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पेगासस मामले में आखिर जांच का आदेश कब देगी केंद्र सरकार?

जानिए इस मामले में सरकार क्या कह रही है.

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पेगासस प्रकरण बहुत अधिक चर्चा में है. फोटो सोर्स- आजतक
पेगासस मामले में जैसे-जैसे नाम सामने आते जा रहे हैं, एक पैटर्न उभरकर सामने आ रहा है. ज़्यादातर लोग वो हैं, जो सरकार की नीतियों के आलोचक माने जाते हैं. जो सरकार के खिलाफ नहीं रहे, उनके मामले में टिप्पणीकार घटनाओं के क्रम को जोड़कर देख रहे हैं. कि कथित जासूसी के वक्त कैसे उनके व्यवहार में परिवर्तन आया, या नहीं आया तो अंजाम क्या हुआ. जैसा कि हम आपको बता ही चुके हैं, ये खबर दुनिया भर के 17 समाचार संस्थानों ने खोजी पत्रकारिता के बाद तैयार की है और बहुत व्यापक है. इसीलिए अभी आने वाले दिनों में कुछ और खुलासे होंगे. नए नाम भी सामने आ सकते हैं और सरकारों के नए काम भी. लेकिन अभी तक जितनी जानकारी हमारे सामने है, उनके आधार पर कई दिलचस्प सवालों को टटोला जा सकता है. पेगस- बड़े काम का हथियार पेगासस और उसे बनाने वाली कंपनी NSO आज दुनियाभर में बदनाम हो रही है, मुकदमों में घिरी है. लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था. दुनिया भर की सरकारों के लिए पेगासस एक बड़े काम का हथियार था क्योंकि ये एनक्रिप्शन को तोड़ देता था. आपने वॉट्सएप और सिग्नल जैसे एप्स के संदर्भ में सुना ही होगा कि यहां बातचीत एंड टू एंड एनक्रिप्टेड है. माने मैसेज भेजने और पाने वाले को छोड़कर और किसी के पास जानकारी जाएगी नहीं.
किसी तरह जानकारी लीक हो, तब भी कोई उसे पढ़ नहीं पाएगा क्योंकि उसके पास वो खास कोड नहीं होगा, जिससे मैसेज को समझा जा सके. ड्रग्स और अपराध के दूसरे धंधों में जब एनक्रिप्शन का इस्तेमाल बढ़ने लगा, तब ऐसे किसी हथियार की ज़रूरत पड़ी, जो एनक्रिप्शन को तोड़ सके. और यहीं एंट्री हुई पेगासस की. लेकिन जिन देशों में लोकतंत्र या तो कमज़ोर है या फिर कमज़ोर होने के क्रम में है, वहां पेगासस का इस्तेमाल प्रतिरोध को कुचलने और नागरिकों की जासूसी के लिए हुआ. हाल के मामलों में अभी पूरी जानकारी सामने आना बाकी है, लेकिन जिस तरह वॉशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खशोगजी की हत्या की साज़िश में सऊदी अरब ने पेगासस का इस्तेमाल किया, उसने बता दिया कि गलत हाथों में पड़ने पर ये हथियार कितना खतरनाक हो सकता है.
Modi Netanyahu Beach जुलाई 2017 की फ़ोटो, जब नरेंद्र मोदी इज़रायल गए थे और तत्कालीन राष्ट्र प्रमुख बेंजामिन नेतन्याहू से मुलाक़ात की थी.

