भारत के परमाणु कार्यक्रम का ज़िक्र होते ही एक विषय दबे पांव चला आता है कि इसका श्रेय किस प्रधानमंत्री के खाते में लिखा जाए. तवज्जो अटल बिहारी वाजपेयी को ज़्यादा दी जाए या पीवी नरसिम्हा राव को. विषय रोचक है, पर इस पर बात करने से पहले इस पर सहमति बना लेनी चाहिए कि मुल्क किसी एक निज़ाम के बूते यहां तक नहीं पहुंचा है. किसी भी प्रधानमंत्री का योगदान और उसकी क्षमता कम-ज़्यादा हो सकती है, पर योगदान रहा सबका है.
नरसिम्हा राव और अटल के बीच ये बात न हुई होती, तो भारत परमाणु राष्ट्र न बन पाता
1996 में जब अटल पीएम बने, तो पूर्व पीएम नरसिम्हा राव कलाम के साथ अटल से मिलने गए थे.
कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब पूर्ण विराम के साथ नहीं, विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ मिलते हैं. प्रधानमंत्री का श्रेय वाला सवाल भी ऐसा ही है. इसका विस्मयादिबोधक चिन्ह वाला जवाब हमें 2004 के अटल बिहारी वाजपेयी के उस वक्तव्य से मिलता है, जो उन्होंने नरसिम्हा राव के श्रद्धांजलि समारोह में दिया था.
राव का देहांत 23 दिसंबर 2004 को हुआ था. 9 दिसंबर को उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, जिसके बाद 14 दिनों तक वो AIIMS में भर्ती रहे. उनके अंतिम संस्कार से दो दिन बाद रखी गई श्रद्धांजलि सभा में अटल ने कहा, 'मई 1996 में जब मैंने राव के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली, तो उन्होंने मुझे बताया था कि बम तैयार है. मैंने तो सिर्फ विस्फोट किया है.' राव ने अटल से कहा था,
'सामग्री तैयार है. तुम आगे बढ़ सकते हो.'
असल में राव दिसंबर 1995 में परीक्षण की तैयारी कर चुके थे, लेकिन तब उन्हें किसी वजह से अपना मंसूबा मुल्तवी करना पड़ा. इसके पीछे कई थ्योरी गिनाई जाती हैं. लेकिन, एक किस्सा ये भी है कि राव की मौत से कुछ महीने पहले जब पत्रकार शेखर गुप्ता उनका इंटरव्यू ले रहे थे और उन्होंने पूछा कि आखिर राव क्यों परमाणु परीक्षण नहीं कर पाए, तो राव ने अपना पेट पर थपकी मारते हुए कहा,
'अरे भाई, कुछ राज़ मेरी चिता के साथ भी तो चले जाने दो.'
विनय सीतापति अपनी किताब 'हाफ लॉयन' में इस किस्से का ज़िक्र करते हुए वो तीन थ्योरी बताते हैं, जो राव के परीक्षण रोकने की वजह बताई जाती हैं.
विनय सीतापति की किताब हाफ लॉयन
पहली थ्योरी: राव ने दिसंबर 1995 में परमाणु परीक्षण की योजना बनाई थी, लेकिन अमेरिकी सैटेलाइट ने पोखरण की गतिविधियां पकड़ लीं और अमेरिका के दबाव में राव को अपनी योजना आगे बढ़ानी पड़ी. भारत के प्रोग्राम पर परमाणु विशेषज्ञ जॉर्ज परकोविच की किताब भी इसी थ्योरी की तरफ इशारा करती है. लेकिन इसमें एक छेद नज़र आता है कि अगर राव दिसंबर 1995 में अमेरिका के दबाव में पीछे हट गए, तो वो दो महीने बाद ही परीक्षण के लिए दोबारा कैसे तैयार हो गए थे. ज़ाहिर है, दिसंबर 1995 से अप्रैल 1996 के बीच अमेरिकी दबाव और प्रतिबंधों में कोई अंतर तो आया नहीं होगा.
