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पुलिस पकड़ नहीं पाती... लोग बेल ले लेते हैं, ऐसा कैसे होता है?

बेल के नियम-कायदे जान लीजिए.

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भारतीय कानून में बेल या जमानत के हर मौके के हिसाब से अलग-अलग प्रावधान हैं. फोटो – फिल्म स्टिल
फरवरी के दूसरे हफ्ते से ग्रेटा थनबर्ग की टूलकिट मामले में कई नए किरदार जुड़ने शुरू हुए. कुछ देसी तो कुछ विदेशी. 13 फरवरी को 21 साल की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को दिल्ली पुलिस की साइबर सेल ने बैंगलुरु से गिरफ्तार किया. दिल्ली पुलिस ने दिशा के बाकी साथियों की तलाश भी तेज कर दी. निकिता जैकब और शांतुनु मुलुक नाम के दो लोगों को दिल्ली पुलिस शिद्दत से खोजती रही. इस बीच निकिता और शांतनु बॉम्बे हाई कोर्ट की शरण में पहुंचे. हाई कोर्ट ने शांतनु को एक हफ्ते और निकिता तो 3 हफ्ते की एंटीसिपेटरी या अग्रिम बेल दे दी. मतलब बेल की अवधि के दौरान उन्हें पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकती. आपको लगेगा अरे ऐसे कैसे? पुलिस ने तो अभी पकड़ा तक नहीं, फिर बेल कैसे मिल गई? ये कौन सी बेल हुई भला? ऐसे तो पुलिस पकड़ती रह जाएगी और कोर्ट बेल देती रहेगी. आज आपको समझाते हैं, भारतीय कानून के तहत मिलने वाली बेल यानी जमानत का सिस्टम, वह भी आसान भाषा में. बेल देने की जरूरत क्या है? किसी भी देश को व्यस्थित तरीके से चलाने के लिए जरूरी है नियम-कायदे. हमारे कहने का मतलब है, कायदा-कानून. भारत भी एक ऐसी कानून की किताब से चलता है, इसे भारतीय संविधान कहते हैं. संविधान देश चलाने के लिए मोटा-मोटी व्यवस्था देता है, लेकिन हर छोटे-मोटे कानून के लिए दो अलग संंहिताएं बनी हैं. ये हैं इंडियन पीनल कोड यानी IPC और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड यानी CrPC. आप पूछेंगे कि इनमें अंतर क्या है? अंतर ये है कि जहां IPC अपराध और उसकी सजा के बारे में बताता है, वहीं पर CrPC उस प्रोसीजर यानी प्रक्रिया के बारे में बताता है जिससे अपराध का निर्धारण औऱ सजा दी जाती है. मतलब यह कि कानून की किताब में सजा देने का भी एक तरीका तय है. कोर्ट की प्रक्रिया हर मामले के हिसाब से निर्धारित है. सब कुछ स्टेप-बाई-स्टेप चलेगा. इसलिए कई बार लगता है कि सबकुछ धीमे चल रहा है. इस धीमेपन की एक और वजह है. यह वजह आपने शायद पहले भी कहीं सुनी हो. यह कुछ ऐसे है - 100 गुनहगार बच जाएं लेकिन 1 बेगुनाह को सज़ा न हो.
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत का कानून कहता है. दुनिया के हर कानून के पीछे एक न्यायशास्त्र काम करता है. इसे कानून की भाषा में ज्यूरिस्प्रूडेंस कहा जाता है. मतलब न्याय के सिद्धांत. ये पूरी दुनिया में लगभग एक जैसे ही होते हैं. मिसाल के तौर पर, दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का बराबर मौका दिया जाएगा. न्याय करने का यह मूल सिद्धांत है. इसलिए चाहें दुनियाभर को पता हो कि कोई शख्स अपराधी है, फिर भी उसे कोर्ट में अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है.
अब वापस बेल पर आ जाते हैं. कोर्ट किसी भी शख्स को इस आधार पर बेल देती है, कि जब तक वह दोषी सिद्ध नहीं हो जाता, उसे निर्दोष ही माना जाए. न्यायशास्र की भाषा में कहें तो Every accused person is presumed to be innocent until proved guilty.
इसके अलावा बेल देने का एक और आधार भी है. साल 1977 में राजस्थान बनाम बालचंद
मामले में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला आया. जस्टिस वी कृष्ण अय्यर ने भारतीय संविधान में बताए गए मूल अधिकारों की छाया में एक नजीर तय कर दी. यह नजीर Bail is a rule, jail is an exception की है. मतलब बेल एक नियम है और जेल भेजना एक अपवाद है.
बेल या जमानत देकर कोर्ट किसी अपराधी को आजादी नहीं दे रहा है, बल्कि एक गांरटी के बदले उसे निश्चित वक्त के लिए आजाद कर रहा है. वह भी इस शर्त पर कि जब भी जरूरत होगी वह हाजिर हो जाएगा.
Saurabh Shukla In Jolly Llb
कोर्ट को हक है कि वह किसी आरोपी को जमानत पर आजाद कर दे. तस्वीर जॉली एलएलबी फिल्म की है. फोटो - फिल्म स्टिल
बेल कितनी तरह की होती हैं तमाम तरह के मामले कोर्ट के सामने आते हैं, ऐसे में बेल भी अलग-अलग तरह की होती हैं. भारतीय कानून में तीन तरह की बेल या जमानत का प्रावधान है.
साधारण जमानत या रेगुलर बेल - अगर किसी शख्स को गिरफ्तार कर लिया गया है और वह पुलिस कस्टडी में है तो वह रेग्युलर बेल के लिए एप्लिकेशन दे सकता है. यह बेल सीआरपीसी की धारा 437
और 439
के तहत दी जाती है.
