लेकिन फिर क्या बात हुई कि ‘गोबर गैस’ के प्रति जागरूकता अभियान अपनी मंज़िल तक पहुंचने से पहले ही थक कर हांफने लगा है?
गोबर गैस प्लांट
बायोगैस कोई एक गैस नहीं, कई गैसों का मिश्रण होता है. ये गैसें तब बनती हैं जब कार्बनिक यौगिकों को हवा की अनुपस्थिति में फर्मनटेट किया जाता है. बायोगैस में जिन गैसों का मिश्रण होता है उनमें अन्य गैसों के अलावा मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और मीथेन (CH4) होती हैं.
मीथेन एक दहनशील गैस है. दहनशील मतलब मीथेन में आग लगाओ तो वो जलने लगती है. यूं मीथेन को ईंधन के लिए यूज़ किया जा सकता है.
'बायोगैस प्लांट' मने वो ताम-झाम जिससे घर में ही चूल्हे के लिए गैस बनाई जा सकती है. इसमें पांच पार्ट होते हैं –# बायोगैस प्लांट –
तस्वीर साभार - Biocyclopedia
# इनलेट - यहां से प्लांट में मानव या पशु अपशिष्ट और अन्य कार्बनिक पदार्थ प्रोसेसिंग के लिए डाले जाते हैं.
# फर्मनटेशन कक्ष – ये सारे कार्बनिक पदार्थ फर्मनटेशन कक्ष में सड़ाए जाते हैं.
# गैस – और इस फर्मनटेशन से बनती है गैस (या गैसों का मिश्रण).
# गैस भंडारण टैंक – अब ऐसा तो है नहीं कि इस गैस को तुरंत यूज़ कर लिया जाएगा. तो इसलिए, जब तक ये गैस यूज़ नहीं हो जाती इसे एक जगह स्टोर कर लिया जाता है.
# आउटलेट और
# निकास पाइप - जिसमें से गैस बहकर चूल्हे तक पहुंचती है.
आउटलेट से एक बाय-प्रोडक्ट निकलता है जो कई पोषक तत्वों से समृद्ध होता है और इसे मछली के चारे या खेतों में खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है. यानी गंदगी का कोई नाम-ओ-निशान नहीं.# कई और फायदे की बातें -
कार्बनिक कचरे और अपशिष्ट की ये प्रोसेसिंग पर्यावरण को साफ रखने में मदद करती है. सीवेज या खाद की कोई बुरी गंध नहीं रहती. बायोगैस से खाना पकाने पर लकड़ियों और उपले जलाने की तुलना में कहीं कम (बल्कि शून्य) धुआं और गंदगी फैलती है. यूं फेफड़े और आखें स्वस्थ रहती हैं.
भारत का बायोगैस प्रोग्राम दुनिया में सबसे पुराने बायोगैस प्रोग्राम्स में से एक है. इसे भारत सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त है और सब्सिडी का विकल्प भी है. भारत की केवल 2% ग्रामीण जनता बायोगैस का इस्तेमाल करती है. यूं न बायोगैस और न बायोगैस प्रोग्राम को ही सफल कहा जा सकता है.
बायोगैस और गोबर गैस की पूरी प्रक्रिया में कोई अंतर नहीं है. इसकी टेक्नोलॉजी में भी नहीं. बस एक छोटा सा अंतर है – बायोगैस बनाने में में जहां किसी भी कार्बनिक पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है वहीं गोबर गैस में केवल गाय के गोबर का इस्तेमाल होता है. इसलिए ही तो इसे गोबर गैस कहते हैं.# बायोगैस और गोबर गैस में क्या अंतर है?
और चूंकि ये अंतर बहुत छोटा है इसलिए कई बार आम बोलचाल की भाषा में बायोगैस को गोबर गैस कह लिया जाता है. और गोबर गैस को बायोगैस कहना तो वैज्ञानिक और तार्किक रूप से भी गलत नहीं है.
# गोबर आधारित बायोगैस प्रौद्योगिकी बहुत ज़्यादा खर्चीली है. 1 किलो उपलों (सूखे गोबर) से 4000 किलो कैलोरी के लगभग ऊर्जा मिलती है. वहीं इससे बनने वाली बायोगैस से केवल 200 किलो कैलोरी. यानी बीसवां अंश.# क्यूं बायोगैस और इसका प्रोग्राम भारत में असफल हुआ?