पोखरण में परीक्षण की तैयारी की एक तस्वीर
दूसरी थ्योरी: इसके मुताबिक राव ने दिसंबर 1995 में परीक्षण की योजना कभी बनाई ही नहीं थी और अमेरिकियों को गलतफहमी हो गई थी. परमाणु कार्यक्रम पर लिखी अपनी किताब में पत्रकार राज चेंगप्पा इस बात पर ज़ोर देते हैं कि राव ने कभी परीक्षण को हरी झंडी दी ही नहीं थी. लेकिन इस थ्योरी में ये छेद नज़र आता है कि अगर राव टेस्ट के पक्ष में नहीं थे, तो उन्होंने दिसंबर 1995 से पहले वैज्ञानिकों को अलग-अलग मियाद पर आगे बढ़ने की इजाज़त क्यों दी.
तीसरी थ्योरी: इसके मुताबिक राव जानते थे कि भारत पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लदने से पहले उनके पास परीक्षण का सिर्फ एक ही मौका था. ऐसे में वो दिसंबर 1995 में परमाणु बम और फिर अप्रैल 1996 में हाइड्रोजन बम का अलग-अलग परीक्षण नहीं कर सकते थे. शेखर गुप्ता के मुताबिक 1995 के आखिर में वैज्ञानिकों ने राव को बताया कि उन्हें पूरी तरह तैयार होने के लिए 6 महीने का वक्त और चाहिए. ऐसे में उन्होंने जानबूझकर ढेर सारे लोगों को प्रॉजेक्ट के बारे में बता दिया, जिससे जानकारी ली हो गई. राव की मंशा के तहत ही अमेरिकी पोखरण की गतिविधियां पकड़ पाए और फिर राव ने परीक्षण को रोकने का आदेश दे दिया.
भारत को परमाणु राष्ट्र बनाने में इन तीन लोगों का बड़ा योगदान है. डॉ. अब्दुल कलाम, आर. चिदंबरम और के. संथानम (दाएं से बाएं)
ये थ्योरी कयास लगाती हैं, पर एक सच्चाई ये है कि 16 मई 1996 को जब अटल बिहारी राव की जगह प्रधानमंत्री बने, तो राव परमाणु कार्यक्रम के वैज्ञानिकों अब्दुल कलाम और चिदंबरम के साथ अटल से मिलने गए थे. ये कवायद प्रोग्राम को आसानी से टेकओवर करने के लिए थी.
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट दावा करती है कि बहुत ही कम लोग इस बात को जानते हैं कि 1996 की अपनी 13 दिनों की सरकार में अटल ने जो इकलौता फैसला किया था, वो परमाणु कार्यक्रम को हरी झंडी देने का था. लेकिन जब उन्हें लगा कि उनकी सरकार स्थिर नहीं है, तो उन्होंने ये फैसला रद्द कर दिया.
8 मई की रात पोखरण में कुएं में उतारा जा रहा एक उपकरण.
इन सारी घटनाओं से एक बात तो तय है कि राव और अटल, दोनों ही परमाणु कार्यक्रम को लेकर गंभीर थे और हर हाल में परीक्षण करना चाहते थे. राव ने अपने कार्यकाल में वैज्ञानिकों को सुविधाएं मुहैया कराते हुए एक मज़बूत प्लेटफॉर्म तैयार किया. फिर 1998 में जब देश को स्थिर सरकार मिली, तो अटल ने परीक्षण में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उनकी सरकार नई थी. उनके नए-नवेले रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस चीन पर दिए अपने बयान की वजह से घिरे हुए थे. NDA में हिस्सेदार जयललिता अटल सरकार की नाक में दम किए हुए थीं.
इन सारे हालात के बीच 11 मई 1998 को अटल ने दिल्ली में प्रधानमंत्री के सरकारी आवास से घोषणा की कि भारत ने पोखरण में सफल परमाणु परीक्षण कर लिया है.
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