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एक्टर, जिसके मां-बाप चाहते थे, बेटा पान की दुकान खोल ले

मानव कौल सिर्फ एक्टिंग ही नहीं करते. कहानियां भी लिखते हैं. पढ़िए उनकी एक लव स्टोरी

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Manav Kaul and Prakash Jha on the Sets of Jai Gangajal
चार बार से बांकेपुर के विधायक हैं वो, पांचवीं बार, छठवीं बार, सातवीं बार, आठवीं बार आजीवन वही रहेंगे बांकेपुर के विधायक. ये मानव कौल हैं. जय गंगाजल के ट्रेलर में आपने इन्हें देखा होगा. हॉकी से पुलिस वाले को पीटते दिखते हैं. फिर वो मानव कौल भी याद आते हैं, जो 'वजीर' में मंत्री बने थे, या 'काई पो चे' के बिट्टू मामा. कम जानेंगे तो मानव कौल विलेन हैं, जिनको देख डर लगता है. हम तो ऐसे ही न जानते हैं मानव कौल को.
फिर दूसरे मानव कौल भी हैं. जिन्हें 1990 के दौर में हिंसा के कारण कश्मीर छोड़कर होशंगाबाद आना पड़ा. घर वाले चाहते थे वो पान की दुकान खोल लें. पर मानव होशंगाबाद में नहीं भोपाल में अटते हैं. यहां से ये वो मानव हैं,  जिनके लिए क्रिएटिविटी एक्शन नहीं रिएक्शन है. अच्छी-सी कविता लिखते हैं, फिर खुश होकर चाय बनाते हैं, अच्छी कविता को सेलिब्रेट करते हैं. जो लिखते हैं.
उनकी नई किताब आई है. ठीक तुम्हारे पीछे.  किस्सों की किताब है. हिंद युग्म ने छापी है. उसका एक किस्सा पढ़वाते हैं आपको.
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वह फिर वहीं बैठी थी। उसी पार्क की उसी बेंच पे। उसका हाथ उदय के हाथ में था। होंठ कभी तन जाते तो कभी ढीले पड़ जाते। आँखों के निचले हिस्से में पानी भर आया था। बाक़ी आँखें सूखी पड़ी थीं। इस अजीब स्थिति के कारण उसका बार-बार पलक झपकने का मन करता पर पानी छलकने के डर से वो उन्हें झपक नहीं पा रही थी। सो, पलकों का सारा तनाव उसकी आँखों के नीचे पड़े गहरे, काले गड्ढों से सरकता हुआ होंठों तक आ गया था। सो, होंठ कभी तन जाते कभी ढ़ीले पड़ जाते। चेहरे के इतने तनाव में होने के बावजूद, कान असामान्य रुप से शांत थे क्योंकि वो उदय की गोल-मोल बातों के आदी हो चुके थे। बाक़ी पूरा शरीर छूट के भाग जाने की ज़िद पर अड़ा था। सो, असामान्य रुप से ढीला पड़ा हुआ था।
इति की निग़ाह अचानक उदय के हाथों पर पड़ी। इन सबमें उदय की एक चीज़ जो इति को शुरू से अच्छी लगती है, वो हैं उदय के हाथ। जो आज भी वैसे-के-वैसे ही हैं। उसकी वो नर्म-गर्म लंबी उँगलियाँ, मखमली हथेली। इति के साथ इन सालों की यात्रा में उदय के हाथ वहीं के थे। उन्हीं पुराने सालों के, जिन सालों में इति इस संबंध को जीने के कारणों को बटोरा करती थी। कारण आज भी पूरे नहीं पड़ते। ये संबंध पहले भी अमान्य था, आज भी अमान्य है। अब इतने साल गुज़र जाने के बाद, इसमें संबंध जैसा भी कुछ नहीं रहा है। यह एक बीमारी हो गया है। जिसका इलाज इति उदय की हर मुलाक़ात के बाद ढूँढ़ने में लग जाती है।
उदय के साथ सोये हुए भी इति को अब साल होने को आया है। यहाँ ‘उदय अब हम इसी पार्क में मिला करेंगें’ इस बात की घोषणा इति ने ही की थी। इति को इस लंबी चली आ रही बीमारी में यह हल्की-सी राहत देती थी।
‘मैं लेखक हूँ’ ये उदय शुरू से मानता रहा है। वो कभी भी अपना construction का काम छोड़कर सालों से अधूरा पड़ा उपन्यास लिखना शुरू कर देगा। इति ने तो अब उपन्यास का ज़िक्र करना भी बंद कर दिया है। पहले वह उदय को डरपोक, compromising वगैरह बोलती थी, पर अब वह बस उदय की तरफ एक बार देखती है और उदय बात पलट चुका होता है। “मिली तुम्हारे बारे में पूछ रही थी। एक दिन घर मिलने आ जाओ।” अपनी बहुत सारी बातों के बीच में ही कहीं उदय ने अचानक अपनी बेटी का ज़िक्र छेड़ दिया। “और जिया?” इति ने सीधे उदय की आँखों में देखते हुए पूछा था। जिया उदय की पत्नी है। “उसे अपने टी.वी. सीरियल से फुर्सत ही कहाँ मिलती है।”
उदय ने ऐसे कहाँ जैसे वो मौसम की बात कर रहा हो। इति को ये सब एकदम हास्यास्पद लगने लगा। वो सोचने लगी, अब ये कैसे संवाद हैं। क्या है ये सब? इनसे कोई छुटकारा नहीं है। हर बार क्यों मुझे घूम फिर कर इन्हीं संवादों का सामना करना पड़ता है। “जिया कैसी है?”, “मिली तुमसे मिलने की ज़िद कर रही थी।” यह क्या है, जिया उदय की पत्नी है और मैं उदय की कीप जैसी। नहीं कीप जैसी क्यों, कीप कहने में मुझे अब क्या शर्म महसूस हो रही है। मैं कीप हूँ। रख़ैल।
मुंबई में एक प्ले की रिहर्सल के दौरान कल्कि और सत्यजीत को सीन समझाते डायरेक्टर मानव कौल. फोटो - फेसबुक
कलर ब्लाइंड प्ले की रिहर्सल के दौरान कल्कि और सत्यजीत को सीन समझाते मानव. फोटो FB

