
ग्लेशियर पहाड़ पर मौजूद वो बड़े बर्फ के टुकड़े हैं जिनसे पिघल कर नदियों में पानी पहुंचता है.
ग्लेशियर जहां पर खत्म होता है उस जगह को टर्मिनस कहते हैं. यही वह जगह है जहां से पानी पिघल कर निकलना शुरू होता है. गंगोत्री ग्लेशियर का टर्मिनस गाय के मुख के जैसा दिखता है. इसलिए इसका नाम गौमुख रख पड़ा. एक ग्लेशियर कई किलोमीटरों में फैला होता है और उसकी बर्फ का एक नटवर्क सा तैयार होता है. इन्हें ट्रिब्यूरी कहा जाता है. ये देखने में बर्फीला मकड़जाल मालूम पड़ता है. ये मकड़जाल ही बड़े ग्लेशियर को मजबूत बनाए रखता है. ग्लेशियर एक बहुत ही संवेदनशील सिस्टम है. तापमान का जरा सा बदलाव भी पूरे सिस्टम को बदल देता है.

गौमुख को ही गंगा नदी का उद्गम माना जाता है. यह गंगोत्री ग्लेशियर का सबसे आखिरी का हिस्सा है, (फोटो-विकीपीडिया)
नासा ने दिखाया कि सिकुड़ रहा है गंगोत्री ग्लेशियर गंगोत्री ग्लेशियर उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में पड़ता है. इस वक्त इस ग्लेशियर की लंबाई तकरीबन 30 किलोमीटर और चौड़ाई 2-4 किलोमीटर (मौसम के अनुसार) तक है. यह चार पहाड़ों के बीच स्थित है. इस जगह को चौखंबा मासिफ कहा जाता है. यह ग्लेशियर हिमालय का सबसे बड़ा ग्लेशियर है. गंगोत्री ग्लेशियर सन 1780 से ही सिकुड़ रहा है. शुरुआत में सिकुड़ने का कुछ इंच और सेंटीमिटर तक था. फिर 1971 का साल आया. इसके बाद ग्लेशियर का सिकुड़ना काफी तेज हो गया. मामला मीटरों सिकड़ने तक पहुंच गया. आपको शायद याद होगा कि 70 के दशक के आसपास ही भारत और दुनिया भर के देशों में कारखानों के विस्तार और ईंधन की खपत ने जोर पकड़ा था. साल 1996 से लेकर 1999 के बीच ही यह ग्लेशियर 76 मीटर सिकुड़ गया. साल 2001 में नासा ने नीचे दी गई तस्वीर ली थी. इसमें ग्लेशियर के बरसों-बरस सिकुड़ने का डेटा दर्ज है. आखिर डेटा साल 2001 का है. नासा के अनुसार उस वक्त ग्लेशियर 25 साल में तकरीबन 850 मीटर सिकुड़ रहा था. अब हम 2021 में हैं. जानकारों का मानना है कि हालात में कोई खास सुधार नहीं आया है और इस वक्त का डेटा 25 साल में 1 किलोमीटर से ज्यादा का होगा.
दुनियाभर के एक्पर्ट्स मानते हैं कि अगर इस रफ्तार से ही गंगोत्री ग्लेशियर सिकुड़ते रहे तो गंगा नदी के अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा.

नासा ने बरसों की सेटेलाइट इमेज के जरिए दिखाया है कि कैसे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं. नीली रेखाएं सिकुड़ते ग्लेशियर को दिखा रही हैं. (फोटो-नासा)
गंगोत्री ग्लेशियर पर तेजी से बढ़ रहा है ब्लैक कार्बन भारत सरकार के एक जानेमाने वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने साल 2016 में एक स्टडी की थी. इसमें चौंकाने वाले रिजल्ट आए थे. इस इंस्टिट्यूट के साइंटिस्ट गंगोत्री ग्लेशियर के चिरबासा स्टेशन पर एक स्टडी में पाया कि गर्मियों के मौसम में यहां पर ब्लैक कार्बन की मात्रा सामान्य से 400 गुना ज्यादा होती है. यह ब्लैक कार्बन कई तरह से यहां पहुंच रहा है. इसके बड़े कारणों में पेट्रोल-डीजल से चलने वाली गाड़ियां और खेतों में जलाई जाने वाल पराली है. ये ब्लैक कार्बन तेजी से लाइट को सोखता है और ग्लेशियर पर तापमान को बढ़ा देता है. इससे इनके पिघलने की स्पीड बढ़ जाती है. इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट ने बाकायदा इस खतरे की तरफ ध्यान भी दिलाया है.

उत्तरभारत में जलाई जाने वाली पराली और जंगलों की आग का भी ग्लेशियर पर बुरा असर पड़ रहा है. (फोटो-सोशल मीडिया)
अगर गंगोत्री ग्लेशियर पिघल गया तो क्या होगा ? अगर पिघलने की रफ्तार बढ़ी तो वही होगा जो उत्तराखंड में हुई हाल की दुर्घटना में देखने को मिला. नदियों में पानी अचानक बढ़ जाएगा और आसपास के इलाके जलमग्न हो जाएंगे. भारी मात्रा में जान-माल का नुकसान होगा. जब ग्लेशियर पूरी तरह पिघल जाएंगे तो सूखे का दौर आएगा. जब नदी में पानी की सप्लाई करने वाला ग्लेशियर ही नहीं बचेगा तो नदी में पानी कहां से आएगा. इस बात के लिए ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है. ऐसे में गंगा नदी बस एक सीजनल नदी बन कर रह जाएगी. मतलब उसमें सिर्फ बारिश के सीजन में ही पानी नजर आएगा.