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क्या है प्रधानमंत्री मोदी का ग्लासगो COP26 में दिया गया पंचामृत फ़ॉर्मूला?

ग्लासगो COP26 में दिए गए भारत के पंचामृत फ़ॉर्मूला की चर्चा क्यों हो रही है?

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ग्लासगो COP26 में दिए गए भारत के पंचामृत फ़ॉर्मूला की चर्चा क्यों हो रही है?
पंचामृत. इसका संधि-विच्छेद करें तो हुआ पंच अमृत. यानी पाँच तरह के या पाँच अमृत. कौन कौन से? गाय का दूध, गाय के दूध से बना दही, गाय के दूध से बना घी, शहद और शक्कर. हम आज पंचामृत की बात क्यों कर रहे हैं. कारण है हमारे प्रधानमंत्री मोदी का ग्लासगो COP26 में दिया पंचामृत फ़ॉर्मूला. ऑफ़ कोर्स उन्होंने वहां मौजूद डेलिगेट्स की अंजुली में पंचामृत नहीं डाला और न लोगों ने उसे पीकर अपने हाथों को सर पर फेरा. ये तो PM मोदी के बात करने का तरीक़ा है. तो ग्लासगो में करीब 200 देशों के नेताओं के सामने पीएम मोदी ने पंचाअमृत का ज़िक्र क्यों किया, एक अरब टन कार्बन उत्सर्जन कम करने का जो वादा पीएम ने दुनिया से किया है, उसका क्या मतलब है, इस पर विस्तार से बात करेंगे. लेकिन पहले स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में चल रहे COP26 कार्यक्रम की कुछ बुनियादी बातें जान लेते हैं. COP का मतलब कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़. यहां पार्टीज़ का मतलब वो देश जिनकी क्लाइमेंट चेंज के अभियान में हिस्सेदारी है. तो COP या कॉप देशों की इस बार 26वीं बैठक हो रही है. इसलिए इसका नाम COP26.यूनाइटेड नेशंस फ़्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज, शॉर्ट में कहते हैं UNFCC, इसके तहत कॉप की बैठकें होती हैं. UNFCC एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिस पर 196 देशों और यूरोपीयन यूनियन के दस्तखत हैं. कॉप की पहली बैठक 1995 में हुई थी और इस बार हुई बैठक 26वीं है. अब दुनिया के देशों का ये जुटान और मंथन क्यों जरूरी है, ये समझिए. यूनाइटेड नेशंस का एक पेनल है- इंटर गर्वर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज यानी IPCC. ये 1988 में बना था और हर पांच-साल में जलवायु परिवर्तन पर इसकी रिपोर्ट आती है. हमारे यहां ऐसी रिपोर्ट्स पर ज्यादा बात नहीं होती. पर्यावरण अभी हमारे लिए मुद्दा ही नहीं बन पाया है. इसलिए IPCC की लेटेस्ट रिपोर्ट जो इसी साल अगस्त में आई थी, उस पर भी ज्यादा चर्चा हुई नहीं. ये रिपोर्ट बताती है कि कयामत हमारे कितनी करीब आ चुकी है. ये रिपोर्ट कहती है कि हम अभी सबसे गर्म मौसम में जी रहे हैं. और इस हिसाब से 21वीं सदी के आखिर तक धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा. और अगर दुनिया ने बढ़ते तापमान को कंट्रोल नहीं किया तो ग्लेशियर पिघलने से समंदर का पानी इस सदी के आखिर तक 2 मीटर तक बढ़ जाएगा. 