यूपी पुलिस ने CDR यानी 'कॉल डिटेल रिकॉर्ड' के आधार पर ये जानकारी दी है. इस स्टोरी में हम इसी पर बात करेंगे कि ये CDR क्या बला है. पुलिस या अन्य जांच एजेंसियां किसका, कब, क्यों कॉल डिटेल रिकॉर्ड निकलवा सकती हैं? इसके नियम क्या हैं?
CDR क्या है?
CDR यानी कॉल डिटेल रिकॉर्ड. CDR में क्या-क्या होता है? मोबाइल यूज़ करने वाले का नाम होता है. किसी व्यक्ति की CDR से पता चलता है कि उसने कितने कॉल किए. कितने कॉल रिसीव किए. किन नंबरों पर कॉल किया. किन नंबरों से कॉल रिसीव हुआ. कॉल की डेट, टाइम यानी कितने समय तक बात हुई. किन नंबरों पर मैसेज भेजे गए. किन नंबरों से मैसेज रिसीव हुए. इसकी भी डिटेल होती है.लेकिन इसका डेटा नहीं होता कि भेजे गए एसएमएस और रिसीव किए गए एसएमएस में क्या लिखा था. सबसे जरूरी बात ये कि CDR से ये भी पता चलता है कि कॉल कहां से की गई. यानी फोन करने वाले की लोकेशन क्या थी. जिसको कॉल किया गया है, उसकी लोकेशन क्या थी. कॉल कैसे कटी? नार्मल तरीके से या कॉल ड्राप हुआ?
हर कोई CDR हासिल कर सकता है?
कानूनी तौर पर तो बिल्कुल नहीं. सीबीआई, इनकम टैक्स डिपार्टमेंट, इंटेलिजेंस ब्यूरो, पुलिस, एनआईए, एटीएस, NCB और जितनी भी जांच एजेंसियां हैं, उन्हें किसी मामले की जांच के दौरान CDR की जानकारी जुटाने का अधिकार है. लेकिन इसके लिए भी अनुमति लेना जरूरी है. एक और चीज है. बात 2014 की है. बॉम्बे हाईकोर्ट ने Securities and Exchange Board of India यानी SEBI को CDR एक्सेस की अनुमति दी, ताकि मार्केट फ्रॉड की जांच हो सके. उसे रोका जा सके.नियम कहता है कि एसपी, डीसीपी रैंक का अधिकारी ही जांच में शामिल व्यक्ति की CDR के लिए मोबाइल नेटवर्क सर्विस देने वाली कंपनियों के नोडल ऑफिसर को लिख सकता है. जानकारी मांग सकता है. आम तौर पर जिन व्यक्तियों की CDR चाहिए होती है, उन नंबरों को पुलिस स्टेशन उन अधिकारियों को भेजता है, जिन्हें ये अधिकार मिला है कि वो CDR के लिए मोबाइल नेटवर्क सर्विस देने वाली कंपनियों को रिक्वेस्ट भेज सकें. जिन पुलिस अधिकारियों को ये अधिकार मिला है, वो इन नंबरों को संबंधित कंपनियों को मेल कर देते हैं.

लेकिन एक और बात है. देश में चलता है जुगाड़. इन्हीं जुगाड़ से कई लोग CDR पाने में कामयाब हो जाते हैं. जैसे डिडेक्टिव और अन्य लोग. इस तरह के मामलों में अक्सर पुलिस और मोबाइल कंपनियों की मिलीभगत की बात सामने आती है. होता क्या है कि वकील अपने केस को मजबूत करने चाहते हैं. कॉरपोरेट अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते हैं. बीमा कंपनिया बीमा के निपटारे के लिए उस व्यक्ति के बारे में जानकारी जुटानी चाहती हैं. ऐसे में यही लोग होते हैं CDR के 'ग्राहक'.
जांच एजेंसियों को CDR कब तक मिल जाता है?
अगर कोई गंभीर अपराध हुआ हो, जैसे मामला आतंकी गतिविधियों से संबंधित हो, किसी की हत्या हुई हो, रेप का मामला हो, आरोपी फरार हो, उसे तुरंत गिरफ्तार करने की जरूरत हो, तो मेल मिलने के बाद मोबाइल नेटवर्क सर्विस देने वाली कंपनियां आधे घंटे में CDR उपलब्ध करा देती हैं. सामान्य केस में दो हफ्ते तक का वक्त लग जाता है. आम तौर पर मोबाइल कंपनियां एक साल तक का CDR उपलब्ध कराती हैं. अगर इसके आगे सीडीआर की आवश्यकता होती है, तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से विशेष अनुमति लेनी होती है.कॉल डिटेल से एकदम सही लोकेशन पता चल जाती है?
