लोकतांत्रिक परंपराओं में रायशुमारी या जनमत संग्रह का बड़ा महत्व होता है. इसका लक्ष्य होता है किसी बड़े निर्णय में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की राय को सम्मिलित करना. ताकि जो फैसला हो, वो सबकी सहमति माना जाए. सुनने में कितना अच्छी चीज़ लगती है. लेकिन इसी जनमत संग्रह के नाम पर ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में न सिर्फ दो गुटों में मारपीट हो गई, बल्कि भारत के राष्ट्रध्वज का अपमान भी हुआ. संभव है, आप तक ये खबर ऐसे ही पहुंची होगी कि खालिस्तानियों ने अलग देश के लिए जनमत संग्रह कराया और देश के गौरव की रक्षा के लिए कुछ लोग वहां तिरंगा लेकर पहुंच गए. इसके बाद हिंसा हुई और तिरंगे का अपमान. लेकिन हम बता दें कि मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया और पंजाब में जो कुछ हो रहा है, वो इतना सिंपल भी नहीं है.
ऑस्ट्रेलिया में मंदिरों और तिरंगे को निशाना क्यों बनाया गया?
पंथिक राजनीति के नाम पर खालिस्तान के समर्थन का खेल भारत और विदेश में कौन चला रहा है?
क्रिकेट प्रेमियों के लिए मेलबर्न शहर का नाम नया नहीं है. वो आपको बता देंगे कि ये शहर ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य की राजधानी है. और ये भी बता देंगे कि मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में दोपहर 1 बजे शुरू होने वाला मैच देखने के लिए आपको इंडिया में सुबह साढ़े 7 बजे टीवी के सामने बैठना पड़ेगा. लेकिन बीते 24 घंटों में मेलबर्न एक हिंसक झड़प के लिए सुर्खियों में बना हुआ है. और इस झड़प का सीधा संबंध भारत से है. घटना के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है. दो गुटों में हाथापाई हो रही है. इसमें एक गुट के हाथों में तिरंगा है तो दूसरे गुट के हाथों में खालिस्तान लिखा हुआ झंडा है. लोग एक दूसरे पर झंडों के पोल से हमला करते हुए दिखाई दे रहे हैं.
ऑस्ट्रेलियन मीडिया Special Broadcasting Service की रिपोर्ट के मुताबिक, 29 जनवरी की शाम मेलबर्न में अमेरिका स्थित सिख फॉर जस्टिस संगठन ने अनौपचारिक रूप से पंजाब की आजादी के लिए जनमत संग्रह कराया. इसे खालिस्तान जनमत संग्रह का नाम दिया गया. दावा किया गया कि सिख चाहें तो वोट डालें, कोई बाध्यता नहीं है और न ही कोई सरकारी सपोर्ट है. लेकिन ये कहने की बातें हैं. इसके पीछे लंबी चौड़ी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लॉबिंग है. याद कीजिए कैसे साल 2019 के आखिर में अचानक ''रेफरेंडम 2020'' की बातें होने लगीं. कैनडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में जमे खालिस्तानी पर्चे छपवाने लगे.
भारत में इसकी कुछ आहट सुनी गई, लेकिन पंजाब की आम जनता ने इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया. 2020 आया और कोरोना की भेंट चढ़ गया. इसी साल के अंत में दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानूनों के विरोध के लिये धरना शुरू हुआ. जिसमें पंजाब और हरियाणा के किसान प्रमुख रूप से जुटे. इस आंदोलन के बीच खालिस्तान वाला मुद्दा उछल गया. आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कह दिया गया. फिर आंदोलनकारियों के बीच भी कुछ ऐसे लोग नज़र आए, जो खालिस्तान के समर्थन की बात कह चुके थे. लेकिन कृषि कानूनों के वापस होते ही धरना भी खत्म हो गया और कोलाहल भी. लगने लगा, कि सब कुछ ठीक हो गया है.
लेकिन विदेश में खालिस्तान समर्थक संगठन कोरोना महामारी के दौरान भी एक्टिव रहे और जैसे ही महामारी का असर कम हुआ, उन्होंने दोबारा रेफरेंडम की मांग पकड़ ली. रेफरेंडम का आधार वही - भारत से अलग खालिस्तान देश की मांग. इस तरह का पहला रेफरेंडम साल 2021 के अक्टूबर महीने में हुआ. तब से लेकर अब तक ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड, इटली और कैनडा में रायशुमारी हो चुकी है. इसके पीछे कई संगठन हैं, जिनमें सबसे बड़ा नाम है अमेरिका से चलने वाले संगठन सिख फॉर जस्टिस का. भारत सरकार जुलाई 2019 में ही इसपर ''भारत-विरोधी गतिविधियों'' के आरोप में बैन लगा चुकी है, जिसके लिए Unlawful Activities (Prevention) Actमाने UAPA का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन ये संगठन भारत से बाहर अपना काम कर रहा है. जब मौका मिलता है, खालिस्तान की मांग को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाता है.