2150 तक पांच मीटर बढ़ जाएगा. समंदर का जलस्तर बढ़ेगा तो दुनिया के कई तटीय शहर डूब जाएंगे. IPCC की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 12 शहरों पर डूबने का ख़तरा मंडरा रहा है. लिस्ट में मुंबई भी शामिल है. तो इसलिए दुनिया के देशों में ये चिंता है कि अब नहीं संभले तो तबाही रोकने में बहुत देर हो जाएगी. इसी तबाही को रोकने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो सम्मेलन में भारत के हिस्से की कोशिश को पंचामृत फॉर्मूले का नाम दिया है. और पीएम मोदी दुनिया के सामने जो वादे कर आए हैं, उनकी खूब तारीफ भी हो रही है. हम से, यानी भारत से जितनी उम्मीद थी, उससे भी दो कदम आगे चले गए हैं. तो भारत ने क्या लक्ष्य रखे हैं और पंचामृत का फॉर्मूला है क्या. एक एक करके समझते हैं. 1. पहला- इंडिया 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता, 500 गीगावाट करेगा: इसमें एक टर्म है ‘गैर-जीवाश्म’ ऊर्जा. ये क्या हुई? जीवाश्म. फ़ॉसिल. यानी मृत जीवों के अंश. तो जब करोड़ों सालों तक मृत पौधे और जीव-जंतु, समुद्र की तलछट में या धरती के नीचे जमा होते रहते हैं तो इनकी एक मोटी परत सी बन जाती है. और जब इसपर करोड़ों सालों तक समुद्र के पानी का या धरती की ऊपरी परतों का दबाव पड़ता है तो नीचे गर्मी बढ़ती है. अधिक गर्मी और अधिक दबाव से जो पदार्थ बनता है वो एक अच्छा ईंधन या ऊर्जा का स्रोत साबित होता है. फिर चाहे वो लिक्विड फ़ॉर्म में मिले, जैसे कच्चा तेल. सॉलिड फ़ॉर्म में मिले, जैसे कोयला. या गेसियस फ़ॉर्म में मिले, जैसे नेचुरल गेस. साफ़ है कि इस तरह निकाले गए ईंधन को इसीलिए फ़ॉसिल फ़्यूल कहते हैं. तो सवाल ये कि PM मोदी या फिर किसी भी ऐसे व्यक्ति या संस्था को, जिसे पर्यावरण की चिंता है, उसे फ़ॉसिल फ़्यूल से दिक्कत क्यों है? और वो इसके विकल्प के तौर पर ‘गैर-जीवाश्मीय’ ऊर्जा की बात क्यों करते हैं. फ़ॉसिल-फ़्यूल या जीवाश्मीय ईंधन के जलने से कार्बन उत्सर्जन होगा . और अगर कार्बन उत्सर्जन होगा तो प्रदूषण होगा. और इसी लिए दुनिया कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर पूरा ज़ोर लगा रही है और फ़ॉसिल फ़्यूल का विरोध कर रही है. अब सवाल ये कि, कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण का क्या संबंध और इसे कैसे कम करने के प्लान क्या हैं. ये जानने के लिए आइए पीएम के बताए दूसरे अमृत के बारे में जानें. 2) भारत, 2030 तक अपनी 50 प्रतिशत ऊर्जा की ज़रूरतों को रिन्यूएबल सोर्सेज़ से प्राप्त करेगा- थोड़ी देर के लिए इस बात को पार्किंग लॉट में रखते हैं कि ‘कार्बन उत्सर्जन क्यों पर्यावरण के लिए नुक़सानदायक है’ और PM मोदी के पंचामृत की क्रोनोलॉज़ी के हिसाब से चलते हैं. तो ‘इफ़ नॉट मोदी देन हू’ की तर्ज़ पर ही सवाल है कि इफ़ नॉट फ़ॉसिल फ़्यूल देन वाट? उत्तर है रिन्यूएबल सोर्सेज़. रिन्यूएबल समझना आसान है.. रिन्यूएबल मतलब जिसका फिर से निर्माण किया जा सके. जिसे फिर से नया किया जा सके. एक बार फ़ॉसिल फ़्यूल जल गया तो. गया. बाय-बाय. लेकिन रिन्यूएबल सोर्सेज़, जिसे हिंदी में आप नवीनीकरणीय स्रोत भी कह सकते हैं, वो सदा रहेगा. जैसे सूर्य, वायु, नदियाँ. तो इनसे निकलने वाली ऊर्जा हो गई रिन्यूएबल एनर्जी. रिन्यूएबल एनर्जी सतत ऊर्जा का स्रोत तो है, ये तो समझ आता है, लेकिन ये कार्बन इमिशन में कैसे कमी करते हैं? ऐसे कि, जब इन माध्यमों से ऊर्जा निकाली जाती है तो कुछ जलता नहीं. और जब कुछ जलता नहीं तो कार्बन इमिशन का सवाल ही नहीं. सोलर एनर्जी में सूर्य की ऊर्जा सेल्स में स्टोर की जाती है. बांधों से निकलने वाली ऊर्जा या विंड एनर्जी में क्रमशः पानी और वायु के बहाव से टरबाइन्स घुमाए जाते हैं. इसलिए इनसे निकलने वाली ऊर्जा में नहीं या न्यूनतम कार्बन इमिशन होता है. पेरिस समझौते के वक्त हमने लक्ष्य रखा था कि 2030 तक रिन्यूएबल एनर्जी क्षमता 450 गीगावॉट तक कर लेंगे. अब उस लक्ष्य को बढ़ाकर 500 गीगावॉट कर दिया. इसका मतलब ये है कि भारत में जितनी बिजली की जरूरत होगी, उसका 50 फीसदी रिन्यूएबल एनर्जी से मिलेगी. अब सवाल ये कि क्या हम इस लक्ष्य तक पहुंच सकें. मौजूदा स्थिति देखते हैं. 2015 में मोदी सरकार ने 2022 के लिए रिन्यूएबल एनर्जी का टारगेट रखा था 175 गीगावॉट. इसमें 100 गीगावॉट सोलर एनर्जी, 60 गीगावॉट पवन ऊर्जा का हिस्सा शामिल है. हालांकि 2021 का साल खत्म होने को है और अभी हम 100 गीगावॉट तक ही पहुंच पाए हैं. 2014 में भारत की रिन्यूएबल कैपेसिटी 20 गीगावॉट थी. 6 साल में हमने लगभग 80 गीगावॉट की क्षमता और बढ़ाई है, क्या अब एक साल में इतनी ही क्षमता और बढ़ा पाएंगे, ये देखने वाली बात होगी. 3)भारत अब से लेकर 2030 तक के कुल प्रोजेक्टेड कार्बन एमिशन में एक अरब टन की कमी करेगा- इस वाले पॉईंट को कई जानकार बहुत सीरियसली ले रहे हैं. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार पंचामृत के बाकी चार अमृत तो ‘लो हैंगिंग फ़्रूट्स’ हैं. मतलब आसानी से एचिव किए जा सकते हैं. ये वाला थोड़ी मुश्किल भी है और या तो वैश्विक दबाव या फिर भारत की पर्यावरण के मुद्दे पर सीरियसनेस को दर्शाता है. क्यों कही जा रही हैं ये बातें, समझिए. दुनिया में जितना ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन अभी हो रहा है, उसमें पहला नंबर चीन का, दूसरा अमेरिका का और तीसरे नंबर पर आता है भारत. कुल उत्सर्जन में चीन की भागीदारी 27 फीसदी की है, यूएस की 11 फीसदी की और भारत की करीब 5 फीसदी के आसपास. अगर प्योर नम्बर्स में बात करें तो वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट के अनुसार 2018 में भारत का कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन लगभग 3.3 अरब टन था. और ऐसा अनुमान है कि ये 4-5 फीसदी की दर से हर साल बढ़ता जा रहा है. और इस हिसाब से हम अब से लेकर 2030 तक करीब 32 अरब उत्सर्जन कर चुके होंगे. तो 2030 तक 1 अरब टन की कमी का मतलब अगले 9 वर्षों में ढाई से तीन प्रतिशत की कमी. एक बिलियन या एक अरब टन कितना होता है इसे ऐसे समझिए कि एक अनुमान के अनुसार कार, एक दिन, एक महीने या एक साल में नहीं बल्कि अपने पूरे लाइफ साइकिल में 24 टन CO2 उत्सर्जित करती है। यूं करीब 4.2 करोड़ गाड़िया अपनी पूरी लाइफसाइकिल खत्म होने तक एक अरब टन CO2 उत्सर्जित करेंगी. इतना कार्बन एमिशन सरकार ने कम करने का लक्ष्य रखा है. और इस लक्ष्य पर हैरानी इसलिए भी जताई जा रही है क्योंकि भारत से इतनी उम्मीद नहीं की जा रही थी. हमने पर्यावरण को इतना गंदा किया भी नहीं है. साल 1870 से 2019 तक या औद्योगिक युग शुरू होने से लेकर अब तक दुनिया की कुल ग्रीन हाउस गैस के एमिशन में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ 4 फीसदी रही है. 