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टिंबकटू, एक ऐसा शहर जिसका राजा जहां से भी गुजरता, वहां सोने की कीमत गिर जाती थी

300 साल तक फलता-फूलता प्राचीन शहर Timbuktu, एक दिन रेत की चादर के नीचे दफ्न हो गया. आखिर यहां की किताबों में क्या खास था, जिन्हें सोने में तौला जाता था? इसका खजाना कहां गया? साथ में जानें यहां के राजा की चर्चित कहानियां.

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टिंबकटू की अथाह दौलत के बारे में खूब बातें चलती थीं (PHOTO- X Grok AI/Meta AI)

कहानी शुरू होने से पहले होश नोमानी रामपुरी का ये शेर सुनिए - ‘जिस्म तो ख़ाक है और ख़ाक में मिल जाएगा, मैं बहर-हाल किताबों में मिलूंगा तुम को.’ आज की हमारी कहानी भी ख़ाक और किताबों से जुड़ी है. अफ्रीका का सहारा रेगिस्तान. 94 लाख स्क्वायर किलोमीटर में फैला रेत का समंदर. जो बड़े-बड़े शहरों को निगल गया. यहीं रात के सन्नाटे में कुछ लोग बक्सा लिए एक सुनसान गुफा की तरफ बढ़ रहे थे. बक्से में एक खास खजाना था. जिसे वो अपनी जान पर खेलकर, सुरक्षित कर रहे थे. आखिर वो गुफा तक पहुंचते हैं. और बक्से को छिपा देते हैं. लेकिन इस बक्से में सोना-चांदी या जवाहरात नहीं थे. इनमें थी किताबें. किताबें जिनमें छिपे थे कई राज. जिनकी कीमत सोने से तौली जाती थी. ये थीं प्राचीन शहर टिंबकटू की खास किताबें.

टिंबकटू का नाम सुनकर दिमाग में क्या आता है. एक आध गाने में इसका जिक्र. हॉलीवुड फिल्मों की हिंदी डबिंग के जुमलों में भी टिंबकटू खूब सुनाई देता है. नाम ऐसा है कि इसके साथ मसखरी को ही जोड़ा जाता है. टिंबकटू शब्द अपने आप में एक जुमला सा लगता है. पर अगर हम आपको बताएं. टिंबकटू एक प्राचीन शहर था. या कहें दुनिया के सबसे समृद्ध शहरों में था जहां किताबों का खास महत्व था. इतना कि दहेज में किताबें दी जाती थीं. इसे लेकर सूडान में एक कहावत भी थी, 

"नमक उत्तर से आता है. सोना दक्षिण से, लेकिन ज्ञान का खजाना केवल टिंबकटू में मिलता है." 

लेकिन 300 साल तक फलता-फूलता ये प्राचीन शहर, एक दिन रेत की चादर के नीचे दफ्न हो गया. तो समझते हैं कहां गया प्राचीन टिंबकटू शहर. आखिर यहां की किताबों में क्या खास था, जिन्हें सोने में तौला जाता था? और यहां की लाइब्रेरी को किसने तबाह किया? अफ्रीका में नाइजर नदी से कुछ दूर (Niger river). रेगिस्तान के गर्भ में बसा, नमक और गुलामों के व्यापार से जुड़ा एक शहर आखिर ज्ञान का केंद्र कैसे बना? यूरोपियन स्कॉलर्स को टक्कर देने वाला. जहां भारत समेत तमाम देशों से किताबों को जमा किया गया था. जानते हैं ये शहर कैसे बसा? कैसे बेहद अमीर बना? आखिर यहां की किताबों को क्यों तबाह किया गया. सब जानते हैं, एक-एक करके टिंबकटू की कहानी में.