इसी संगठन ने 29 जनवरी को ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में खालिस्तान रेफरेंडम का आयोजन किया. और इसी रेफरेंडम के दौरान मारपीट की घटना हुई. मेलबर्न के अखबार The Age की रिपोर्ट के मुताबिक, रेफरेंडम में वोटिंग के लिए सिख समुदाय के लोग मेलबर्न के फेडरेशन स्क्वॉयर पर इकट्ठा हुए थे. इनका सामना दो बार भारत समर्थक लोगों से हुआ. पहली घटना कार्यक्रम शुरू से पहले करीब 12 बजकर 45 मिनट और दूसरी घटना शाम के करीब साढ़े चार बजे हुई. हाथ में तिरंगा लिए भारत समर्थक कुछ लोगों का समूह सड़क से गुजर रहा था. इसी दौरान नारेबाज़ी से तैश बढ़ा और मारपीट हो गई. और इसी दौरान भारत के राष्ट्रध्वज को पैरों तले रौंदा गया.
मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य की राजधानी है. तो घटना के बाद विक्टोरिया पुलिस ने बयान जारी किया. कहा कि घटना में 34 साल और 39 साल के दो व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है और दोनों पर जुर्माना भी लगाया गया है. मेलबर्न में भारत का काउंसुलेट है. यहां भारत के काउंसल जनरल डॉ सुशील कुमार ऑस्ट्रेलियन प्रेस से कहा,
'इससे पहले भी खालिस्तान कार्यकर्ताओं ने 26 जनवरी को भारतीय वाणिज्य दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन किया था, जहां वे आक्रामक हो गए थे. हमने इन सभी मामलों को ऑस्ट्रेलियाई सरकार के सामने उठाया है और हम चाहते हैं कि शांति बनी रहे.'
इस मामले को लेकर ऑस्ट्रेलिया दूतावास में मौजूद भारतीय राजदूत मनप्रीत वोहरा ने विक्टोरिया सरकार के प्रमुख डेनियल एंड्रयूस से मुलाकात की. इसकी जानकारी खुद राजदूत मनप्रीत वोहरा ने ट्वीट कर दी है. वोहरा आज मेलबर्न के एलबर्ट पार्क स्थित इस्कॉन मंदिर भी गए, जिसकी दीवारों पर खालिस्तान समर्थक नारे लिख दिये गये थे. मंदिर पर भारत के खिलाफ भी नारे लिखे गए थे.
खालिस्तान की मांग और विदेशों में उसका समर्थन कोई नई बात नहीं है. पंजाब में इस मांग को लेकर पहले उग्रवाद खड़ा हुआ, फिर सूबा आतंकवाद की चपेट में आ गया. पाकिस्तान ने इसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश की. भारत के लिए वो वक्त मुश्किल था. सेना को तैनात करना पड़ा. ब्लू स्टार के लिए इंदिरा सरकार की आलोचना आज तक होती है. उनकी हत्या के बाद भड़के दंगों के ज़ख्म आज भी कितने दिलों में ताज़े हैं. खालिस्तान आंदोलन से जन्मे संघर्ष में दोनों पक्षों ने ऐसे कदम उठाए, जिनका खामियाज़ा निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ा. लेकिन भारत ने पागलपन के उस दौर को पीछे छोड़कर आगे देखना सीखा है. फिर बात ऑस्ट्रेलिया में तिरंगे के अपमान तक कैसे पहुंची. और इस लड़ाई में मंदिरों को क्यों घसीटा जा रहा है? इस सवाल पर आने से पहले हमें समझना होगा कि भारतवंशी ऑस्ट्रेलिया पहुंचे कैसे, और वहां कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं. सुनिये विवेक आसरी को. विवेक पत्रकार हैं और ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं. उन्होंने बताया,
"भारतवंशियों का ऑस्ट्रेलिया में पलायन तीन चरणों में हुआ. पहला भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय, 70 के दशक में दूसरा पलायन हुआ. इस दौरान बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग ऑस्ट्रेलिया आए, जो यहां खेती करता थे और आज बड़े किसान हैं. तीसरा पलायन हुआ 90 के दशक के बाद, इस समय ज्यादातर भारतवंशी वे थे जो नौकरी और रोजगार के चलते ऑस्ट्रेलिया आए. और ये पलायन अब भी जारी है. पंजाबी इस समय ऑस्ट्रेलिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भारतीय भाषा है. और सिख समुदाय वहां पर सबसे संगठित समुदाय है."
