. एक बार जो ये गया तो फिर ये लौटकर आएगा नहीं. शाहिद अफ़रीदी के जैसा इसका मन नहीं बदलने वाला. ज्ञानी लोग कह गए हैं कि वर्तमान की डोर अतीत से जुड़ी होती है. जैसे कि दिसंबर 2021 जुड़ा है, दिसंबर 1971 से. गोल्डन जुबली पूरी हो रही है. पचास साल पहले क्या हुआ था? भारत और पाकिस्तान के बीच जंग हुई थी. जिसमें भारत ने ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की थी. और, पूर्वी पाकिस्तान को आज़ाद करके बांग्लादेश नाम से नया मुल्क़ बनवा दिया था. आज हम जानेंगे, हारने के बाद पाकिस्तान की टॉप मिलिटरी लीडरशिप के साथ क्या हुआ? सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त करने वाले लेफ़्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी कहां गए? अनुषा नंदकुमार और संदीप साकेत ने अपनी किताब ‘द वॉर दैट मेड R&AW’ में एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र किया है. साल 1971. तारीख़ 16 दिसंबर. जगह, ढाका का रमना ग्राउंड. पाकिस्तानी सेना सरेंडर के लिए तैयार खड़ी थी. इंडियन आर्मी के अफ़सर मुआयना कर रहे थे. इतने में ही मुक्तिवाहिनी के सैकड़ों लड़ाके ट्रक में सवार होकर मौके पर पहुंचे. इस टुकड़ी का लीडर था, टाइगर सिद्दीक़ी. उसने बांग्लादेश लिबरेशन वॉर में अहम भूमिका निभाई थी. सिद्दीक़ी बहुत रोष में था. उसने पहुंचते ही चिल्लाकर पूछा,
‘नियाज़ी कहां है?’ ये सुनकर JFR जैकब सामने आए. वो इंडियन आर्मी में मेजर जनरल थे. उन्होंने ही ईस्ट पाकिस्तान की मिलिटरी लीडरशिप को सरेंडर के लिए तैयार किया था. जैकब ने सिद्दीक़ी को रोककर कहा,
‘सिद्दीक़ी, एक बात सुनो. बेशक तुमने इस लड़ाई में शानदार काम किया है. हमारी प्रधानमंत्री भी तुम्हारी तारीफ़ करतीं है. लेकिन, अगर तुमने नियाज़ी का एक बाल भी बांका किया तो आज सरेंडर नहीं होगा. और, हम एक बार फिर युद्ध के मैदान में होंगे. तुम्हारे ख़िलाफ़.’
जैकब गुस्से में थे. उनकी बात सुनकर सिद्दीक़ी खिसिया गया. वो अपना पांव पटकते हुए वापस चला गया. कुछ देर के बाद नियाजी ने 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों के साथ सरेंडर किया. नियाज़ी ने सरेंडर के काग़ज़ात पर दस्तख़त किए. वो घटना भारत के सैन्य इतिहास के सबसे गौरवशाली पलों में से एक बनी. कालांतर में भारतीय सेना के अफ़सरों को प्रमोशन मिला. कुछ रिटायरमेंट के बाद राजनीति में शामिल हुए.
पाकिस्तान ने अपनी मिलिटरी लीडरशिप के साथ क्या किया?
