हर शहर की अपनी तासीर होती है. लखनऊ की भी है. जिस जगह पहुंचते हैं, वहां गैरलखनवियों के जायके की किंवदंती बन चुके टुंडे कबाबी दुकान आती है. ये जगह हमेशा से टुंडे कबाबी के लिए मशहूर नहीं थी. किसी जमाने में ये जगह अपने कोठों और महंगी तवायफों के लिए जाना जाता था. लोग अलग-अलग वजहों से यहां आया करते थे. कुछ गाना सुनने, कुछ मुजरा देखने, कुछ तवायफों को निहारने और कुछ जिस्मानी जरूरतों को पूरा करने. इन सब चीजों के बीच था टुंडे कबाबी, जो उस समय लोगों के लिए पेट भराई का जरिया भर था.
क्या है अंगिया और नथ उतराई जिसके जरिए एक लड़की तवायफ बनती थी
एक लड़की के तवायफ बनने की यात्रा कई सारी रस्मों से होकर गुजरती थी. इनमें तीन बहुत ख़ास हैं. अंगिया, मिस्सी और नथ.

लखनऊ के चौक इलाके में जो इमारतें आज लगभग खंडहर बन चुकी हैं, वो हमेशा इतनी वीरान नहीं हुआ करती थीं. इतिहास की एक खिड़की इन रंग उड़ चुकी इमारतों की चटख कहानी तक लेकर जाती है. आपके सामने पेश है अवध की तवायफों के सुने-अनसुने किस्से. ये किस्से हमें मिले हैं असलम महमूद की किताब 'अवध सिम्फनी' से.
किस्सा शहर के बदनाम इलाके से आम तौर पर तवायफों को हम दो भागों में बांट सकते हैं. पहली वो जो खानदानी हुआ करती थीं. मतलब कि उनकी मां भी यही काम करती थीं. दूसरी जिन्हें अलग से इस काम में लाया गया होगा. मिर्जा हादी 'रुस्वा' के द्वारा मिथक में तब्दील कर दी गईं उमराव जान 'अदा' भी इसी तरह इस धंधे में आई थीं.आप चाहे कोठे में जिस भी तरह से पहुंचे हों, लेकिन आपको एक तय ट्रेनिंग से गुजरना होता था. जब लड़की छह साल की होती थी, तो उसको गाने और नाचने की तालीम दी जाती थी. घंटों का रियाज होता था. 2008 में सबा दीवान अपनी डॉक्युमेंट्री 'दी अदर सॉन्ग' के लिए रिसर्च कर रही थीं. इस दौरान उन्होंने पाया कि 20वीं सदी की ज्यादातर हिंदी गायिकाएं इन्ही कोठों से निकली थीं.

24 मई 2009 को इंडियन एक्सप्रेस में अमृता दत्ता का लेख छपा. लेख का नाम था 'फॉर दी रिकॉर्ड.' इस लेख में उन्होंने कोठे से निकली उन गायिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा है जो अब हमारी याददाश्त से बाहर हो चुकी हैं. लखनऊ में ही चूनेवाली हैदर, हस्सो, नन्ही बेगम, मुग़ल जान, बड़ी जद्दन जैसी कलाकार इन कोठों से निकली थीं. वो दौर ग्रामोफोन का दौर था. कलकत्ते की गौहर जान, लखनऊ की शमीम जान, जवाहर बाई, मोहम्मदी जान, वजीर जान, कानपुर की खुर्शीद जान ग्रामोफोन के बेसुरे से दिखने वाले भोंपू से अलग ही शमां बांधती थीं.
कहने का मतलब कि अगर हम कोठों को सिर्फ जिस्मफरोशी से जोड़ कर देखें तो ये नाइंसाफी होगी. ये नाइंसाफी होगी उस पूरे अदब के खिलाफ, जिसका गौमुख शहर की सबसे संदिग्ध इमारतें हुआ करती थीं.
