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जेरुसलम की पहाड़ी से निकले 'यहूदी चरमपंथ' की कहानी, जिसने इज़रायल को जन्म दिया

'ज़ायोनीवाद' ने मध्य-पूर्व के इतिहास में एक अहम भूमिका निभाई है. इज़रायल राज्य को आकार दिया और आज भी क्षेत्र की भू-राजनीति पर असर डालता है.

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(सांकेतिक तस्वीर - रॉयटर्स)

ग़ाज़ा और इज़रायल के बीच जंग (Israel-Gaza War) छिड़ी हुई है. हमास के लड़ाके और इज़रायली सेना के बीच 7 अक्टूबर से ही संघर्ष जारी है. दोनों तरफ़ से अब तक कुल 5000 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. जब से युद्ध शुरू हुआ है, हमास को ही इसका 'गुनाहगार' बताया जा रहा है. क्योंकि पहला हमला उसने ही किया था. बहस के कुछ चरणों में सबसे बड़ा विलेन 'इस्लामिस्ट चरमपंथ' बताया जा रहा है. लेकिन एक गुट यहूदी चरमपंथ को भी निशाने पर लिए हुए है. सोशल मीडिया पर कई लोगों ने लिखा कि इज़रायल के कट्टरपंथ का जनक है 'ज़ायोनिज़्म' (Zionism).

क्या है ज़ायोनिज़्म?

ज़ायोनिज़्म या ज़ायोनीवाद एक कट्टर राजनीतिक विचारधारा है, जो 19वीं सदी के अंत में उभरी. जेरुसलम में ‘ज़ायन’ नाम की एक पहाड़ी है, जो यहूदी धर्म में बहुत महत्व रखती है और अक्सर इसका इस्तेमाल ‘यहूदी मातृभूमि’ के प्रतीक के तौर पर किया जाता है. ज़ायन से आया ज़ायोनीवाद. मक़सद वही, यहूदी मातृभूमि की स्थापना.

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19वीं सदी के आख़िरी दशकों में सेंट्रल यूरोप और पूर्वी-यूरोप में इस विचारधारा ने ज़ोर पकड़ा. इसके कई कारण थे. पूरे यूरोप में राष्ट्रवाद की लहर थी और पूरे यूरोप में ही यहूदियों पर ज़ुल्म किया जा रहा था. इसी यहूदी-विरोधी भावना के उलट आया यहूदियों के राष्ट्रवाद का मसौदा. एक ऑस्ट्रो-हंगेरियन पत्रकार और नाटककार थियोडोर हर्ज़ल ने 1896 में 'द ज्यूइश स्टेट' (Der Judenstaat) नाम से एक पर्चा लिखा. अलग यहूदी ज़मीन की स्थापना के लिए तर्क दिए. इसी पर्चे ने ज़ायोनी आंदोलन की नींव रखी और हर्ज़ल को आधुनिक ज़ायोनीवाद का जनक माना गया.

आधुनिक ज़ायोनीवाद और 'विश्व यहूदीवादी संघ' के संस्थापक

थियोडोर हर्ज़ल ख़ुद भी यहूदी थे और उनकी छवि एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति की थी. उन्होंने यूरोप में यहूदियों पर हो रहे ज़ुल्म देखे और वो इस बात से आश्वस्त थे कि यहूदी 'अपने देश' के बाहर जीवित नहीं रह सकते. भतेरे निबंध लिखे, बैठकें आयोजित कीं. इन्हीं प्रयासों के चलते पूरे यूरोप से बड़े पैमाने पर यहूदियों ने तब के फ़िलिस्तीन की ज़मीन की तरफ़ प्रवास किया. एक तरफ़ ज़ायोनीवाद का माहौल बन रहा था, दूसरी तरफ़ - 1922 में - ऑटोमन साम्राज्य के बाद लीग ऑफ़ नेशन ने फ़िलिस्तीन को यूके प्रशासन के अधीन दे दिया. और, अंग्रेज़ों ने फ़िलिस्तीन में यहूदियों के राष्ट्र को समर्थन दिया. इस क़दम ने पूरे यूरोप से यहूदी पलायन के दरवाज़े खोल दिए. Vox की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1900 से 1940 तक - यानी एडॉल्फ़ हिटलर से पहले - लगभग 1,40,000 यहूदी फ़िलिस्तीन पहुंच गए थे. 