आप जानते हैं कि एक होता है मोबाइल टावर. जब कॉल ड्रॉप होता है, तो गांवों में अक्सर सुनने को मिलता है कि टावर ही नहीं है. टावर कट गया. किसी व्यक्ति के मोबाइल की लोकेशन टावर से पता लगाई जाती है. CDR में मोबाइल नेटवर्क सर्विस देने वाली कंपनियां टावर के नंबर का जिक्र करती हैं. कॉल करते समय जिस टावर से उसे नेटवर्क मिला, उस टावर नंबर से लोकेशन का पता चलता है. एक मोबाइल टावर आमतौर पर 500 मीटर के रेडियस को कवर करता है. जीपीएस ऐप के जरिए उस 500 मीटर के दायरे में पुलिस कॉल करने वाले व्यक्ति का एग्जैक्ट लोकेशन का पता लगा लेती है.
क्या CDR कोर्ट में मान्य है?
एविडेंस ऐक्ट, 1872 की धारा- 65B के तहत इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है. लेकिन इसको एक हलफ़नामे के साथ पेश करना ज़रूरी है. इस हलफनामे में इस बात का ज़िक्र करना जरूरी है कि सबूत के साथ किसी भी तरह से छेड़छाड़ नहीं की गई है.क्रिमिनल लॉयर मनमोहन सिंह का कहना है कि कॉल डिटेल रिकॉर्ड कोर्ट में सबूत के तौर पर मान्य है, लेकिन इसकी एक प्रक्रिया है. दो चीजें होती हैं. एक होता है सबूत और एक होता है साबित. जांच अधिकारी एक नोटिस भेजता है, जिस भी कंपनी का मोबाइल नंबर होता है, उस कंपनी के पास. उसके नोटिस के जवाब में कॉल डिटेल रिकॉर्ड आता है. चूंकि ये इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में होता है, तो नोडल अधिकारी साइन करने के बाद उसे जांच अधिकारी को भेजेगा. अगर CDR को कोर्ट में सबूत के तौर पर पेश किया जा रहा है, तो टेलीकॉम कंपनी का नोडल ऑफिसर अटेस्ट करके देगा. चूकि ये इलेक्ट्रॉनिक रेकॉर्ड है, तो इसमें 65B के तहत हलफनामा लगेगा कि इसमें कोई चेंज नहीं किया गया है, ये ट्रू कॉपी है. नोडल ऑफिसर कोर्ट में आकर वेरिफाई करेगा. CDR डाउनलोड करने वाला अधिकारी कोर्ट में गवाही देगा. तभी ये मान्य होता है.
चलते-चलते
इसी साल मार्च के महीने में एक खबर आई थी. खबर ये थी कि दूरसंचार विभाग यानी Department of Telecommunications (DoT) देश के नागरिकों के कॉल डिटेल रिकॉर्ड यानी CDR इकट्ठा करना चाह रहा है. खबर थी कि केंद्र सरकार के तहत आने वाले दूरसंचार विभाग ने मोबाइल कंपनियों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वे जनवरी और फरवरी में कुछ तयशुदा समय का CDR अपने लोकल दूरसंचार विभाग को सौंपें. इस फैसले को लेकर टेलीकॉम कंपनियों ने आपत्ति दर्ज करवाई. कहा कि ऐसा करने का कोई नियम नहीं है और सरकार दबाव डाल रही है.
खबर आने के बाद विपक्ष ने 'राइट टू प्राइवेसी' का मुद्दा उठाया. कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को एक मूलभूत अधिकार ठहराया है. लेकिन सरकार एक ऐसा स्टेट बनाने जा रही है, जहां पर आम नागरिकों की प्राइवेसी खत्म हो गई है. सरकार ने सारे नागरिकों के कुछ कॉल डिटेल रिकॉर्ड सेलफोन कंपनी से मांगे हैं. विपक्ष ने पूछा कि इसका क्या औचित्य है? क्या बीजेपी की सरकार नियमों को तोड़ते हुए आम नागरिक के प्राइवेसी के ऊपर हमला कर रही है?
कहने का मतलब ये है कि हर किसी का CDR नहीं निकाला जा सकता. लेकिन क्रिमिनल ऑफेंस में यानी कोई अपराध हुआ है, तो सरकार के पास यह अधिकार है कि वो नियमों के तहत आरोपी की CDR निकाल सकती है. कोर्ट में उसे पेश कर सकती है.