# उपले बेचे जा सकते हैं लेकिन गोबर गैस नहीं. घरेलू बायोगैस में प्रतिदिन 20 किलो गोबर का इस्तेमाल होता है. अगर इसे उपलों के रूप में बेचा जाए तो रोज़ पचास रुपए के लगभग मिल जाते हैं. ऊर्जा के सस्ते विकल्प होने के चलते रोज़ के 50 रुपए खाना बनाने के लिए कौन ही खर्च करेगा?
# एक घरेलू गोबर गैस प्लांट के लिए कम से कम 5-6 मवेशियों की ज़रूरत होती है. लेकिन अब इतनी आबादी एक घर में मिलना मुश्किल है. खासतौर पर तब, जब मवेशियों के बदले खेती-बाड़ी में मशीनें यूज़ होने लगी हैं.
# गोबर गैस को लगभग 40 लीटर पानी की ज़रूरत रोज़ पड़ती है. और भारत में पानी की कमी के बारे में क्या ही बोला जाए.
# उज्ज्वला जैसी योजनाओं के चलते अब ग्रामीण इलाकों में भी एलपीजी आसानी से उपलब्ध है. एक परिवार को रोज़ लगभग 500 ग्राम एलपीजी की जरूरत होती है जो गोबल गैस से आधे मूल्य में मिल जाती है. और एलपीजी के साथ इतना ज़्यादा ताम-झाम नहीं चाहिए होता
भारत सालों तक बायोगैस प्रौद्योगिकी का अग्रदूत रहा है लेकिन केवल पिछले एक दशक में चीन ने भारत को इस क्षेत्र में भी पीछे छोड़ दिया. आज से लगभग एक साल पहले ‘दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने, अर्थशास्त्री टी के मौलिक की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए ये बात बताई. यानी 'विज्ञान' नाम के धर्म में गोबर सबसे पवित्र और उपयोगी था. और भारत इसमें सबसे आगे भी था. अब चीन है!# चीन से तुलना -
ये रिपोर्ट आज की नहीं 1980 की थी. मने दिक्कतें तब से ही शुरू हो गई थीं.
जसभाई पटेल और टी के मौलिक की चीन भ्रमण के बाद बनी इस रिपोर्ट में और भी कई परेशान करने वाले आंकड़े हैं. एक बानगी डालिए -
# भारत के पास गोबर गैस डायजेस्टर प्रोग्राम को विकसित और क्रियान्वित करने का 30 वर्षों से अधिक का अनुभव है, अनुकूल वातावरण है. दुनिया की सबसे बड़ी मवेशी आबादी है. फिर भी भारत ने अब तक सिर्फ़ 70,000 डायजेस्टर (गोबर गैस प्लांट) बनाए हैं. इसमें से भी बीस प्रतिशत के लगभग तो बंद ही पड़े हैं.
बीजिंग का एक बायो गैस स्टोरेज
# भारत में जहां बायोगैस विकास कार्यक्रम अपनी पहल और रचना दोनों ही हिसाब से ‘एलीट’ था, वहीं चीन का कार्यक्रम गावों के स्तर के कहीं ज़्यादा अनुकूल था. यूं, जहां भारत तकनीकी रूप से और कुशल, और कुशल बायोगैस प्लांट बनाने के प्रयासों में लगा रहा, वहीं चीन के पास जो कुछ भी ज्ञान, तकनीक और संसाधन थे उसी को लेकर ज़्यादा से ज़्यादा बायोगैस प्लांट बनाने के कार्य युद्ध स्तर पर शुरू हो गए. और फिर जैसे-जैसे आय बढ़ी, बायोगैस को लेकर अनुभव बढ़ा वैसे-वैसे बायोगैस का परफॉरमेंस भी बढ़ता चला गया.
# परजीवियों का चीन में बहुत आंतक था, जिससे सूवरों से लेकर मनुष्यों तक बीमारी फैलती थी. लेकिन बायोगैस ने अपशिष्ट को काफी साफ़ और सुरक्षित तरीके हैंडल किया, और इसके चलते 90% से अधिक परजीवी अंडे मर गए.
बहरहाल इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत में ऊर्जा के इस स्रोत पर काम तो शुरू हुआ लेकिन ज़रा फिर से चाइना से तुलना करें तो -# अंततः -
# 1990 तक भारत में 12.3 लाख बायोगैस संयंत्र थे. 2012 तक आते-आते यह संख्या 45.4 लाख हो गई. लेकिन तब तक चीन में यह संख्या 2.7 करोड़ हो गई थी.
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