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जब प्रणब मुखर्जी ने इन्दिरा गांधी की सलाह नहीं मानी और लड़ गए लोकसभा चुनाव

तब इंदिरा गांधी को प्रणब दा की जिद के आगे झुकना पड़ा था.

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इंदिरा गांधी के साथ प्रणब मुखर्जी
प्रणब मुखर्जी 1969 में बांग्ला कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा का चुनाव जीतकर पहली बार संसद पहुंचे थे. तब वे 71, साउथ एवेन्यू के दो कमरे के सांसद फ्लैट में रहा करते थे. 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा ने प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को ही कांग्रेस से निकाल दिया था, जिसके कारण कांग्रेस में विभाजन हो गया. इन्दिरा गांधी ने अपनी नई कांग्रेस बनाई जिसे कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) का नाम दिया गया, जबकि निजलिंगप्पा वाले गुट को 'कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन' या 'संगठन कांग्रेस' कहा गया. 1971 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बांग्ला कांग्रेस का कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) यानी कांग्रेस (आर) में विलय हो गया.
1974 में पहली बार मिला मंत्री पद
1974 में प्रणब मुखर्जी पहली बार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल किए गए और शिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट विभाग के उप मंत्री बनाए गए. लेकिन जल्दी ही उन्हें वित्त मंत्री यशवंत राव चव्हाण के साथ संबद्ध कर दिया गया. तकरीबन दो साल तक प्रणब मुखर्जी ने उप वित्त मंत्री के रूप में काम किया. इसके बाद 1977 का लोकसभा चुनाव आया और इस चुनाव में इन्दिरा विरोधी लहर चल रही थी. आपातकाल की ज्यादतियों के कारण कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) जनता की नजरों से उतर गई थी. विपक्षी एकता के नाम पर बनी जनता पार्टी ने तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) के साथ गठबंधन किया था. हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) तक भी कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) के साथ ही थी.
इंदिरा गांधी के साथ बैठे चश्मा लगाए शख़्श प्रणब दा हैं.
इंदिरा गांधी के साथ बैठे चश्मा लगाए शख़्श प्रणब दा हैं.

इस चुनाव में बंगाल की मालदा लोकसभा सीट पर कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) ने उप वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को मैदान में उतारा. यहां उनका मुकाबला मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के दिनेश चंद्र जोरदार से हुआ. इस मुकाबले में प्रणब मुखर्जी को हार का स्वाद चखना पड़ा. वे करीब 30 हजार वोटों से चुनाव हार गए.
इसके बाद 1978 में एक बार फिर इन्दिरा गांधी को उनकी ही बनाई कांग्रेस से निकाल दिया गया और तब इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस (इन्दिरा) का गठन किया. कांग्रेस (इन्दिरा) को ही कांग्रेस (इ) या 'इंका' भी कहा जाता है. उस वक्त के अधिकांश बड़े कांग्रेसी नेता जैसे- वाई बी चव्हाण, सी. सुब्रह्मण्यम, कर्ण सिंह, टी.ए. पै, बलिराम भगत आदि सभी चव्हाण कांग्रेस (जिसका बाद में नाम बदलकर कांग्रेस-उर्स हो गया था) में थे. इन्दिरा गांधी के साथ कुछ गिने-चुने क्षेत्रीय नेता, जैसे पीवी नरसिम्हा राव, ज्ञानी जैल सिंह, जगन्नाथ मिश्र, जानकीवल्लभ पटनायक आदि ही बचे थे. ऐसे में दिल्ली में पार्टी का काम देखने के लिए इन्दिरा गांधी ने एक नई टीम तैयार की, जिसमें प्रणब मुखर्जी, भीष्म नारायण सिंह और बूटा सिंह जैसे नाम प्रमुख थे.
बालक पोल्टू आगे चलकर प्रणव मुखर्जी के नाम से मशहूर हुआ. (फाइल फोटो-इंडिया टुडे)
बालक पोल्टू आगे चलकर प्रणब मुखर्जी के नाम से मशहूर हुआ. (फाइल फोटो-इंडिया टुडे)

