The Lallantop

पुतिन-किम के मिलन से बाइडन का कुलबुलाना तो ठीक है, लेकिन शी जिनपिंग को क्यों टेंशन हो गई?

पुतिन और किम के इस ‘ब्रोमांस’ से पश्चिम के माथे पर शिकन पड़ रही है. ये तो अपेक्षित था. मगर अंदर की ख़बर है कि ये संबंध चीन को भी नहीं सुहा रहे. दूसरी बात, कि ये ब्रेमांस नहीं है. मतलब का रिश्ता है. दोनों का, दोनों से मतलब निकलता है.

post-main-image
पुतिन और किम जॉन्ग उन. (फ़ोटो - एजेंसी)

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन हाल ही में नॉर्थ कोरिया गए थे. सुबह-सुबह तीन बजे लैंड हुए, तो हवाई पट्टी पर नॉर्थ कोरिया के प्रमुख किम जोंग-उन ख़ुद रिसीव करने पहुंचे हुए थे. अपने तमाम अफ़सरान और लाव-लश्कर के साथ. हाथ मिलाया, गले लगाया, गार्ड ऑफ़ ऑनर से नवाज़ा. देश की राजधानी प्योंगयांग के बीच अपनी और राष्ट्रपति पुतिन की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगाईं. एक-दूसरे के लिए गाड़ी चलाई. जाते हुए पुतिन को भेंट स्वरूप दो कुत्ते दिए. संदेश फैला कि पुतिन और किम के इस ‘ब्रोमांस’ से पश्चिम के माथे पर शिकन पड़ रही है. ये तो अपेक्षित था. मगर अंदर की ख़बर है कि ये संबंध चीन को भी नहीं सुहा रहे. दूसरी बात, कि ये ब्रोमांस नहीं है. मतलब का रिश्ता है. दोनों का, दोनों से मतलब निकलता है.

इसीलिए आज समझेंगे: 

  • रूस और उत्तरी कोरिया के संबंध कैसे रहे हैं? 
  • इस नए याराने के क्या मायने हैं? 
  • दक्षिण कोरिया, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन इस मुलाक़ात में क्या जोख़िम देख रहे हैं? 
  • और, चीन की असहजता की वजह क्या है?
पुतिन गए क्यों थे?

जब से पुतिन रूस के प्रमुख पद पर हैं, तब से ये उनका पहला नॉर्थ कोरियन दौरा है. 24 साल में पहली बार. भव्य स्वागत हुआ. हवाई अड्डे पर गर्मजोशी के बाद सड़कों पर यही उत्साह दिखा. हज़ारों उत्तर कोरियाई लोगों ने सड़कों पर पुतिन के जयकारे लगाए.

बदले में पुतिन ने यूक्रेन में चल रहे युद्ध में उत्तर कोरिया को उनके निरंतर समर्थन के लिए शुक्रिया अदा किया. साथ ही ये भी कहा कि यात्रा के दौरान एक 'कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रैटजिक पार्टनरशिप' पर दस्तख़त कर सकते हैं. इससे ये संकेत निकला कि ये यात्रा केवल राजनयिक संबंधों को मज़बूत करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों देशों के फ़ायदे का सौदा है.

गले पुतिन और किम मिले, माथे पर बल बाइडन और जिनपिंग को पड़े.

क्या सौदे पर दस्तख़त हुए? हां. रूस की सरकारी मीडिया ने रिपोर्ट किया कि पुतिन ने किम से लगभग दो घंटे तक बात की और दोनों ने एक समझौते पर दस्तख़त किए. इसमें ये वचन दिया गया है कि रूस और उत्तर-कोरिया किसी भी देश के ख़िलाफ़ 'आक्रामकता' की स्थिति में एक-दूसरे की मदद करेंगे. माने लड़ाई में साथ रहेंगे. ये ‘मदद की कसम’ असल में अमेरिका के ख़िलाफ़ एक लॉन्ग-टर्म स्ट्रैटजिक पार्टनर्शिप की क़वायद है.

गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, नए समझौते में कई आर्थिक सपोर्ट और निवेश की भी बात है. पुतिन ने तो यही दावा किया कि शांतिपूर्ण समझौता है. वहीं, किम ने कहा कि इसने उनके संबंधों को एक नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है. उन्होंने दुनिया में सामरिक स्थिरता और संतुलन बनाए रखने के लिए रूस की ख़ूब तारीफ़ भी की.

ये भी पढ़ें - नॉर्थ कोरिया ने बटन दबाया तो मिसाइल कितने मिनट में अमेरिका पहुंच जाएगी?

रूस के पूर्ववर्ती सोवियत संघ ने सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद उत्तर कोरिया की नींव रखने में बहुत अहम भूमिका अदा की, और दशकों तक आर्थिक और सैन्य सपोर्ट दिया. सोवियत संघ के पतन के बाद दोनों के संबंधों में कुछ तनाव आया, लेकिन पुतिन के बाद संबंध वापस सुधरे. साल 2019 में पुतिन और किम जोंग उन के बीच एक शिखर सम्मेलन हुआ. 2023 में दोनों नेताओं ने मुलाक़ात की और एक साझेदारी समझौते पर साइन किया, जिसे कुछ लोग शीत युद्ध के बाद सबसे मज़बूत समझौता मानते हैं.

जब साल 2000 में पुतीन पहली बार उत्तर कोरिया गए थे. (फ़ोटो - AP)

लेकिन एक पेच और है. रूस का ‘सच्चा साथी’ दक्षिण कोरिया रहा है. पिछले कुछ सालों से दोनों देशों के बीच सालाना क़रीब 30 बिलियन डॉलर (ढाई लाख करोड़ रुपये) का कारोबार हो रहा है. चूंकि उत्तर कोरिया पर गंभीर प्रतिबंध लगे रहते हैं, सो वो कभी भी रूस के लिए आकर्षण नहीं रहा. यूक्रेन में युद्ध शुरू होने तक. उसके बाद हालात बदले.

नॉर्थ कोरिया यूक्रेन में रूस की कार्रवाई का मुखर समर्थक रहा है. उस पर रूस को हथियार सप्लाई करने के आरोप हैं. दोनों देश इसका खंडन करते हैं. रिपोर्ट्स हैं कि रूस उत्तर कोरिया को सैन्य सहायता और आर्थिक रियायतें देता है.

जियो-पॉलिटिक्स एक्सपर्ट का तो साफ़ कहना है, दोनों नेताओं को लगता है कि उन्हें एक दूसरे की ज़रूरत है. पुतिन को युद्ध जारी रखने के लिए गोला-बारूद चाहिए, वहीं उत्तर कोरिया को पैसों की ज़रूरत है.

किम और पुतिन ने बारी-बारी एक-दूसरे के लिए गाड़ी चलाई थी. (फ़ोटो - रॉयटर्स)

फिर दोनों देशों पर प्रतिबंध भी हैं. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) उत्तर कोरिया के ‘वेपन्स प्रोग्राम’ के चलते उन पर भारी प्रतिबंध लगाता है. रूस भी UNSC सदस्य है. और, यूक्रेन में अपनी आक्रामक ऑपरेशन की वजह से उस पर भी अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी प्रतिबंध लगाते हैं. उनके रिश्ते कितने घनिष्ठ हैं, ये साफ़ नहीं है. लेकिन दोनों पश्चिम के ख़िलाफ़ परचम तले तो हैं ही. 

चीन भौं क्यों चढ़ा रहा है?

ऐसी कुछ अटकलें हैं कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने इन दो सहयोगियों के क़रीब आने से बहुत सहज नहीं हैं. चीन की ब्यूरोक्रेसी भी इस दौरे को लेकर बहुत ख़ुश नहीं हैं. दरअसल, चीन पर पहले से ही अमेरिका और यूरोप का दबाव है कि वो रूस को अपना समर्थन देना बंद करे. ऐसे में शी जिनपिंग इन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. अंतरराष्ट्रीय राजनीति बूझने वाले कहते हैं कि चीन को वर्ल्ड लीडर बनना है और जैसे दुनिया को चीन के सामान चाहिए, वैसे ही चीन को ख़रीददार चाहिए.