लेफ़्टिनेंट जनरल नियाज़ी पाकिस्तान की हार का सबसे बड़ा चेहरा थे. वो पाकिस्तान की ईस्टर्न कमांड का मुखिया था. लड़ाई के अंतिम दो दिन वो ईस्ट पाकिस्तान के मिलिटरी गवर्नर भी था. इसी हैसियत से उसने सरेंडर किया था. सरेंडर के चार दिनों के बाद उसको कोलकाता लाया गया. उसे भारत में युद्धक़ैदी बनाकर रखा गया. 1972 में भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ. क़ैदियों की अदला-बदली पर सहमति बनी. नियाज़ी को 30 अप्रैल 1975 को पाकिस्तान को सौंप दिया गया. पाकिस्तान में उसके ऊपर कार्रवाई की गई. उसका रैंक घटाकर आर्मी से बर्ख़ास्त कर दिया गया. साथ ही, पेंशन और बाकी मेडिकल बेनिफ़िट्स भी छीन लिया गया. कुछ समय बाद आर्मी ने पेंशन तो बहाल कर दी. लेकिन रैंक में कोई फेरबदल नहीं किया. जस्टिस हमुदूर रहमान कमिटी ने युद्ध में पाकिस्तान की विफ़लता की जांच की थी. कमिटी ने पाया कि नियाज़ी कई भ्रष्ट और अनैतिक कामों के लिए ज़िम्मेदार था. इस रिपोर्ट में सात दिसंबर 1971 की एक घटना का ज़िक्र है. भारत और पाकिस्तान की लड़ाई शुरू हुए चार दिन ही हुए थे. उस दिन ईस्ट पाकिस्तान के गवर्नर ए एम मलिक ने नियाज़ी से बात की. उन्होंने लड़ाई के हालात के बारे में उनसे कुछ पूछा. सवाल सुनते ही नियाज़ी रोने लगा. रिपोर्ट में लिखा गया,
‘अगर जनरल नियाज़ी लड़ते हुए अपना बलिदान दे देता, तो उसने इतिहास बना दिया होता. उसे आने वाली पीढ़ियां एक महानायक और शहीद के तौर पर याद करती. लेकिन ये घटना बताती है कि उसने पहले ही लड़ने की इच्छाशक्ति खो दी थी.’
जस्टिस रहमान कमीशन ने हार के लिए नियाज़ी को ज़िम्मेदार ठहराया. कमीशन ने उसका कोर्ट मार्शल करने की सलाह भी दी. लेकिन किसी भी सरकार ने इसकी हिम्मत नहीं दिखाई. नियाज़ी ने कुछ समय के लिए राजनीति में भी हिस्सा लिया. लेकिन वो इसमें सफ़ल नहीं हो पाए. 1998 में उन्होंने एक किताब लिखी. The Betrayal of East Pakistan. इसमें उसने अपना चेहरा बचाने की पूरी कोशिश की. लेकिन वो इसमें भी सफ़ल नहीं हुए. दो फ़रवरी 2004 को लाहौर में नियाज़ी की मौत हो गई. नियाज़ी अपनी मौत तक ये दावा करते रहे कि सरेंडर का आदेश तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या ख़ान ने दिया था. वो ये भी कहता रहा कि हार के लिए रावलपिंडी में बैठे कुछ आर्मी अफ़सर ज़िम्मेदार थे. लेकिन जस्टिस रहमान कमीशन ने उसकी बात पर गौर नहीं फरमाया.
पाकिस्तान के बाकी लीडर्स का क्या हुआ?
याह्या ख़ान उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे. हार के चार दिन बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. याह्या ने कुर्सी अपने विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को सौंप दी. भुट्टो ने उन्हें हाउस अरेस्ट में रखा. हाउस अरेस्ट से निकलने के बाद वो गुमनाम ही रहे. अगस्त 1980 में रावलपिंडी में याह्या की मौत हो गई. गुल हसन ख़ान पाकिस्तान आर्मी के हेडक़्वार्टर में चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ थे. ईस्ट पाकिस्तान में अत्याचार का आदेश उन्हीं की तरफ़ से जाता था. जब भुट्टो सत्ता में आए, उन्होंने गुल हसन को पाकिस्तान आर्मी का कमांडर-इन-चीफ़ बना दिया. वो मार्च 1972 तक इस पद पर रहे. बाद में उन्हें ग्रीस और ऑस्ट्रिया में पाकिस्तान का राजदूत बनाकर रखा गया. 1977 के चुनाव में भुट्टो पर धांधली का आरोप लगा. इसके विरोध में गुल हसन ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. 1999 में उनकी मौत हो गई. इसी तरह से कई और टॉप अफ़सरों को हार के बाद भी प्रमोशन और ख़्याति मिली. लेकिन नियाज़ी इससे वंचित रहा. हालांकि, पाकिस्तान सरकार ने नियाज़ी के ऊपर इतना अहसान ज़रूर किया कि उसे बांग्लादेश में किए गए युद्ध अपराधों के लिए कोई सज़ा नहीं दी. पाकिस्तान ने उन अपराधों को कभी स्वीकार नहीं किया और ना ही कभी माफ़ी मांगी.