और ये बात इज़रायल भी जानता है. पेगासस एक निजी कंपनी NSO ने बनाया है. लेकिन इज़रायल की सरकार इस पूरे प्रोजेक्ट पर बहुत बारीक नज़र रखती है. NSO में काम करने वाले कई लोग मिलिट्री इंटेलिजेंस में काम कर चुके हैं. कुछ तो इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद तक में थे. इतना ही नहीं, इज़रायल की सरकार पेगासस की बिक्री को भी नियंत्रित करती है. किसी भी क्लाइंट को पेगासस बेचने से पहले NSO को इज़रायल के रक्षा मंत्रालय से अनुमति लेनी पड़ती है, ठीक किसी रक्षा सौदे की तरह. माने राजनैतिक दखल के बिना पेगासस के लेनदेन वाला खेल हो नहीं सकता. और इसी संदर्भ में अब पीएम मोदी की इज़रायल यात्रा को भी देखा जा रहा है. पेगासस को लेकर खुलासे करने वाले अखबारों में एक अखबार फ्रांस से भी है- ला मोंद. इसने दावा किया है कि जुलाई 2017 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इज़रायल की यात्रा पर आए थे, उसके ठीक बाद से पेगासस सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल शुरू हुआ था. जवाब क्यों नहीं दे रही सरकार? आज के इंडियन एक्सप्रेस में मनोज सीजी की एक रिपोर्ट आप सबको पढ़नी चाहिए. इसका शीर्षक है 2019 & now, Govt ducks key question: did it buy Pegasus? न 2019 और न अब सरकार इस बात का जवाब देने को तैयार है कि क्या उसने पेगासस का इस्तेमाल किया? 30 अक्टूबर 2019 को फेसबुक ने कहा कि पेगासस का इस्तेमाल भारतीय नागरिकों के वॉट्सएप अकाउंट्स को हैक करने के लिए हुआ. इनमें वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता निशाना बनाए गए थे. इस बाबत फेसबुक ने NSO पर मुकदमा भी ठोंक दिया था. चूंकि पेगासस सिर्फ सरकारें खरीद सकती हैं, तब पूछा गया कि क्या ये जासूसी मोदी सरकार ने करवाई?
ये मामला संसद में भी उठा था. शीत सत्र में कांग्रेस के दो राज्यसभा सांसदों - दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश ने सरकार से सीधा सवाल किया था- कि क्या उसने पेगासस खरीदा है? तब सूचना प्रोद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने न हां में जवाब दिया, न इनकार किया. बस ये कह दिया कि भारत में किसी भी तरह के सर्विलांस के लिए नियम तय हैं. प्रसाद ने ये भी कहा कि उनकी जानकारी के अनुसार अवैध सर्विलांस या इंटरसेप्शन नहीं हुआ. प्रसाद के जवाब से ये नहीं समझ आया कि क्या तब कोई ऐसा सर्विलांस ऑपरेशन हुआ था, जिसे सरकार वैध बता दे. अब तो नए सूचना प्रोद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव का नाम भी कथित जासूसी के संभावित शिकारों की लिस्ट में है.
Pegeses 2 सरकार की ओर से रविशंकर प्रसाद ने इस पर पक्ष रखा. फोटो- इंडिया टुडे

मनोज अपनी रिपोर्ट में रविशंकर प्रसाद और अश्विनी वैष्णव के जवाबों में दूसरी समानताओं की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं. 2019 में प्रसाद पूछते हैं कि ये कैसा संयोग है, कि जिनकी जासूसी हुई, वो सभी पीएम मोदी से नफरत करते हैं. 19 जुलाई को इसी तर्ज़ पर अश्विनी वैष्णव ने कहा कि भारत को बदनाम करने की कोशिश हो रही है. अपने बचाव में सरकार दुनिया भर के तर्क दे रही है. लेकिन ये नहीं बता रही है कि उसने पेगासस खरीदा कि नहीं. क्रोनोलोजी क्या है आखिर? भारत के नागरिकों की जासूसी सिर्फ तकनीक का मसला नहीं है जिसपर अकेले अश्विनी वैष्णव जवाब देते रह जाएं. कायदे से इस विषय पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से प्रश्न होने चाहिए. लेकिन वो तो क्रोनोलॉजी समझाने में लगे हुए हैं. उन्होंने अपनी वेबसाइट पर एक बयान जारी किया है. वो लिखते हैं-
''यह भारत के विकास में विघ्न डालने वालो की भारत के विकास के अवरोधकों के लिए एक रिपोर्ट है. कुछ विघटनकारी वैश्विक संगठन हैं जो भारत की प्रगति को पसंद नहीं करते हैं. ये अवरोधक भारत के वो राजनीतिक षड्यंत्रकारी हैं जो नहीं चाहते कि भारत प्रगति कर आत्मनिर्भर बने. भारत की जनता इस क्रोनोलोजी और रिश्ते को बहुत अच्छे से समझती है.''