अंतरिम जमानत या इंटेरिम बेल - यह बेल बहुत कम वक्त के लिए दी जाती है. यह अक्सर तब दी जाती है, जब आरोपी की रेग्युलर या एंटिसिपेटरी बेल पर सुनवाई होने में कुछ दिन बचे होते हों. उन दिनों के लिए इस तरह की बेल का प्रावधान है.
अग्रिम जमानत या एंटीसिपेटरी बेल - यह एक तरह से एडवांस में बेल लेना है. मतलब अगर किसी को आशंका है कि उसे पुलिस गिरफ्तार कर सकती है, तो वह सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत की अर्जी कोर्ट में लगा सकता है. इस तरह की बेल मिलने के बाद पुलिस बेल अवधि के दौरान आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती. तो क्या हर अपराध के लिए बेल मिल जाती है? कानून में अपराध को दो कैटेगिरी में रखा गया है. एक वह अपराध जिनके लिए जमानत दी जा सकती है. उन्हें बेलबल ऑफेंस कहते हैं. इनमें छोटे-मोटे अपराध जैसे किसी की मानहानि कर देना, लापरवाही से गाड़ी चलाना, गैरकानूनी हथियार लेकर घूमना आदि. दूसरे तरह के वो अपराध होते हैं जो नॉन बेलेबल होते हैं. मतलब जिनमें बेल नहीं दी जा सकती. इनमें मर्डर, राजद्रोह और दहेज हत्या जैसे जघन्य अपराध आते हैं. पहले से सब तय है, तो जज क्या करता है? आपको लगता होगा कि जब कानून की किताब में पहले से सब तय है, तो जज क्या करता है? इससे अच्छा है एक कंप्यूटर लगा दिया जाए, इधर से अपराध फीड किया जाए और उधर से फैसला निकल आए. दरअसल ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि अपराध के कई मानवीय या परिस्थितिजन्य एंगल भी हो सकते हैं. मिसाल के तौर पर किसी ने हत्या किस हालात में की, इसे जज सुनकर और सबूतों को देख कर ही तय कर सकता है. ऐसे में जज अपने विवेक से बेल देने या न देने का फैसला कर सकता है. जज को हक है कि वह नॉन बेलेबल अपराध में भी किसी को बेल दे दे. बस जज बेल देने के अधिकार को लेकर निश्चिंत होना चाहिए. नॉन बेलेबल अपराधों में भी इन वजहों से जज बेल दे सकते हैं.
# आरोपी महिला या बच्चा है.
# सबूत बहुत कम हैं.
# पुलिस ने FIR लिखने में बहुत देरी की है.
# आरोपी शारीरिक रूप से बहुत बीमार है.
# अगर यह बात सिद्ध हो जाए कि जिसने केस किया है और जिस पर आरोप लगा है उनके बीच पहले से दुश्मनी है.
बेल के मामले में जज के फैसले और वकील के पैंतरे पर हमारे साथी अभिषेक का सुनाया एक किस्सा आप भी सुन लीजिए.
सुमेर सिंह नाम का आरोपी विस्फोटक सामग्री के साथ गिरफ्तार किया गया. उसे एक बस से पुलिस ने गिरफ्तार किया था. उसके सामान के साथ ही सीट के नीचे विस्फोटक रखा था. पुलिस ने कहा कि आतंकी कार्रवाई करने जा रहा था, हमने धर लिया. मामला कोर्ट में पहुंचा. इलाके के मशहूर वकील मुन्नू बाबू ने सुमेर सिंह का केस लिया और सेशन कोर्ट में जम कर बेल के लिए बहस की. जज टस से मस होता नहीं दिख रहा था. ऐसे में वकील मुन्नू बाबू ने अपना रुमाल कोर्ट में गिराया और चिल्लाना शुरू किया- अरे भाई ये किसका रुमाल है. वह कई बार यह लाइन बोल कर चिल्लाए. जज ने कहा - अरे मुन्नू बाबू लावारिस रुमाल होगा आप क्यों हंगामा कर रहे हैं. मुन्नू बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा कि, मी लॉर्ड हम भी तो यही कह रहे हैं कि जब कोर्ट में गिरा रुमाल लावारिस हो सकता है, तो बस की सीट के नीचे रखा विस्फोटक भी तो लवारिस हो सकता है. जज मुस्कुराए और बोले- आपने आज फंसा दिया. जज ने बेल दे दी. हालांकि मुकदमा किस करवट बैठा, यह बाद की बात है. लेकिन यह बात तय है कि जज अगर आरोपी की दलील से सहमत है, तो वह बेल दे सकता है.
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आरोपी का वकील अगर यह सिद्ध करने में सफल हो जाता है कि बेल देने के पीछे का आधार तगड़ा है, तो कोर्ट नॉन बेलेबल अपराध पर भी बेल दे सकता है .
क्या बेल कैंसल भी हो सकती है? जिस तरह से कोर्ट को बेल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे बेल कैंसल करने का भी अधिकार है. कोर्ट किसी भी वक्त दी गई बेल कैंसल कर सकती है. कोर्ट को यह अधिकार CrPC के सेक्शन 437(5) और 439(2) में दिया गया है. कोर्ट बेल कैंसल करके, पुलिस को आरोपी को फौरन गिरफ्तार करने के आदेश दे सकती है.
तो इस बार जब भी बेल का नाम सुनिएगा, तो भारतीय कानून को शुक्रिया अदा करिएगा. राहत की सांस लीजिएगा कि आपके कानून में ऐसे प्रावधान हैं कि कोई ताकतवर सरकारी एजेंसी भी आपकी आजादी छीन नहीं सकती.