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'शैतान का नाम लो, शैतान हाज़िर', ये कहावत कहां से आई?

कोई ये क्यों नहीं कहता कि फ़रिश्ते को याद करो, फ़रिश्ता हाज़िर!

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शैतान - नाम में ही दहशत है.
कहावतें भाषा का बड़ा ही दिलचस्प हिस्सा हैं. कहावतें हवा में पैदा नहीं हुई हैं. हर कहावत का कोई न कोई स्टार्टिंग पॉइंट ज़रूर रहा है. कुछ न कुछ लॉजिक है हर कहावत के पीछे. कई कहावतें तो हमारी ज़ुबान में ऐसी घुल-मिल गई हैं कि हम उनको नॉर्मल फिकरे मानने लगे हैं. उसके ओरिजिन का हमें कोई ज्ञान नहीं है.
एक सीन इमैजिन कीजिए. कुछ दोस्त बैठे गप्पे लड़ा रहे हैं. अचानक किसी और दोस्त का ज़िक्र छिड़ जाता है जो कि वहां मौजूद नहीं है. तभी वो दोस्त वहां आ जाए, तत्काल सब एक सुर में एक ही बात कहते हैं. 'शैतान का नाम लो, शैतान हाज़िर'. कोई कमबख्त ये नहीं कहता कि फ़रिश्ते का नाम लिया और फ़रिश्ता आ गया. तो साहेबान, ये कहावत में शैतान कहां से आ गया?
शैतान - आतंक से ही जीत है.
शैतान - आतंक से ही जीत है.

कहावत से शैतान का कनेक्शन थोड़ा पुराना है. थोड़ा नहीं बहुत पुराना. प्राचीन समय में शैतान का भयानक आतंक हुआ करता था. उसके ज़िक्र तक से बचा जाता था. ये मान्यता थी कि शैतान का नाम लेना, उसे याद करना उसे आने का इनविटेशन देने जैसा ही है. शैतान का नाम लो तो शैतान किसी न किसी रूप में ज़रूर प्रकट होता है. फिर चाहे वो आत्मा के रूप में आए या कोई संकट भेजे. इसलिए शैतान का नाम लेने की सख्त मनाही थी. किसी भी हाल में उसका नाम लेना टालने की वॉर्निंग हुआ करती थी.
चूंकि नाम लेने भर से उपस्थित होने की काबिलियत सिर्फ शैतान में हुआ करती थी, तो ऐसा करनेवाले इंसानों को भी शैतान कहा जाने लगा. जो नाम लेते ही हाज़िर हो वो शैतान. यूं पैदा हुई वो कहावत जिसे हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं. हालांकि इस सिचुएशन में मुझे पर्सनली वो कहावत ज़्यादा पसंद है, जो भारत में रचे-बसे प्रेम का विज्ञापन है.
"बड़ी लंबी उम्र है भाई."



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