इसके अलावा एक और क्रोनोलॉजी है, जो सरकार समझा रही है. कि ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के पहले दिन जानबूझकर जारी की गई. ताकि सत्र में व्यवधान पड़े. सरकार बड़ी चतुराई से ये दिखाने की कोशिश कर रही है कि उसके खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय साज़िश हो रही है. लेकिन न अमित शाह, और न मंत्रिमंडल में उनके दीगर साथियों ने उस सलाह पर ध्यान दिया, जो प्रेमी समय-समय पर होने वाले झगड़ों में एक दूसरे को देते रहते हैं - हर बार खुद को इतनी इंपॉर्टेंस नहीं देनी चाहिए. जासूसी के 50 हजार मामले? पेगासस प्रोजेक्ट में दुनियाभर से जासूसी के तकरीबन 50 हज़ार संभावित मामलों की जानकारी है. और भारत के साथ उन तमाम देशों का नाम है, जो इस तरह की गतिविधियों में प्रायः लिप्त रहते हैं - अज़रबैजान, कज़ाकिस्तान, मेक्सिको, रवांडा, सउदी अरब वगैरह. इनसे इतर दर्जनों देश और हैं. तो पेगासस का खुलासा न तो भारत सरकार के खिलाफ है और न ही मॉनसून सत्र का इससे कोई भी ताल्लुक है.
यही नहीं, सरकार ने बहुत कोशिश की, कि इस मामले को ऐसी किसी चीज़ से जोड़ दिया जाए, जिसकी विश्वसनीयता पर सवाल पूर्व में उठाए गए. क्लासिक उदाहरण है एमनेस्टी इंटरनेशनल का. एमनेस्टी इंटरनेशनल से भारत सरकार के संबंध यूपीए के दौर में भी बहुत अच्छे नहीं थे. लेकिन मानवाधिकार पर काम करने वाली संस्थाओं की सरकारों से अनबन बहुत आम बात है. ऐसा दुनियाभर में होता रहता है. ये सोचने वाली बात है कि क्या इसके चलते कोई संस्था किसी देश को बदनाम करने के लिए इतना बड़ा प्रपंच रचेगी? फिर पेगासस डेटाबेस लीक होकर अकेले एमनेस्टी को नहीं मिला था.
फ्रांस की नॉनप्रॉफिट मीडिया कंपनी - फॉरबिडन स्टोरीज़ के पास भी ये डेटा पहुंचा था. इसके बाद इस प्रोजेक्ट में द गार्डियन, वॉशिंगटन पोस्ट जैसे प्रतिष्ठित अखबार शामिल हुए. कोई अखबार जर्मनी का है, कोई मेक्सिको का और कोई अखबार अरब है. क्या एमनेस्टी या कोई एक न्यूज़ पोर्टल इतने सारे समाचार संस्थानों पर अपना एजेंडा थोपकर फ्रंटपेज न्यूज़ बनवा सकता है? सरकार ने शायद अपना जवाब देते हुए इस एंगल पर ध्यान ही नहीं दिया. पेगासस प्रोजेक्ट की रिपोर्ट सरकारों ने पेगासस खरीदा ये बताकर कि अपराधियों पर इस्तेमाल करेंगे. लेकिन दुनियाभर में पेगासस का चुनावी इस्तेमाल खूब हुआ. पेगासस प्रोजेक्ट में शामिल संस्थानों की रिपोर्ट्स बताती हैं कि 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी निशाने पर आए. 2018 में मेक्सिको में राष्ट्रपति चुनाव हुआ. चुनाव में आंद्रे मैन्युएल लोपेज़ ओब्रादोर एक मज़बूत दावेदार थे. अब जानकारी सामने आई है कि चुनाव से पहले ओब्रादोर के सहयोगियों की जमकर जासूसी हुई थी.
