अभिजीत बनर्जी
क्या आप किसान कानूनों के जरिए लाए गए बदलावों के विरोधी हैं?
सबसे पहले तो मैं एक बात साफ कर दूं कि मैं बदलाव का बहुत बड़ा समर्थक हूं. खासतौर पर हम इस तरह कब तक MSP देकर ग्लोबल मार्केट से मुकाबला करेंगे. मैं पंजाब में धान उगाने को लेकर खड़ी हो रही परेशानी को भी समझता हूं. यहां पानी 100 से 120 मीटर नीचे है. पंजाब में धान उगाने का कोई मतलब नहीं है. उससे ठंड के मौसम में पराली की समस्या है. दिल्ली और उत्तर भारत में प्रदूषण बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है. ऐसे में सरकार के लिए बदलाव लाना जरूरी है. मैं समझता हूं कि बदलाव की जरूरत को किसान भी समझते हैं. मेरी समझ से यह कानून पूरी तरह से गलत नहीं हैं, लेकिन यह कुछ हिस्सों में दिक्कत भरा है. इसमें कुछ जरूरी बातें लापता हैं. दूसरी बड़ी समस्या इसकी टाइमिंग को लेकर है. महामारी से जीडीपी को बहुत बड़ा धक्का लगा है. ऐसा झटका कभी देखा नहीं गया. सब जानते हैं कि महामारी के बाद पहली तिमाही में जीडीपी में भारी गिरावट आई है. ऐसे में लोग पैनिक मोड में होते हैं. इस वक्त लोगों के बीच नए बदलावों को लेकर आना अच्छा आइडिया नहीं है.
ऐसे तो समय कभी भी अच्छा नहीं होगा. 1991 में मुश्किल था, फिर भी हमने ग्लोबल मार्केट खोला.
इस उदारण को हम यहां नहीं अपना सकते. इसमें दो बड़े अंतर हैं. 1991 के आर्थिक संकट से जिस वर्ग पर सीधा असर पड़ने वाला था, वह इतने निचले तबके के लोग नहीं थे. किसान कानूनों से कम कमाई वालों का बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित हो रहा है. सन 1991 के आर्थिक सुधारों का कोई विकल्प नहीं था. वह सुधार तो भारत को संकट से उबारने के लिए करने पड़े थे. अभी यहां पर ऐसा कुछ नहीं है. सरकार ने इस बड़े बदलाव के लिए इस वक्त को चुना है. इसलिए हम दोनों परिस्थितियों की तुलना नहीं कर सकते.
क्यों लगता है कि किसानों को नए कानून से नुकसान ही पहुंचेगा?
मैं अपनी बात में सुधार करना चाहता हूं. मैं कहूंगा कि किसान को लगता है कि उन्हें नुकसान होगा. इसके पीछे टाइम की बात है. यह बहुत डरावना समय है. यही वजह है कि मैं फैसला लेने की टाइमिंग पर सवाल उठा रहा हूं. सब बहुत डरे हुए हैं.
सिर्फ पंजाब-हरियाणा के किसान ही परेशान हैं, बाकी देश शांत है?
मैं नहीं कहता कि हर किसान इस कानून विरोध में है. लेकिन मुझे लगता है कि इस कानून में सेफगार्ड की कमी है. किसानों को लगता है कि बड़े बिजनेस ग्रुप आसपास के लोकल आढ़तियों को खत्म कर देंगे. पूरे मार्केट पर कब्जा कर लेंगे. इस डर को कानून में दूर नहीं किया गया है. यही कारण है कि किसान कहीं न कहीं डरा हुआ है. उनमें ये डर भी है कि कुछ कॉर्पोरेट इतने ताकतवर हो जाएंगे कि सरकार उनको रोक नहीं पाएगी.

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी के हिसाब से सरकार की किसान कानून लाने की टाइमिंग गलत है.
दूध भी तो आराम से नेस्ले जैसी प्राइवेट कंपनियां खरीद रही हैं, वहां तो ऐसा नहीं हुआ?
दूध के फील्ड में सरकारी कोऑपरेटिव भी खरीद कर रही हैं. अमूल खरीद कर रहा है. दूध बेचने वालों के पास एक विकल्प मौजूद है. इससे उन्हें सुरक्षा महसूस होती है. क्या सरकार बाकी किसानों और फसलों को बेचने पर सहकारी कोऑपरेटिव सोसाइटी की तरह का कुछ विकल्प देने जा रही है? अगर आप APMC मंडियों की बात करते हैं तो वो सिर्फ खरीद की एक लोकेशन भर हैं. वो भी प्राइवेट खरीदार ही हैं. अगर प्राइवेट मंडियां बढ़ेंगी तो उनके भी कंपीटीशन में खत्म हो जाने का डर है. दूध की खरीद में ऐसा डर नहीं है. वहां पर सीधा और मजबूत ऑप्शन मौजूद है. अगर कोई नेस्ले को दूध नहीं बेचना चाहता तो अमूल को बेच सकता है.