यहूदी सम्पन्न थे, सो शुरुआत में उन्होंने फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन ख़रीद कर बस्तियां बसाईं. इसमें फ़िलिस्तीनियों को भी फ़ायदा दिख रहा था, क्योंकि तब तक उनके लिए ये केवल नफ़े का सौदा था. यहूदी ज़मीन भी ख़रीदते थे और अपने खेतों में नौकरी भी दे देते थे. मगर धीरे-धीरे इज़रायलियों ने अपने आधिपत्य के संकेत दिए. पहले उन्होंने फ़िलिस्तीनियों को अपनी ज़मीन से दूर किया. फिर खेतों से भी दूर कर दिया. यहूदियों को ही खेतिहर मजदूरी के लिए चुना.

40 के दशक में पलायन बढ़ा. कारण, हिटलर और नाज़ी उत्पीड़न. 1947 में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन का मुद्दा वापस UN को सौंप दिया. मूलतः फ़िलिस्तीन की ज़मीन को दो स्वतंत्र राज्यों में बांटने का प्रस्ताव रखा गया - एक फ़िलिस्तीनियों का अरब राज्य, दूसरा यहूदियों का इज़रायल. इज़रायल ने 1948 में ख़ुद को संप्रभु और आज़ाद घोषित कर दिया. आगे का इतिहास कैसा रहा, यहां पढ़ लीजिए - इज़रायल-फ़िलिस्तीन का ज़मीनी विवाद.

कितना ‘राइट’ बहुत ‘राइट’ होता है?

तब और अब के ज़ायोनीवादी मानते हैं कि यहूदी धर्म भी है और राष्ट्रीयता भी. मगर ज़ायोनीवाद में भी अलग-अलग धाराएं थीं. कुछ ने एक धर्मनिरपेक्ष सरकार के तहत यहूदी राज्य की स्थापना की बात कही. कुछ ने ज़मीन के साथ धार्मिक और आध्यात्मिक संबंधों पर ज़ोर दिया. इन मतभेदों से ज़ायोनी आंदोलन के अंदर कई गुट बन गए. इज़रायल की स्थापना से पहले ही. स्थापना के बाद भी इन ग्रुप्स में मतभेद रहे.

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लेफ़्ट और राइट वाली बाइनरी यहां नहीं हैं क्योंकि दोनों ही राष्ट्रवादी हैं. लेकिन राइट में भी जितना लेफ़्ट बचा है, उनका मानना है कि समाज और अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका बढ़े. धर्मनिरपेक्ष सरकार हो और अरब देशों के साथ हल्के हाथ से डील किया जाए. इस गुट ने इज़रायल की राजनीति में 1970 तक शासन किया. आज का शासन 'ज़ायनिस्ट राइट' का है. माने राइट में और राइट. अरब मुल्कों के साथ शांति xके लिए ज़मीन वाले सौदों से परहेज़ करते हैं, अर्थव्यवस्था के मामले में ज़्यादा उदारवादी हैं और धर्म और राजनीति को मिलाने से पहरेज़ नहीं करते.

नौवीं-दसवीं के निबंधों की भाषा में कहें, तो ज़ायोनीवाद ने मध्य-पूर्व के इतिहास में एक अहम भूमिका निभाई है. इज़रायल राज्य को आकार दिया और बड़े पैमाने पर भू-राजनीति पर असर डालता है. 'यहूदी मातृभूमि' तो उन्होंने बना ली, लेकिन इज़रायल-फ़िलिस्तीन के संघर्ष से जुड़ी चुनौतियां और जटिलताएं अभी भी हैं. इस वजह से विश्व मंचों पर ये बहस का मौज़ू है. 

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