75 साल पहले तक औपनिवेशिक दौर में हमारे यहां से कच्चा माल लूटकर यूरोपीय देशों ने अपने उद्योग खूब चलाए. इस दौरान खूब कार्बन उत्सर्जन हुआ. अमेरिका तो अब भी हमसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कर रहा है. तो भारत से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी इन देशों की बनती है, जो पहले से अमीरी लेकर बैठे हैं. खैर, अब इस सवाल पर आते हैं कि कार्बन एमिशन को कम करने की बात क्यों? आप लोगों को कहते सुनते होंगे कि ये ब्रांडेड कंबल है, इसलिए गर्म है. ये चोर मार्केट से ख़रीद ली स्वेटर, बिलकुल गर्म नहीं है. पर फ़िज़िक्स के जानकार जानते हैं कि कंबल या स्वेटर गर्म नहीं होता. बस इस आधार पर अच्छा या बुरा होता है कि शरीर से निकलने वाली ऊष्मा को कितना बाहर जाने देता है और कितना अंदर ही रहने देता है. इसलिए ही आप देखेंगे कि कंबल आपको गर्म भी रखते हैं और साथ ही अगर बर्फ़ को पिघलने से बचाना हो तो उसे भी कंबल से ढक देते हैं. ताकि बाहर की गर्मी कम से कम आए. अब धरती या पृथ्वी पर आते हैं. वो दिन में गर्म होती है. सूर्य की ऊर्जा से. और रात में ठंडी. क्योंकि अपनी ऊर्जा उत्सर्जित करती है. बाहर वायुमंडल में. अब आप इस कथन में वो ‘नेहरू वाली ग़लती’ मत ढूँढिएगा जो उन्होंने ‘एट दी स्ट्रॉक ऑफ़ मिडनाइट’ वाले भाषण के दौरान की थी. कि धरती पर हमेशा हर जगह दिन और हमेशा हर जगह रात नहीं होती. हमारा कहने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि धरती के जिस इलाक़े में अभी रात है वो भाग ऊर्जा उत्सर्जित कर रहा है और जिस इलाक़े में अभी दिन है वो अवशोषित. मतलब ऊर्जा का एक इक्वेलिबिरियम बना हुआ है. जैसे शक्ति का कोल्ड वॉर के दौरान अमेरिका-रूस के बीच बना था. अब कई यौगिक, जैसे मीथेन, कार्बनडाईऑक्साईड, हेलोकार्बन, जल वाष्प धरती के लिए करते हैं कंबल का काम. तभी तो बारिश या बादल वाली रातें उमस भरी होती हैं. इनसे सूर्य की गर्मी वायुमंडल के अंदर तो आ जाती है लेकिन अंदर ट्रैप हो जाती है. या बहुत कम बाहर निकल पाती है. मतलब कोल्ड वॉर वाले मेटाफ़र के हिसाब से कहें तो रूस टूट जाता है और शक्ति का ध्रुव सिर्फ़ अमेरिका रह जाता है. इस सारे कॉन्सेप्ट को कहा जाता है ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट और इन कंबल वाली गैसों को कहा जाता है ग्रीन हाउस गैस. और चार प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं जल वाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और हेलोकार्बन या CFC (फ्लोरीन, क्लोरीन और ब्रोमीन युक्त गैसें). यूं धीरे-धीरे धरती गर्म होने लगती है. यानी ग्लोबल वॉर्मिंग. और तब ग्लेशियर पिघलने लगते हैं. बाढ़ आने लगती है. कई जगह सूखा पड़ जाता है. बाढ़-सूखा इसलिए क्यूंकि बारिश का सीधा संबंध सूर्य की ऊष्मा, समुद्र की गर्म और ठंडी जल धाराओं और ग्लेशियरों, हिमनदों से है. वैसे ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट इतना बुरा भी नहीं. बल्कि अच्छा ही है. ये न होता तो रात का तापमान दिल्ली तक को साइबेरिया बना डालता. तो, कंबल