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1830 के टिंबकटु का स्केच (PHOTO-Wikipedia)

आज के माली में मौजूद प्राचीन टिम्बकटू शहर, नाइजर नदी से कुछ 20 किलोमीटर दूर मौजूद था. जिसे तुआरेग कबीलाई लोगों ने बसाया था. मान्यताओं के मुताबिक, टिंबकटू का नाम एक बूढ़ी महिला के नाम पर पड़ा. जिसे तुआरेग लोग यहां एक कैंप की निगरानी के लिए छोड़ गए थे. महिला के अलग-अलग नाम बताए जाते हैं. मसलन, टॉमबुअटु, टिंबकटु, या बक्टु. इसके माने बताए जाते हैं, बड़ी कमर वाली महिला. एक धड़ा मानता है कि इन्हीं पर टिंबकटू का नाम पड़ा. खैर शहर का नाम कैसे भी पड़ा हो. शुरुआत में तो यहां बसावट और इंसानी बस्ती भर थी, ना कि कोई विशाल शहर.

लेकिन ईसा से कुछ 1100 साल बाद. व्यापार के दो अहम रास्तों के बीच होने के चलते. यह बेहद अमीर हो गया. एक तरफ था, अफ्रीकी महाद्वीप के दुर्गम इलाकों से सोना लाने वाला रास्ता, जो कि नमक का कारोबार करने वाले रास्ते से टिंबकटू में मिलता था. यहां कई कारवां के लाए सोने और नमक की अदला-बदली होती. वहीं गुलाम और हाथी दांंत जैसी चीजें भी बेची जातीं. जिसके चलते साल 1300 तक टिंबकटू में खूब पैसा आने लगा. यहां तक कि यूरोप में अफवाह फैलने लगी कि टिंबकू में अथाह दौलत है.

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टिंबकटू के बारे में खूब अफवाह उड़ने लगी (PHOTO-Meta AI)

इससे जुड़ी एक कहानी माली के राजा मंसा मूसा की भी चलती है. कहा जाता है कि साल 1324 में वो मक्का की यात्रा पर गया. उसके साथ करीब 60 हजार गुलाम थे. नौकर-चाकर थे. और इतना सोना था कि इस दौरान मिस्र के काइरो में सोने की कीमत गिर गई. जैसा कि हम जानते हैं, अगर कोई चीज कहीं बहुत मात्रा में मिलने लगे तो उसकी कीमत गिर जाती है.  

अरब खोजी यात्री इब्न बतूता जब गधे पर सवार होकर दुनिया की यात्रा पर निकला. तब उसने भी इस शहर का दीदार किया. बतूता ने इस शहर का ऐसा बखान किया कि यूरोपीय उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे. एक तरफ जहां यूरोपीय लोग बर्फ, ठंड और प्लेग से जूझ रहे थे, वो सोने से लदी टिंबकटू की गलियों की सिर्फ कल्पना ही कर सकते थे. दक्षिण सहारा में छिपा ये शहर, किसी सपने से कम नहीं था. लेकिन सोने से ज्यादा इसे पहचान किताबों ने दी. वो सिलसिला ऐसे शुरू होता है. 

दौलत आने के बाद माली के राजाओं ने यहां तमाम शिक्षा के केंद्र बनवाए. मंसा मूसा के शासन में यहां कई इमारतें बनवाई गईं. शिक्षा के केंद्र बनवाए गए. माना जाता है कि दजिंगुरेबेर और संकोर मस्जिद भी इसी वक्त बनी. ये मस्जिदें ईंटों और मिट्टी से बनी थीं और अपने समय में कुछ 25 हजार लोग यहां तालीम लेते थे जिसके बाद ये शहर इस्लामिक शिक्षाओं और संस्कृति का बड़ा केंद्र बना. यहां दुनिया भर के विद्वान आते थे. हालांकि यहां का स्वर्णिम काल सांगई साम्राज्य के समय में आया. शिक्षा शहर के केंद्र में आ गई. इस्लामिक शिक्षा से इतर यहां खगोल, गणित, चिकित्सा और कानून की भी पढ़ाई होती थी. शिक्षा के मामले में ये शहर काफी सेक्युलर था.