किसानों की फसल भी तो MSP पर खरीदी जा रही है?
लेकिन लोगों को इस बात का डर है कि MSP सिस्टम सर्वाइव नहीं करेगा. मेरे हिसाब से लोगों का यह डर गलत भी नहीं है. किसान भी APMC और MSP सिस्टम में बदलाव चाहते हैं. लेकिन उन्हें खतरा है कि नए कानून से APMC खत्म हो जाएंगी और मुश्किलें बढ़ेंगी. इसके साथ ही प्राइवेट कंपनियों की मनमानी बढ़ जाएगी.
सरकार लगातार कह रही है कि MSP बना रहेगा?
अगर सरकार इस बात का भरोसा दिला रही है तो फिर इस डर को दूर भी करना चाहिए. सरकार को इस डर से ही निपटने की जरूरत है. अगर पीएम बार-बार कह रहे हैं कि APMC और MSP पर फर्क नहीं पड़ेगा तो इस बात को लोगों तक पहुंचाएं. सरकार अपने लिए कुछ वक्त ले, और किसानों को वक्त दे. एक्सपर्ट्स की तरफ से प्रतिक्रिया आने दे. सरकार को किसानों के लिए प्रोटेक्शन मैकेनिज्म का इस्तेमाल करना चाहिए.
क्या 2 राज्यों के किसानों के कह देने भर से सरकार को ऐसा करना चाहिए?
मुझे लगता है कि एक समस्या इस बिल का केंद्रीकृत स्वरूप भी है. इसमें राज्यों को भी अधिकार मिलने चाहिए. कुछ प्रदेशों ने बदलाव किए हैं. मिसाल के तौर पर बिहार को ही लें. उसने इस तरह के बदलाव पहले ही कर लिए हैं. वह बदलाव पूरी तरह से फेल हुआ है. सिर्फ पंजाब-हरियाणा को ही नहीं देखना चाहिए. बाकी राज्यों को भी इस कानून में ज्यादा अधिकार होने चाहिए.
MSP को कानूनन कैसे बनाया जा सकता है, ऐसा करना व्यावहारिक है क्या?
मैं एक बात बिल्कुल साफ कर देना चाहता हूं. वर्ल्ड मार्केट के हिसाब से MSP को बरकरार रखना एकदम नामुमकिन है. MSP सिस्टम में बदलाव जरूरी हैं. बस मेरी दिक्कत वक्त को लेकर है. भारत के किसानों को भी दुनियाभर के किसानों के हिसाब से सेफ्टी मिलनी चाहिए. मेरे हिसाब से सरकार को फसल की लागत में कुछ एक्सट्रा मिलाकर देने का सिस्टम बनाना चाहिए. किसान बस अपनी फसल की सेफ्टी चाहता है. सब इस इंश्योरेंश का मामला है. MSP को हमेशा तो नहीं रखा जा सकता. लेकिन इसके लिए रास्ते निकालने जरूरी हैं. डायरेक्ट किसानों के खातों में एकमुश्त पैसा ट्रांसफर करना भी एक विकल्प हो सकता है.
अरविंद पनगढ़िया
टाइमिंग सही नहीं है?
जहां तक टाइमिंग की बात है तो किसी भी चीज की टाइमिंग पर सवाल उठाए जा सकते हैं. अभिजीत ने एक बड़े बदलाव लेबर लॉ पर सवाल नहीं उठाए. ये सुधार भी अभी पास हुए हैं. लेबर लॉ रिफॉर्म तो कई मायनों में किसान कानून से ज्यादा बड़े बदलाव हैं. वहां चूंकि प्रदर्शन नहीं हो रहे तो उस पर बात नहीं हो रही है. किसान कानूनों पर 2-3 साल पहले से चर्चा हो रही है. कानून में ऐसा कुछ भी नया नहीं हो रहा है कि डरने की जरूरत है. MSP से लेकर APMC सब कुछ बरकरार रखने का प्रावधान है. जो पहले से है, वह तो बना ही रहेगा, साथ में कुछ एडिशनल सुविधाएं दी गई हैं.
जिस तरीके से ये कानून लाया गया, वह गलत है?
ये बातें कानून लाने के बाद शुरू हुई हैं. किसान कानून तो ऑर्डिनेंस के जरिए जून में ही ला दिए गए थे. तब तो किसी ने टाइमिंग और तरीके पर सवाल नहीं उठाए. तब अभिजीत ने भी नहीं कहा कि वक्त गलत है. जब किसान संगठन सड़कों पर उतरे, तब लोग इसे गलत बताने लगे. संसद की स्टैडिंग कमेटी जिसमें विपक्ष के सांसद भी होते हैं, ने खुद ही कहा था कि APMC में दिक्कतें हैं. ये बदलाव स्टेट के लेवल पर पहले से ही किए जा रहे थे. बिहार में ऐसी व्यवस्था पहले से ही लागू है.