पेगासस प्रोजेक्ट में शामिल द वायर ने आज एक और चौंकाने वाली खबर छापी है. अजॉय आशीर्वाद महापात्रा की इस रिपोर्ट में आशंका व्यक्ति की गई है कि संभवतः पेगासस का इस्तेमाल कर्नाटक में चले ऑपरेशन लोटस के दौरान भी हुआ था. जुलाई 2019 में एचडी कुमारास्वामी की सरकार गिर गई थी. इससे पहले डिप्टी सीएम जी परमेश्वरा, सीएम एचडी कुमारास्वामी के निजी सचिव और सिद्धारमैया के निजी सचिव के फोन नंबर संभावित सर्विलांस के लिए चुने गए थे. कुमारास्वामी की सरकार 17 विधायकों के अचानक हुए इस्तीफे के चलते गिरी थी और तब भाजपा और जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन में विधायकों को लेकर जमकर खींचतान हुई थी. रिपोर्ट इस बात को भी रेखांकित करती है कि जासूसी हुई या नहीं, ये बताने के लिए डिजिटल फोरेंसिक सबूत उपलब्ध नहीं हैं.
Pegesis Cover पेगासस ने जासूसी को लेकर एक विवाद शुरू कर दिया है. फोटो सोर्स- इंडिया टुडे

और इसी तर्क का इस्तेमाल मोदी सरकार भी कर रही है. सरकार बार बार ये पूछ रही है कि जासूसी का सबूत है कहां. लेकिन दुनिया की सारी सरकारें इस तर्क की आड़ में बचकर निकल रही हों, ऐसा नहीं है. वहां फॉरबिडन स्टोरीज़ ने खबर छापी कि पेगासस का इस्तेमाल 37 लोगों के स्मार्टफोन को निशाना बनाने के लिए हुआ जिनमें पत्रकार, सरकारी अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता भी शामिल थे. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट मीडियापार्ट ने कहा है कि मोरक्को की खुफिया एजेंसियों ने उसके दो पत्रकारों के फोन हैक करने की कोशिश की. जैसा कि अपेक्षित था, मोरक्को ने इसे लेकर एक सरकारी खंडन ठेल दिया है. लेकिन फ्रांस में इस मामले में जांच बिठा दी गई है. और इसी आशय की मांग है भारत के विपक्ष की भी. उसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के इस्तीफे के साथ साथ एक जेपीसी जांच भी चाहिए. शिवसेना सांसदों ने इस बाबत लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को एक मेमोरैंडम भी दिया. जांच का फैसला लेगी सरकार? मोदी सरकार के लिए ये पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मामले को हैंडल करना फिर भी आसान होगा. लेकिन ला मोंद ने अपने खुलासे में दावा किया है कि जिन लोगों की कथित रूप से जासूसी की जा रही थी, उनमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के अलावा दिल्ली में रहने वाले कई राजनयिक भी थे. अगर इस दावे में ज़रा भी दम है, तो विश्व पटल पर भारत की साख में एक और बट्टा लग जाएगा. टिप्पणीकार लगातार ध्यान दिला रहे हैं कि भारत क्रेडिबिलिटी के अपने स्टॉक का तेज़ी से इस्तेमाल करता जा रहा है. और ये असीमित नहीं है.
इसीलिए ये बहुत ज़रूरी है कि भले मोदी सरकार जासूसी के आरोपों से इत्तेफाक न रखे, लेकिन वो इतने बड़े खुलासे को साज़िश बताकर खारिज न करे. क्योंकि यहां सवाल सिर्फ एक चुनाव या किसी नेता के फोन की हैकिंग का नहीं है. यहां भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रश्न है. सरकार विदेशी प्रेस को भेजी जाने वाली सभी प्रेस रिलीज़ में ''रोबस्ट डेमोक्रेसी'' शब्द का इस्तेमाल करना नहीं भूलती. रोबस्ट डेमोक्रेसी बस कहने की चीज़ नहीं होती. डेमोक्रेसी तब रोबस्ट होती है, जब सरकार आलोचना से डरती नहीं और अपने पर लगने वाले आरोपों का साफगोई से जवाब देती है. शिकायत पर जांच करती है. अब देखना है कि सख्त फैसले लेने वाली मोदी सरकार जांच का सख्त फैसला कब लेती है.