ऑस्ट्रेलिया में सिख समुदाय संगठित है. और इस संगठन का केंद्र हैं गुरुद्वारे. ऑस्ट्रेलिया में सिख समुदाय के लोग खेती से इतर बड़े पैमाने पर रेस्टोरेंट्स और ट्रांसपोर्ट का काम करते हैं. और इनके प्रतिष्ठानों में नौकरी का रास्ता गुरुद्वारों से होकर भी जाता है. सीधे नौकरी गुरुद्वारों से न भी मिले, तब भी काम के सिलसिले में जिन लोगों से आपकी मुलाकात होगी, वो आपको गुरुद्वारों में मिल जाएंगे. इसीलिए गुरुद्वारों के इर्द-गिर्द गोलबंदियां मज़बूत होती हैं. क्योंकि यहां सवाल समाज में बैठने भर का नहीं है, रोज़गार का भी है.
यहां तक सारी चीज़ें सही हैं. समस्या वहां से शुरू होती है, जहां से गुरुद्वारों के माध्यम से आकार लेने वाली गोलबंदियां राजनीति के मैदान में उतरती हैं. ऑस्ट्रेलिया में कुछ गुरुद्वारे ऐसे हैं, जहां समय के साथ खालिस्तानी समर्थकों का प्रभाव बढ़ा है. और उन्होंने गुरुद्वारों का राजनैतिक इस्तेमाल शुरू कर दिया है. और ये बहुत पुरानी बात नहीं है. पांच-छह साल पहले तक ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तानियों की संख्या काफी कम थी. लोग इस बारे में ज्यादा बात भी नहीं करते थे. 2017 में एक बार भारत के राजदूत को मेलबर्न के एक गुरुद्वारे में जाने से कुछ युवकों ने रोक दिया. इसके बाद किसान आंदोलन ने खालिस्तानियों को और हवा दी.
इस संदर्भ के साथ एक और बात को दर्ज किया जाना ज़रूरी है. कि मेलबर्न वाली घटना, या उससे पहले ब्रैंप्टन या सिडनी में जो हुआ, उसमें हमेशा दो गुटों की बात सामने आई. ब्रैंप्टन में दिवाली पर फसाद हुआ था. उससे पहले अगस्त 2020 में सिडनी के हैरिस पार्क में मारपीट हुई थी, जिसे हरियाणवी बनाम खालिस्तानी लड़ाई बताया गया था. इस दूसरे गुट में कौन शामिल हैं और मेलबर्न में बात इतनी कैसे बढ़ गई. इसके बारे में विवेक आसरी बताते हैं,
"रेफरेंडम की घोषणा के बाद मेलबर्न में जगह-जगह भिंडरावाले के पोस्टर लगाए गए, जिनका हिंदू संगठनों से विरोध किये और स्थानीय प्रशासन से इन्हें हटाने की मांग की. कई जगहों पर खालिस्तानी पोस्टरों पर गालियां भी लिखी गईं जिसके बाद खालिस्तानियों ने हिंदू मंदिरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया."
पंथिक राजनीति के नाम पर खालिस्तान के समर्थन का खेल भारत और विदेश में कैसे चल रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है. कभी बेअदबी, तो कभी नहर के पानी और कभी चंडीगढ़ न मिलने को खींचकर अलग देश की मांग के लिए तर्क गढ़े जाते हैं. फिर ब्लू स्टार और सिख विरोधी दंगों का है ही. कोई सीधा तर्क नहीं है. तर्क से काम नहीं चलता तो सिख गुरुओं की सीखों को इस तरह पेश किया जाता है, जैसे सवा तीन सौ साल पहले सिखों के लिए अलग देश की बात कह दी गई थी.