एक लड़की का तवायफ बनना अवध के कोठों का इतिहास बहुत पुराना है और उतनी ही पुरानी हैं यहां की रवायतें. एक लड़की के तवायफ बनने की यात्रा कई सारी रस्मों से होकर गुजरती थी. इनमें तीन बहुत ख़ास हैं. अंगिया, मिस्सी और नथ.अंगिया जब लड़की बचपन से निकल कर किशोरवय में कदम रखती है, तो शरीर में कई सारे बदलाव आते हैं. मसलन उसकी छातियां बढ़ने लगती हैं. कोठे की तवायफें इकट्ठा होतीं और एक समारोह किया जाता. इसमें अंगिया पहनाई जाती. अंगिया शब्द का इस्तेमाल उस दौर में ब्रा के लिए होता था. ये किसी लड़की का तवायफ बनने की तरफ पहला कदम होता था.
मिस्सी हर दौर में सुंदरता के नए प्रतिमान गढ़े जाते हैं. आज हम उजले सफ़ेद दांतों को सुंदरता का प्रतीक मानते हैं. उस दौर में होठों पर कत्थे की सुर्खी और काले पड़ चुके दांत बेहतर समझे जाते थे. मिस्सी प्रथा में दरअसल दांतों और मसूड़ों को कृत्रिम रूप से काला किया जाता था. दांत काले करने के लिए एक खास किस्म का पाउडर काम में लाया जाता था, जो कि आयरन और कॉपर सल्फेट का बना होता था. ये कोठे का निजी समारोह था, जिसमें कोई भी बाहरी आदमी शामिल नहीं हो सकता था. कोठे की सबसे वरिष्ठ सदस्य इस काम को अंजाम देती थीं. मिस्सी के बाद नाच-गान और दावत होती थी. किसी लड़की के लिए मिस्सी हो जाने का मतलब था कि अब वो अपनी वर्जिनिटी यानी अपना कौमार्य बेचने के लिए तैयार है.
नथ उतराई जमाना बदल गया, लेकिन एक चीज नहीं बदली, पुरुष होने की कुंठा. तमाम पुरुषों में ये वाहियात धारणा होती थी, होती है कि एक कुंवारी लड़की के साथ सेक्स करना आपके 'मर्द' होने के अहसास में इजाफा करता है. बावजूद इसके कि पहली बार का सेक्स कतई आनंददायी नहीं होता. लेकिन इसे मर्दानगी के तमगे के तौर पर देखा जाता है. कोठे इस तमगे के बदले खूब पैसा पीटते थे. वर्जिन लड़की के लिए बोली लगाई जाती थी. बड़े-बड़े रईस इस बोली में बुलाए जाते थे.

इसे कोठे में उत्सव की तरह मनाया जाता. लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता. लड़की अपनी नाक में बाएं तरफ एक बड़ी सी नथ पहनती थी. ये नथ उसके कौमार्य का प्रतीक होती थी. जो सबसे बड़ी बोली लगाता, वो उस लड़की के साथ पहली रात होता. इस रात के बाद लड़की कभी भी नथ नहीं पहनती थी. अब उसके पास अपना अलग कमरा होता था. वो ग्राहकों के लिए सामान में तब्दील हो जाती. कई बार कोई अमीर या नवाब लड़की को हमेशा के लिए अपने खाते में रख लेता था. इसके लिए वो कोठे को माहवार एक रकम देता था. लेकिन हर लड़की की किस्मत ऐसी नहीं होती थी.
दोपहर बाद तवायफें नहाने जाती और घंटों लंबा श्रृंगार चलता था. शाम ढलने के समय वो बालकनी में जमा होना शुरू होती थीं. ये दुकान में लगी प्रदर्शनी जैसा था. अंधेरा होते ही कोठे गुलजार हो जाया करते. नाच और गाना शुरू होता और देर रात तक चलता रहता. इसके बाद तवायफें अपने ग्राहकों के साथ कमरों में चली जातीं.
