फतवा अरबी का लफ्ज़ है. जिसका मतलब होता है मुस्लिम लॉ के मुताबिक किसी निर्णय पर नोटिफिकेशन जारी करना. ओह थोड़ा मुश्किल हो गया. इसको ऐसे समझिए फतवा यानी राय, जो किसी को तब दी जाती है जब कोई अपना निजी मसला लेकर मुफ़्ती साहब के पास पहुंचे. और कहे मुफ़्ती साहब मेरे साथ ऐसा ऐसा है. इस सिचुएशन में बताइए इस्लाम के मुताबिक मुझे क्या करना चाहिए. अब मुफ़्ती साहब या तो इस्लामिक इतिहास खंगालेंगे कि अगर ऐसी सिचुएशन मोहम्मद साहब या किसी खलीफा, या इमाम या फिर आलिमे दीन के सामने आई तो उन्होंने क्या प्रावधान दिया. क्या सुझाव दिया. अगर कोई उदाहरण मिल जाता है तो वो बता देंगे. या फिर कुरान में कुछ ऐसा है तो वो बता दिया जाएगा. और अगर ऐसी सिचुएशन कहीं नहीं मिली तो फिर शरिया क़ानून को पढ़कर समझकर मुफ़्ती साहब अपनी राय दे देंगे. और ये ही जो अपनी तरफ से राय कायम करने वाला पॉइंट है ये ही थोड़ा गड़बड़ा जाता है. जिसकी वजह से कुछ ज्यादा हो हल्ला मच जाता है. लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि ये मैंने राय दे दी है और अब इसको माना ही जाएगा.ये महज़ राय है. जिसको मानना या न मानना उसके हाथ में है जो फतवे के लिए मौलवी साहब के पास गया था. पैगंबर मुहम्मद साहब ने अपनी राय दीं, लेकिन कहीं ऐसा नहीं मिलता कि उन्होंने अपनी राय को मानने के लिए किसी पर दबाव डाला हो. ज़ोर ज़बरदस्ती दिखाई हो. बल्कि इन मुफ़्ती साहब की किताबों में ही ये मिलता है कि मुहम्मद साहब इस्लाम की पैरोकारी करते गए. और लोग उनकी शख्सियत से प्रभावित होकर मुसलमान बनते गए. फतवा, कोई कानून नहीं है. जिससे डरना चाहिए. फतवा एक राय है उसको वैसे ही देखना चाहिए. और कोई भी फतवा नहीं दे सकता. जब तक उसे इस्लाम की पूरी जानकारी नहीं है. फतवा देने के लिए एक अथॉरिटी होती है जो पूरी तरह सोच विचार करती है. ज्यादातर फतवों में परिस्थिति और संदर्भ ही जुड़ा होता है. ऐसे में ये फतवे सब पर लागू नहीं हो सकते. फतवा किसी सवाल का जवाब होता है. और जब सवाल ही न हो तो फतवा कहां से आएगा. और अगर कोई अपनी राय ज़ाहिर कर रहा है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वैसा करना अब अनिवार्य है. राय है. उस राय को कोई दूसरा मौलवी अपने फतवे में इस्लामिक तर्क से नकार सकता है. हां जो शरिया कानून में उसे फॉलो करना होता है. लेकिन ये भी समाज विशेष की परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि किस तरह उसका पालन करना है. हां अगर फतवा या राय को ज़बरदस्ती लागू कराया जाता है. वो गलत है. क्योंकि इस्लाम जोर ज़बरदस्ती की इजाज़त खुद ही नहीं देता. ये फतवे का समर्थन करने वालों को भी समझ लेना चाहिए. जो ये समझ बैठते हैं कि मौलवी साहब ने कहा है तो मानना ही पड़ेगा. और हम उसे मनवाकर रहेंगे. मीडिया को भी ये ऐसे ही समझना चाहिए जैसे पैनल डिस्कशन में बैठे नेताओं की राय अलग-अलग होती है. मानना या न मानना एंकर के विवेक की बात है. मेरी भी अपनी राय है मेरे तर्कों के हिसाब से. आपकी भी होगी. न आप मुझपर थोप सकते हैं और न ही मैं आप पर. सिर्फ राय है जो दी जा सकती है. मानना न मानना एक दूसरे के हाथ में. और अगर मनवाने की जोर जबरी होती है तो वो अधिकारों का उल्लंघन है.
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