जल्दबाजी में लाया गया कानून है?
हम इसके बारे में लगातार पक्ष में या विरोध में तर्क दे सकते हैं. लेकिन गरीब किसान आखिर कब तक इंतजार करेगा. राज्यों के स्तर पर 70 साल में बहुत कम बदलाव हुए. बिहार जैसे राज्यों में पहले ही बदलाव हो चुका है.
बिहार मॉडल तो फेल है, उसे क्यों अपनाना?
मुझे तो डेटा देखकर यह नहीं लगता. मेरे पास जो डेटा है, उससे नहीं लगता कि बिहार में 2005 से अब तक किसानों के हालात खराब हुए हैं. इस बदलाव के बाद बिहार में किसानों की स्थिति बेहतर हुई है. किसानों की उपज भी बढ़ी है. मेरे पास मौजूद डेटा तो यही कह रहे हैं.

नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के अनुसार कृषि सुधारों के लिए ज्यादा इंतजार नहीं किया जा सकता. यह सही समय है.
आपके आंकड़ों के अनुसार बिहार में किसानों की उत्पादकता तो बढ़ी है लेकिन उन्हें MSP न मिल पाने की वजह से कमाई घटी है. अभिजीत यही तो कह रहे हैं कि रिस्क को किसानों के कंधों पर क्यों डाला जा रहा है.
मार्केट का रेट तो हमेशा MSP से नीचे ही रहेगा. इसका कुछ नहीं किया जा सकता. इस वजह से ही तो सरकार कह रही है कि MSP बना रहेगा. मैं ऐसे में अभिजीत के तर्क को दोनों हाथों में लड्डू जैसी बात कहूंगा. एक तरफ अभिजीत प्राइस सपोर्ट की बात करते हैं. मतलब एक ऐसा मॉडल जिसमें किसान को लागत से कुछ ज्यादा प्राइस सपोर्ट दिया जाए. इसके साथ ही वह MSP को खत्म करने की भी बात कर रहे हैं. यह एक सिस्टम हटाकर दूसरा लाने वाला तर्क है.
कानून में कई बातों में प्राइवेट कंपनियों की तरफ झुकाव है, मिसाल के तौर पर मंडी टैक्स
सरकार की मंशा पर आप सवाल उठा सकते हैं. आप यह भी कह सकते हैं कि सरकार भरोसेमंद नहीं है, लेकिन पीएम कह चुके हैं कि सब कुछ पहले की तरह बना रहेगा.
क्या सरकार को कुछ दिन के लिए कानून को सस्पेंड कर देना चाहिए?
यह एक राजनैतिक फैसला है. इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन क्या इससे समस्या खत्म हो जाएगी? मुझे नहीं लगता क्योंकि किसान कानून वापस लेने की बात कर रहे हैं. वह इस बात पर अड़े हैं. ऐसे में सिर्फ कुछ दिन सस्पेंड करने से कुछ बदल तो रहा नहीं है.
Jio और BSNL के उदाहरण का क्या किया जाए?
अरविंद पनगढ़िया
इस उदाहरण को आपने उल्टा समझा है. जियो के आने से तो कस्टमर को राहत ही मिली है. जियो के आने से न सिर्फ सर्विसेज सुधरी हैं बल्कि आम लोगों तक पहुंची भी हैं. कस्टमर रूपी किसान को तो फायदा ही रहेगा. जियो और बीएसएनएल की बात करना मेरे हिसाब से बेमायने है. मेरे हिसाब से प्राइवेट कंपनियों के हावी होने की बात निराधार है. सरकार कह रही है कि APMC और MSP रहेगी. MSP हमेशा ही मार्केट प्राइस से ज्यादा रहेगी. मैं इस लॉजिक को समझ नहीं पा रहा हूं. इसमें एक ही बात पर आप डर सकते हैं कि सरकार खरीद से ही हट जाए जो कि होता नहीं दिख रहा है.
अभिजीत बनर्जी
मेरे हिसाब से जियो और बीएसएनएल से ज्यादा इसे ऐमजॉन के मॉडल से समझना चाहिए. वह अपने खरीदारों के लिए तो बहुत लिबरल है लेकिन उसके प्लैटफॉर्म पर जो विक्रेता हैं, उन्हें लेकर वह खासा जालिम है. इस पर बहुत कुछ लिखा गया है. किसानों को उसी बात का ही डर है.
अरविंद पनगढ़िया
ऐमजॉन वाला उदाहरण भी गलत है क्योंकि ऐमजॉन के मुकाबले यहां पर APMC और MSP की सेफ्टी मौजूद है. यह उदाहरण भी किसानों के डर को समझाने में सफल नहीं कहा जा सकता.