इति की निगाह उदय के चहरे पर गई। फिर होठों पे आकर ठहर गई। उदय के होंठ किसी निरंतरता से बराबर हिल रहे थे। अपना कोई किस्सा सुनाने में व्यस्त। उसका एक हाथ, जो इति के हाथ में नहीं था, बीच में थोड़ा बहुत हिल जाता। शब्द कुछ अजीब फुसफुसाहट से मुँह से निकल रहे थे। अगर यहीं इसी पार्क में इति उदय के साथ दो दिन बैठी रहे तो उदय दो दिन तक लगातार बोलने की क्षमता रखता है। पहले इति उदय की फुसफुसाती हुई बातों में पूरी तरह गुम हो जाती थी। ये बातें एक अजीब तरह का घेरा बनाती थीं, जिसमें इति गोल-गोल घूमती रहती थी। अब उदय बोलता रहता है और इति अपनी ही किसी गुफा में, उस इति को तलाश कर रही होती है जो बहुत पहले फिसल कर गुम गई थी।
“हम खर्च हो गये, उदय।” पता नहीं इस बीच कब ये वाक्य इति के मुँह से निकल गया। “क्या?” उदय अपनी बातों में शायद बहुत आगे जा चुका था। कुछ देर बाद वापिस आकर उसने पूछा। “तुमने कुछ कहा?” “नहीं।” इति ‘नहीं’ भी नहीं कहना चाहती थी। वो सिर्फ सिर हिलाना चाहती थी पर इस बार भी ये शब्द इति की इजाज़त लिए बगैर ही उसके मुँह से निकल गया। “इति, मैं तुम्हारे घर चलने की सोच रहा था। तुम्हारी माँ से मिले भी बहुत समय हो गया। वहाँ आराम से बैठ के बात करते हैं। यहाँ पार्क में मुझे अजीब-सा परायापन लगता है। मानो मैं तुम्हें जानता ही ना होऊँ।”
ये उदय का पुराना गिड़गिड़ाना है, जिसके तय स्वर हैं। घर में मिलो तो सेक्स के लिए, बाहर मिलो तो घर में मिलने के लिए और अगर नहीं मिलो तो एक बार मिलने के लिए। इति भी पिछले एक साल से एक ही तय स्वर पर टिकी रहती थी- ना कहना। उदय की लगभग हर गिड़गिड़ाहट पर वो यह ही सुर लगाती थी।
 