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टिंबकटू में पुस्तकों का खजाना था (PHOTO- X Grok AI)

वेनिस से यहां कागज आता. जिसमें यहां के स्थानीय पौधों और मिनरल्स का इस्तेमाल करके अरबी और स्थानीय भाषाओं में तमाम विषयों पर लिखा जाता. जिनमें ग्रहों की गति से लेकर दर्शनशास्त्र और काव्य की बातें शामिल थीं. धीरे-धीरे यहां ज्ञान का भंडार होने लगा. किताबों को यहां के लोग खासा महत्व देते थे. कहानियां यहां तक चलती हैं कि यहां किताबें पैसे की तरह भी इस्तेमाल की जाती थीं. सोने में तोली जाती थीं. किसी परिवार की रईसी उसकी किताबों और लाइब्रेरी से मापी जाती थी. वहीं दहेज में किताबों का लेन-देन होता था. सुंदर कैलीग्राफी और डिजाइन्स से सजी ये किताबें. दुनिया भर के रईसों में खासी मांग रखती थीं.

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टिंबकटू की पांडुलिपियां (PHOTO-Wikipedia)

यहीं एक जाने-माने विद्वान थे अहमद बाबा. जो यहां के सबसे जाने-माने विद्वानों में से थे. सूडान का गर्व कहे जाने वाले अहमद बेहतरीन लेखक थे. इन्होंने कुछ 40 किताबें लिखीं. माना जाता है कि इनकी खुद की लाइब्रेरी में हजारों किताबें थीं. बता दें ये वो दौर था जब औसत यूरोपीय 100 से ज्यादा किताबें रखने की कल्पना करने से भी डरता था. बाद में टिंबकटू में इनके नाम से एक लाइब्रेरी भी बनाई गई जिसे अहमद बाबा इंस्टीट्यूट नाम दिया गया. इसके बाद यहां हमलावरों और चोरों से कुल मिलाकर कुछ 18,000 प्राचीन पांड़ुलिपिया बच पाईं, जिन्हें संजो कर रखा गया. लेकिन फिर एक समय में ज्ञान के स्वर्णिम केंद्र का पतन हुआ. जिसमें बड़ी संख्या में किताबें खो गईं.

Ahmed Baba Institute
अहमद बाबा इंस्टीट्यूट (PHOTO-Wikipedia)
पतन

साल 1591 में मोरक्को की सेनाओं ने टिंबकटू पर हमला किया और इसे कब्जे में ले लिया. मोरक्को की फौज ने अहमद बाबा समेत तमाम विद्वानों को कैद कर लिया. उनकी लाइब्रेरीज को तबाह कर दिया. आगे के सालों में ऐसे कई हमलों का शिकार ये शहर हुआ. इतिहासकार एलिजाबेथ कॉक्स बताती हैं कि 18वीं सदी में यहां सूफीवादियों का कब्जा हुआ जिन्होंने तमाम गैर मजहबी किताबों को जलाया और तबाह किया. 

इसके बाद 1894 फ्रेंच यहां कब्जा करते हैं. लाखों पांडुलिपियां और किताबें चुरा ली जाती हैं. फ्रेंच यहां की आधिकारिक भाषा बन जाती है. आने वाली पीढ़ी यहां की प्राचीन किताबों को पढ़ने तक से वंचित रह जाती है. हालांकि पढ़ने की परंपरा यहां के कई परिवार तब भी नहीं भूले. कुछ परिवारों ने खुफिया लाइब्रेरी बनाईं या फिर किताबें छिपा दीं. आम नागरिकों ने सदियों तक इनकी रक्षा की. यहां तक कि गरीबी और भुखमरी में भी लोगों ने किताबों का सौदा नहीं किया. वहीं सालों तक आम लोगों ने इस छिपे खजाने की सुरक्षा की. पर समय के साथ या तो ये मौसम की मार के चलते तबाह हो गईं, या फिर ये उस दौर की तमाम कहानियों और ज्ञान को अपने गर्भ में छिपाए आज भी गुफाओं और जमीन के नीचे खोजे जाने के इंतजार में दबी हैं. 

वीडियो: तारीख: कहानी उस शहर की जिसे रेगिस्तान निगल गया