की दिक्कत नहीं है. कंबल की ढेरों परतों की दिक्कत है. और कार्बन इमिशन (कार्बन डाईऑक्साईड, मीथेन) सबसे मोटी और सबसे ग़ैर ज़रूरी कंबल की परत है. इतनी की ग्रीन हाउस गेसेज़ में 80% से ज़्यादा हिस्सा कार्बन का है. अब ये जलवायु परिवर्तन इंसानों को प्रत्यक्ष रूप से तो प्रभावित करता ही है साथ ही इससे हमारे पर्यावरण और प्राकृतिक आवासों में भी बदलाव आते हैं. विभिन्न स्वदेशी प्रजातियां प्रभावित होती हैं. कुछ प्रजातियां पूरी तरह से गायब हो सकती हैं, जबकि अन्य पनप सकती हैं और इवोल्यूशन की रेस में दूसरों से आगे निकल सकती हैं. दोनों ही चीजें ‘ह्यूमन फ़्रेंडली’ इकोसिस्टम के लिए नुक़सानदायक हैं. ‘ह्यूमन फ़्रेंडली’ की बात इसलिए की, क्योंकि अगर नई प्रजातियां पनप रही हैं तो ज़ाहिर है धरती कहीं नहीं जाने वाली. या अंत में जाएगी. सबसे पहले ग़ायब होंगे हम मानव. एक दिक्कत और है. कार्बन का कंबल इतना ब्रांडेड है कि सालों साल चलता रहता है. कितने साल? रिपोर्ट्स के अनुसार CO2 का जीवनकाल निर्धारित करना सबसे कठिन काम हैं. क्योंकि ऐसी कई प्रक्रियाएं हैं जो वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाती हैं. जैसे हवा में छोड़ी गई कार्बन डाइऑक्साइड का 65% से 80% भाग, 20 से 200 वर्षों की अवधि में समुद्र में घुल जाता है. बाकी का भाग बहुत धीमी प्रक्रियाओं द्वारा हज़ारों सालों में हटता है. इन प्रक्रियाओं में रासायनिक अपक्षय और चट्टान निर्माण जैसी चीजें शामिल हैं. इसका मतलब है कि कार्बन डाइऑक्साइड, हजारों वर्षों तक जलवायु को प्रभावित करना जारी रख सकती है. मतलब ये कि पिछले पचास-सौ साल में हमारी गाड़ियों से, हमारे उद्योगों से जितने भी कार्बन का उत्सर्जन हुआ है, वो कहीं गया नहीं है. आसमान में ही मौजूद है. चादर की तरह. तापमान बढ़ाने के अलावा कार्बन उत्सर्जन सीधे तौर पर भी मनुष्यों को प्रभावित करता है. स्मॉग और वायु प्रदूषण में वृद्धि का सांस की बीमारी से रिश्ता तो भारतवासी हर दिवाली से लेकर जाड़े का मौसम ख़त्म होने तक प्रत्यक्ष देखते हैं. ये फसल की पैदावार और ज़मीन की उर्वरक क्षमता को भी कम करता है. तो ऐसी कई वजह हैं कि हमें कार्बन उत्सर्जन घटाना ही पड़ेगा. 4.  2030 तक भारत, अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन इंटेन्सिटी को 45 प्रतिशत से भी कम करेगा: अर्थव्यवस्था का प्रदूषण के साथ सीधा रिश्ता है. कैसे? ऐसे कि विकास के लिए हमें पर्यावरण वाले बॉक्स को अन-चेक किया. इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन के चलते पर्यावरण का सबसे ज्यादा नुक़सान हुआ है और ये कोई शोध का विषय नहीं सर्वमान्य सत्य है. जब हमने कोयले, तेल और गैस का इस्तेमाल करना नहीं सीखा था, तब से अब तक धरती का तापमान औसतन 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है. वहीं दूसरी तरफ़ पर्यावरण वाले बॉक्स को अन-चेक करें तो प्रदूषण या ग्लोबल वॉर्मिंग और उनके निगेटिव इफ़ेक्ट्स से अर्थव्यवस्था को अरबों की हानि हो रही है. अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए नए उद्योग लगाने होते हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलेप करना होता है. आर्थिक तरक्की के लिए पर्यावरण वाली चिंताओं को थोड़ा सा नज़रअंदाज़ करना पड़ता है. ये हम देखते भी हैं. पहाड़ों या संरक्षित क्षेत्र में सरकार को प्रोजेक्ट शुरू करना पड़ता है तो पर्यावरण वाली चिंताओं की अवहेलना होती है. तो ग्लासगो में पीएम मोदी ने वादा किया है कि अर्थव्यवस्था के हिसाब से कार्बन की इंटेन्सिटी को 45 फीसदी कम करेंगे. इसका मतलब ये है कि जीडीपी का एक डॉलर कमाने के लिए जितना कार्बन उत्सर्जन अभी हो रहा है, 2030 तक उसमें 45 फीसदी की कटौती करेंगे. मसलन रेलवे के उदाहरण से समझते हैं. रेलवे इस तरह के कदम उठा रहा है कि 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 6 करोड़ टन कम हो जाए. इसके लिए डीज़ल की जगह बिजली वाली ट्रेनों को बढ़ावा दिया जा रहा है. बाकी उद्योगों को इसी तरफ बढ़ाया जाएगा. 5. वर्ष 2070 तक भारत, नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा- ये समझना आसान है. नेट जीरो का मतलब ये नहीं है कि भारत कार्बन इमिशन करना ही बंद कर देगा. बस ये है कि लक्ष्य के अनुसार 2070 के बाद भारत जितना कार्बन इमिशन करेगा उतना ही एब्ज़ॉर्ब भी करेगा. कैसे कार्बन इमिशन को घटा के और कार्बन एब्ज़ॉर्बशन को बढ़ा के. कार्बन इमिशन घटाने में तो रिन्यूएबल एनर्जी जैसी बातें हमने आपको बता ही दीं. साथ ही रही बात कार्बन एब्ज़ॉर्बशन को बढ़ाने की तो उसके लिए है प्लांटेशन. सबसे प्राकृतिक माध्यम. वैसे आपको पता है इसी ऑर्गेनिक रिसोर्स के चलते हमारे के पड़ोसी देश का नेट इमिशन माइनस में हैं. कौन है वो देश? भूटान. तो ये लक्ष्य पीएम मोदी ने रखे हैं. साथ ही दुनिया के विकसित देशों पर सवाल उठाया है. किस बात को लेकर पेरिस समझौते के वक्त अमेरिका, फ्रांस जैसे विकसित देशों ने कहा था कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विकासशील देशों को 2020 से हर साल 100 अरब डॉलर दिए जाएंगे. विकसित देशों ने अभी ये वादा निभाया नहीं. पिछली बार अमेरिका, कनाडा जैसे देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी जितना लक्ष्य रखा था, उससे बहुत पीछे हैं. जबकि अमेरिका जैसे देश ही पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा चिंतित दिखने की कोशिश करते हैं. कहते ज्यादा हैं, करते कम हैं. इसलिए ग्रेटा थनबर्ग जैसे कई पर्यावरणविद कह रहे हैं कि पेरिस समझौते की तरह इस बार का सम्मेलन भी भाषणों तक ही सीमित रहेगा. कई लोग ये भी कह रहे हैं कि पीएम मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय मंच से तो बड़े बड़े ऐलान कर दिए हैं लेकिन असल में सरकार पर्यावरण को लेकर उतनी संजीदा नहीं है. पर्यावरण मंत्रालय के बारे में कहा जाता है कि वो पर्यावरण का रखवाला होने के बजाय इस भूमिका में रहता है कि कोई भी प्रोजेक्ट पर्यावरण के क्लियरेंस की वजह से ना फंसे. पर्यावरण के नियमों का सरकारी प्रोजेक्ट्स में कितनी ही बार उल्लंघन होता है. तो क्या वाकई मोदी सरकार पर्यावरण को लेकर गंभीर है. सरकारों के अलावा हमारी भी ये जिम्मेदारी बनती है कि हमारे पहाड़, नदियों, झरनों के प्रति संजीदगी बरते. पर्यावरण के साथ किसी तरह का खिलवाड़ ना करें.