भीतर की औरत अवध की औरतों के बारे में एक बात कही जाती थी कि उनकी जिंदगी चूल्हे, चद्दर और चारदीवारी तक सिमटी हुई है. एक पुरुष जब कोठे में आता तो उसे सेक्स का वो अनुभव चाहिए होता था, जो उसे घर पर हासिल नहीं होता था. अवध में उस समय तक एनल सेक्स, जेनिटल सेक्स सामान्य बात थी. ओरल सेक्स को लेकर एक नापसंदगी का भाव था. बहुत कम मौकों पर तवायफों को इससे गुजरना पड़ता था.
सेक्स एजुकेशन को लेकर हमारे देश में अजीब सी रूढ़ियां हैं. सेक्स एजुकेशन को लेकर उर्दू की पहली किताब मोहम्मद अली रूदालवी ने 1928 में लिखी थी. रूदालावी उस दौर के नामी लेखक हुआ करते थे. किताब का नाम था 'सलाहकार'. इसमें एक चैप्टर था, 'पर्दे की बातें.' इस चैप्टर में उन्होंने तुकबंदियों के जरिए अनचाहे गर्भ को रोकने के तरीके बताए हुए थे.
इस तरह से हम देखें तो तवायफों के पास ऐसी कोई किताब नहीं थी, जो उनके काम को बेहतर तरीके से करने के बारे में जानकारी दे सके. वात्सायन के कामसूत्र और कोका शास्त्र के भौंडे और भदेस संस्करण प्रचलित थे. मसलन 'लज्जत-ए निसा.'

फोटो: Tasveer Journal
इस काम में सबसे बड़ा रिस्क होता था अनचाहे गर्भ का. कॉन्डम भारत में 1930 में उपलब्ध हो गए थे. लेकिन उस समय उनका इतना प्रचलन नहीं हुआ था. ऐसे में तवायफों के पास अनचाहे गर्भ से बचने के तीन रास्ते हुआ करते थे. विद्ड्रॉल तकनीक जिसमें पुरुष स्खलित होने से पहले लिंग बाहर निकल लेता था. दूसरा था रिदम, जिसमें तवायफें उन दिनों में सेक्स करने से बचती थीं जिनमें गर्भ ठहरने का खतरा हो. तीसरा था गर्भपात. यह किसी दाई के जरिए अंजाम दिया जाता था.
शारीरिक संबंध बनाना उनके काम का हिस्सा हुआ करता था. इसकी वजह से उन्हें लगातार यौन संक्रामक रोगों के खतरे से दो-चार होना पड़ता था. माहवारी को लेकर भी कोई ख़ास सावधानी उस दौर में नहीं बरती जाती थी. सेनेटरी नैपकिन की जगह सूती कपड़े का इस्तेमाल किया जाता था, जिसे हैज़ का लत्ता या फिर हैज़ की गद्दी कहा जाता था.
अमीरजादे यहां तहजीब सीखने के लिए भेजे जाते थेहालांकि तवायफें आखर ज्ञान से आगे उर्दू की पढ़ाई नहीं करती थीं लेकिन गाने की तालीम के दौरान उस्ताद उनके नुक्ते और काफ़ एकदम दुरुस्त रखते थे. बचपन से मिली इस ट्रेनिंग की वजह से उनके भीतर भाषा के संस्कार बहुत मजबूत होते थे. कोठे पर आने लोग कथित कुलीन समाज से आते थे. लोगों के साथ अदब से पेश आना भी उनकी ट्रेनिंग का हिस्सा हुआ करता था.
अमीर घरों के नौजवान लड़कों को उनके पिता कोठे पर अदब सीखने के लिए भेजा करते थे. यहां इन नौजवानों के लिए एक ख़ास हद थी. उन्हें किसी भी तवायफ के साथ हमबिस्तर होने की इजाजत नहीं हुआ करती थी.
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