तभी बहुत धीमी गति से डोलता हुआ एक सूखा पत्ता पेड़ से नीचे गिर रहा था। इस पूरी स्थिरता में इति उस पत्ते की आखिरी उड़ान देख रही थी। वह डोलता हुआ बहुत से पत्तों के बीच गिर गया। वह शायद गिरते ही उस पतझड़ में शामिल हो जाना चाहता था जिसमें बाक़ी सारे पत्ते शामिल थे। वह बाक़ी सारे पत्तों के बीच में था, लगभग उसी पतझड़ में था, फिर भी अलग था। उसे इति ने रोक रखा था। इति की आँखों ने, जो उस पर आकर अटक गयी थीं। वह कभी इस तरफ उड़ता कभी उस तरफ, पर इति की निग़ाह उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।
अचानक इति को लगने लगा कि उदय वो पत्ता है जिसे वो उसकी पतझड़ में शामिल होने से रोके हुए है। इस तरह कभी-कभार उनका मिलना, उदय को अटकाए हुए है।
‘फिर मैं क्या हूँ?’ इति सोचने लगी, ‘शायद मेरी भी कहीं अपनी पतझड़ है। यह मेरी सारी छटपटाहट शायद उस पतझड़ में गुम हो जाने का डर है। इसी डर से मैं बार-बार उदय की निग़ाह ढूँढ़ती हूँ कि वह रोक ले मुझे, इन पतझड़ के पत्तों में पूरी तरह गुम हो जाने से।’
इति ने धीरे से अपना हाथ उदय के हाथ से अलग कर दिया। उदय चुप था। यह शायद उसकी बात खत्म होने के बाद की चुप्पी थी या नई बात शुरू करने के पहले की। इति ने उदय के हाथ से अपना हाथ तब हटाया जब उदय शांत था। सो, उदय एक प्रश्नवाचक दृष्टि से इति को देखने लगा। ‘हाथ क्यों हटाया?’ इसका क्या जवाब इति देती? इति उन सारी बातों से बहुत पहले ही थक गई थी, जिनके जवाब कभी किसी के पास नहीं होते थे। उसके बदले बहुत सारे बहाने होते थे। दोनों मिलकर ढेरों बहाने पहले इकट्टठा करते थे। फिर उन सारे बहानों का एक काग़ज़ का हवाई जहाज़ बनाते। फिर उसे उड़ाने के खेल में दोनों मसरूफ़ हो जाते।
“उदय भूख लगी है। कुछ लाओगे खाने को?” “चलो कहीं चलकर खाते हैं।” उदय खड़ा हो गया था। “एक समोसा बस और हाँ, पानी भी लाना प्लीज़।” इति के आग्रह में आदेश जैसी कठोरता थी। सो, उदय थोड़े संकोच के बाद ‘ठीक है’ कहकर चला गया।
उसके जाते ही इति ने एक गहरी साँस ली। उदय का होना उसके लिए इतना भारी था कि उसके जाते ही उसे लगा जैसे वो पहाड़ चढ़ते-चढ़ते अचानक समतल मैदान में चलने लगी है। उसकी इच्छा हुई कि वो इसी बेंच पर थोड़ी देर लेट जाए पर वो इस समतल मैदान में चलना चाहती थी।



किताब : ठीक तुम्हारे पीछे (पेपरबैक) लेखक : मानव कौल कीमत : रु 115 प्रकाशक : हिंद युग्म, दिल्ली रिलीज : 12 मार्च 2016
और जाने के पहले सुनिए मानव कौल से एक कविता. कवि हैं विनोद कुमार शुक्ल. शीर्षक है. हताशा से एक आदमी. मानव फैन हैं इस परमहंस स्वभाव के कवि के. बताते हैं कि पहली मर्तबा फोन किया तो हैलो सुनने के बाद कुछ पूछ ही नहीं पाया. बस इत्ता कहा. आई लव यू.
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