इसके बाद आया 1979-80 का लोकसभा चुनाव. और इस चुनाव के लिए प्रणब दा ने एक बार फिर चुनाव लड़ने की जिद पकड़ ली. वे इंका अध्यक्ष इन्दिरा गांधी के पास पहुंचे और बोले-
"मैडम, मैं भी चुनाव लडूंगा और इस बार बोलपुर से लड़ूंगा."
तब इन्दिरा गांधी ने उनकी पत्नी सुर्वा मुखर्जी से बात की और फिर उन्हें समझाया-
"प्रणब, तुम्हें फील्ड की सियासत की कुछ समझ नहीं है, इसलिए चुनाव लड़ने की मत सोचो. वैसे भी वह इलाका वामपंथियों का गढ़ है. तुम्हारी पत्नी भी नहीं चाहती कि तुम चुनावी मैदान में उतरो."
इस पर प्रणब ने उन्हें यह कहकर कन्विंस करने की कोशिश की-
"चूंकि मैं गांव से उठकर यहां तक पहुंचा हूं और उस इलाके की नस-नस से वाकिफ हूं, इसलिए मुझे चुनाव जीतने में कोई दिक्कत नहीं होगी."
इन्दिरा ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन प्रणब दा नहीं माने. अंततः इन्दिरा गांधी को प्रणब दा की जिद के आगे झुकना पड़ा. प्रणब दा बोलपुर पहुंचे और पर्चा भरा. दिन-रात मेहनत करके चुनाव प्रचार किया, लेकिन जब नतीजा सामने आया, तब इन्दिरा गांधी की आशंका सही निकली. प्रणब दा को सीपीएम के सारादीश राय के हाथों मात हाथ लगी थी. इसके बाद प्रणब मुख़र्जी निराश होकर कोलकाता में बैठ गए. पूरे देश में इंका को भारी सफलता मिली थी. 353 सीटें मिलीं थी इंका को. लेकिन तब भी प्रणब दा चुनाव हार गए थे. वे कोलकाता के अपने घर में ही बैठे थे, तभी उन्हें इन्दिरा गांधी ने फोन किया और दिल्ली पहुंचने को कहा.
Mr. Pranab Mukherjee and Smt. Indira Gandhi at All India congress committee session in Calcutta, 1983.

बुझे मन से प्रणब दा ने दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी और दिल्ली पहुंचे. एयरपोर्ट पर ये देखकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि उन्हें रिसीव करने के लिए खुद संजय गांधी खड़े थे. संजय गांधी उन्हें लेकर सीधे 12 विलिंग्डन क्रिसेंट (जो तब इन्दिरा गांधी का आवास हुआ करता था) पहुंचे. अपनी जिद के कारण शर्मिंदा प्रणब दा ने किसी प्रकार इन्दिरा गांधी का सामना किया. लेकिन इन्दिरा ने प्रणब दा की आशंका के ठीक उलट उनसे व्यवहार किया. प्रणब दा को आशंका थी कि इन्दिरा गुस्सा होंगी, लेकिन इन्दिरा ने बेहद गर्मजोशी दिखाते हुए उनसे कहा-
"प्रणब, मैंने तुमसे कहा था ना कि चुनाव लड़ने की जिद मत करो. खैर, कोई बात नहीं. जल्दी से अपने घर जाओ और कैबिनेट सचिव के फोन का इंतजार करो."
बता दें कि नई सरकार के गठन के दौरान शपथ लेने वाले मंत्रियों को कैबिनेट सचिव के द्वारा ही औपचारिक सूचना दी जाती है.
इसके बाद 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन इन्दिरा गांधी और उनके मंत्रिमंडल ने शपथ ग्रहण की. प्रणब दा को इस्पात और खान मंत्री बनाया गया था. इन्दिरा गांधी को प्रणब दा पर इतना भरोसा था कि वे अक्सर कहा करती थीं-
"प्रणब के मुंह से कभी कोई बात नहीं निकलवाई जा सकती. उनके मुंह से सिर्फ धुआं ही निकलता है."
(प्रणब मुखर्जी डनहिल का पाइप पीने के शौकीन थे, इसी वजह से इन्दिरा गांधी ने उनके बारे में 'धुआं निकलने वाली बात' कही थी.)


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