हम सिख शास्त्रार्थ में नहीं पड़ सकते, क्योंकि इसे लेकर हमारी जानकारी सीमित है. लेकिन हम ये दावे से जानते हैं कि भारत और ऑस्ट्रेलिया में भी सिख समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा खालिस्तान की मांग या तिरंगे के अपमान से इत्तेफाक नहीं रखता. तब ये मेजॉरिटी साइलेंट क्यों है, इस पर विवेक बताते हैं,
"ऑस्ट्रेलिया, कैनडा, अमेरिका और ब्रिटेन में रह रहा सिख समुदाय भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है एक वो जो खलिस्तान समर्थक है और दूसरा वो जो भारत समर्थक हैं. लेकिन 2017 की घटना के बाद जाब ये बात सामने आई कि खलिस्तान तेजी से अपने पैर पसार रहा है, उस समय भारत सरकार की ओर से भारत समर्थक सिख समुदाय को अपने साथ लाने की कोई कोशिश नहीं हुई. अगर सरकार ऐसा करती तो आज ये इतनी बड़ी घटना नहीं होती."
हमने ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले कई और लोगों से भी बात की. सबने एक स्वर में कहा कि सिख समुदाय के बीच खालिस्तानी धड़ा है, लेकिन उसकी संख्या बहुत छोटी है. लेकिन जो लोग हैं, वो बहुत एक्टिव हैं, और बहुत उग्र भी. मिसाल के लिए जो सिख ऑस्ट्रेलिया में अपनी गाड़ियों पर किसान आंदोलन या खालिस्तानी स्टीकर नहीं लगाना चाहते थे, उनके सामने ये संकट खड़ा हो गया कि गुरुद्वारे में उनकी गाड़ी और इसीलिए उनका परिवार भी अलग दिखेगा. फिर एक दूसरी समस्या है, अगर कोई बिना लाग लपेट खालिस्तानियों के खिलाफ बोले, तो उसे भी विरोध झेलना पडे़गा.
29 जनवरी वाली घटना के बाद कई सिखों ने भी तिरंगे के अपमान की निंदा की, लेकिन जब हमने स्क्रीनशॉट मांगे, तो उन्होंने कहा कि नाम ब्लर कीजियेगा, क्योंकि हमें यहां प्रॉब्लम हो जाएगी. फिर रोज़गारी वाली बात तो है ही. याद कीजिये हमने गुरुद्वारों की रोज़गार में भूमिका के बारे में क्या कहा था. इसीलिए ज़रूरत है कि भारत सरकार ऐसे प्रभावशाली सिखों से बात करे, जो खालिस्तान की मांग के खिलाफ भारत का समर्थन करें. अंत में आते हैं प्रतिक्रियाओं पर. भारत में ऑस्ट्रेलिया के राजदूत बैरी ओ फैरेल ने 20 जनवरी को ट्वीट कर लिखा था,
''भारत की तरह ऑस्ट्रेलिया भी एक गौरवशाली बहुसांस्कृतिक देश है. हम मेलबर्न में दो हिन्दू मंदिरों में हुई तोड़फोड़ की घटना से स्तब्ध हैं और ऑस्ट्रेलियाई एजेंसियां इसकी जांच कर रही हैं. अभिव्यक्ति की आजादी को हमारे पुरजोर समर्थन में हिंसा और घृणा के लिए कोई जगह नहीं है.''
विदेश मंत्रालय ने मामले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताया था कि भारत सरकार इस मुद्दे पर ऑस्ट्रेलिया सरकार से बातचीत कर रही है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा था,
"हम इन कृत्यों की कड़ी निंदा करते हैं. मेलबर्न में हमारे कॉन्सुलेट जनरल ने इस मामले को स्थानीय पुलिस के सामने उठाया है. साथ ही हमने अपराधियों के खिलाफ जांच और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने की दिशा में कदम उठाने का अनुरोध किया है."
अब बस ये देखना है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार इस समस्या से कैसे निपटेगी, क्योंकि वो इस मामले में थर्ड पार्टी होते हुए भी केंद्र में है.
कुल जमा बात ये है कि हम एक नाज़ुक विषय पर बात कर रहे हैं. भारत की संप्रभुता सर्वोच्च है. और हमारे राष्ट्रध्वज का अपमान किसी भी परिस्थिति में गलत ही है. अगर किसी की कोई मांग है, तो उसे सज्जनता के साथ भी उठाया जा सकता है. रही बात भारतीय प्रतिक्रया की, तो हमें अतीत के अनुभव बताते हैं कि कुछ भी कहने और करने में बहुत सावधानी की आवश्यकता है. जो आग ठंडी हो गई है, वो ठंडी ही अच्छी.
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