माने इस ब्रोमांस में चीन का स्टेक है. चीन को इन दोनों देशों का क़रीबी माना-समझा जाता है, और मौक़े-मौक़े पर चीन इस बात को साबित करता है. ये दोनों भी चीन पर निर्भर हैं. भले ही चीन के साथ वो दोनों याचक हों. लेकिन चीन के बिना चलेगा नहीं. BBC की लौरा बिकर लिखती हैं,

पुतिन और किम जोंग, चीन की मदद से ही दोस्ती कर रहे हैं. इसलिए वे उसे नाराज़ नहीं करना चाहते, क्योंकि चीन दोनों देशों पर लगे पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच व्यापार और प्रभाव बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है.

भले पुतिन, किम के साथ अपनी गहरी दोस्ती की तारीफ़ कर रहो हों, लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि इसकी एक सीमा है. और ये सीमा कोई और नहीं, बल्कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग हैं... उन्हें ये एहसास हो सकता है कि चीन को नाराज़ करना फ़ायदे का सौदा नहीं है, क्योंकि तेल और गैस तो वहीं से ख़रीदना है.

वहीं, उत्तर कोरिया को चीन की और ज़्यादा ज़रूरत है. उत्तर कोरिया का क़रीब आधा तेल रूस से आता है और कम से कम 80% व्यापार चीन के साथ होता है.

स्काई न्यूज़ के संवाददाता निकोल जॉनसन भी लिखते हैं,

चीन उत्तर कोरिया के साथ एक लंबी सीमा साझा करता है. इस एकांत राज्य का मुख्य समर्थक रहा है और उत्तर कोरिया के 90% व्यापार में शामिल है. चीन नहीं चाहता कि रूस उत्तर-कोरिया में उसके पारंपरिक प्रभाव क्षेत्र में दखल दे.

अन्य विशेषज्ञ भी कहते हैं कि रूस और उत्तर कोरिया के बीच संबंध कैसा होगा, ये चीन ही तय करेगा. सियोल में कूकमिन विश्वविद्यालय के फ्योडोर टेरटिट्स्की तो कहते हैं कि ये द्विपक्षीय संबंध है ही नहीं, ‘बड़ा भाई’ हमेशा बीजिंग से देख रहा है. 

चीन दोनों तरफ़ से बैटिंग कर रहा है. उसका पहला हित तो यही है कि अमेरिकी-सहयोगी दक्षिण कोरिया के सामने उत्तर कोरिया को एक स्थिर बफ़र राज्य बना कर रखे. वहां की पॉलिटिक्स पर प्रभाव बना कर रखे. मगर रूस और उत्तर कोरिया के बीच घनिष्ठता इन हितों को ख़तरे में डाल सकती है.

अमेरिकी अफ़सरों का आरोप है कि उत्तर कोरिया ने सितंबर से अब तक रूस को हथियारों से भरे 11,000 कंटेनर भेजे हैं. तोप के गोले और बैलिस्टिक मिसाइलें, जिन्हें यूक्रेन में सैकड़ों मौतों का सबब बताया जाता है. बदले में रूस ने क्या दिया है, इस पर कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है. दक्षिण कोरिया की सरकार का अनुमान है कि पिछले सितंबर से अब तक रूस की तरफ़ से उत्तर कोरिया को कम से कम 9,000 कंटेनर भेजे गए हैं. और, इन कंटेनर्स में क्या है? आशंका के मुताबिक परमाणु-हथियारों के डिज़ाइन, इंटर-कॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलों की मशीनें, पनडुब्बियों और हाइपरसोनिक हथियारों से संबंधित तकनीक.

मगर द इकोनॉमिस्ट लिखता है कि ये साठ-गांठ केवल यूक्रेन युद्ध जितनी ही चलेगी. उससे आगे नहीं टिक सकती. 

वीडियो: दुनियादारी: युद्धविराम की किस शर्त पर नेतन्याहू हरगिज़ राज़ी नहीं?