ये किसी फिल्म या जासूसी उपन्यास की कहानी ही हो सकती है. फिल्मों में या कहानियों में ही ऐसा मुमकिन होता है. जहां हमारा जासूस, जासूसी के साथ साथ हीरोगिरी भी उतने ही कॉन्फिडेंस से कर लेता है. असल ज़िन्दगी में ऐसा हो पाना मुश्किल ही है. लेकिन क्या सचमुच?आज हम आपको मिलवाते हैं एक ऐसी हस्ती से जिसने फिल्मों में जासूसों के भौकाल और रियल लाइफ के संघर्ष के बीच की रेखा महीन कर दी है. दोहरा फख्र इस बात का कि वो एक महिला है. बहादुरी की मिसाल पेश करते हुए अपनी साथी को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ा लाने वाली उस भारतीय जासूस का नाम था सरस्वती राजामणि. जो भारत की सबसे कम उम्र की जासूस थी.
# इतिहास के पन्नों में नहीं मिली जरूरी जगह
भारत के आज़ादी-संग्राम में कई ऐसे नगीने रहे हैं जिनके योगदान को पुरस्कृत करना तो दूर, जिनके बारे में लोगों को पता तक नहीं है.ऐसी कुर्बानियों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं, जहां लोगों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, यातनाएं झेली लेकिन जिनका नामलेवा कोई नहीं. जिनका ज़िक्र किसी किताब में नहीं. किसी कोर्स में उनको नहीं पढ़ाया जाता. 'स्टार फ्रीडम फाइटर्स क्लब' में जिन्हें एंट्री नहीं मिल पाई. सरस्वती राजामणि ऐसे ही नामों में अग्रणी है जिन्हें भुला दिया गया.सरस्वती का जन्म 1927 में बर्मा में हुआ. उनके पिता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक थे और अंग्रेजों से बचने के लिए उन्होंने बर्मा में शरण ली थी. इस तरह देशभक्ति की भावना राजामणि को विरासत में मिली.
# 'बड़ी होकर एक अंग्रेज को गोली जरूर मारूंगी'
जब राजामणि दस साल की थी, महात्मा गांधी उनके घर आए थे. उनके स्वागत की आपाधापी में थोड़ी देर के लिए राजामणि पर से उनके माता-पिता का ध्यान हट गया. बाद में जब वो काफी देर दिखाई नहीं दी तो उनकी खोज शुरू हुई. उस खोज में गांधी भी शामिल थे. वो मिली तो अपने घर के बगीचे में गोली चलाने की प्रैक्टिस करती हुई. गांधी इतनी छोटी बच्ची के हाथ में गन देख कर चौंक गए. उन्होंने पूछा कि वो गन क्यों चलाना सीख रही है?"अंग्रेजों को भून डालने के लिए". राजामणि का जवाब था. "हिंसा हमेशा बुरी होती है बच्चे. तुम्हे अहिंसक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए." गांधीजी ने अपना फ़लसफ़ा समझाया. लेकिन राजामणि ने पलट कर पूछा, "हम लुटेरों को गोली मारते हैं ना? अंग्रेज़ भी भारत को लूट रहे हैं. मैं जब बड़ी हो जाऊंगी तो कम से कम एक अंग्रेज़ को ज़रूर गोली मारूंगी."ये वतनपरस्ती की वो आंच थी जो उस बच्ची के मन में सुलग रही थी.
# नेताजी सुभाष चंद्र बोस का असर
जैसे जैसे राजामणि बड़ी होती गई, अंग्रेजों की हुकूमत के तमाम अंधेरों पहलुओं का पता लगता गया. 16 की उम्र में उन्हें एक सभा में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्पीच सुनने का मौका मिला. गांधी अहिंसा पर जोर देते थे, नेताजी ने हथियार उठाकर अंग्रेजों से लोहा लेने का मंत्र दिया. ज़ाहिर है, राजामणि को उनकी बात पसंद आनी ही थी. यहां का भी एक दिलचस्प किस्सा है. उस सभा में नेताजी ने लोगों से अपील की कि वो अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में जी भर के आर्थिक सहयोग दें. राजामणि ने अपने तमाम गहने उतार कर उन्हें सौंप दिए. दूसरे दिन नेताजी उन गहनों को लेकर उनके घर पहुंचे और उनके पिता को लौटाने चाहे.राजामणि ने ना सिर्फ उन्हें लेने से इनकार किया बल्कि ये तक कहा कि ये उसके गहने हैं और इस पर सिर्फ उसी का हक है. वो इसे वापस नहीं लेगी. नेताजी उससे इतने इम्प्रेस हुए कि उन्होंने उसका नाम सरस्वती रख दिया. उसने नेताजी से रिक्वेस्ट की कि वो उसे आज़ाद हिंद फौज का हिस्सा बना ले. नेताजी ने उसकी बात मान ली और राजामणि की ज़िंदगी का सबसे रोमांचक दौर शुरू हुआ.
# अंग्रेजों के खिलाफ जासूसी
राजामणि ने अपनी पांच और साथियों के साथ आईएनए जॉइन की. नेताजी ने उनके आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए जासूसी का काम सौंपा. सभी लड़कियों ने लड़कों की वेशभूषा अपना ली और अंग्रेज़ अफसरों के घरों और मिलिट्री कैम्पों में काम करना शुरू किया. ये सिलसिला दो सालों तक चला.अपनी जासूसी ज़िंदगी के उन दो सालों में राजामणि ने आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए बहुत सूचनाएं इकट्ठी की. उनका काम होता था अपने कान खुले रखना, हासिल जानकारी को साथियों से डिस्कस करना, फिर उसे नेताजी तक पहुंचाना. कभी कभार उनके हाथ महत्वपूर्ण दस्तावेज भी लग जाया करते थे.इस सिलसिले को लगाम लगी एक रोमांचकारी घटना से.
# सबसे बड़ा कारनामा
जब सारी लड़कियों को जासूसी के लिए भेजा गया था, तब उन्हें साफ़ तौर से बताया गया था कि पकड़े जाने पर उन्होंने खुद को गोली मार लेनी है. एक लड़की ऐसा करने से चूक गई और ज़िंदा गिरफ्तार हो गई. इससे तमाम साथियों और आर्गेनाइजेशन पर ख़तरा मंडराने लगा. राजामणि ने फैसला किया कि वो अपनी साथी को छुड़ा लाएगी.उन्होंने एक डांसर की वेशभूषा की और पहुंच गई उस जगह जहां दुर्गा नाम की उस लड़की को बंदी बना के रखा हुआ था. उन्होंने अफसरों को नशीली दवा खिला दी और अपनी साथी को लेकर भागी. यहां तक तो सब ठीक रहा लेकिन भागते वक़्त एक दुर्घटना घट ही गई. जो सिपाही पहरे पर थे, उनमें से एक की बंदूक से निकली गोली राजामणि की दाई टांग में धंस गई. ख़ून का फव्वारा छूटा.किसी तरह लंगडाती हुई वो दुर्गा के साथ एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गई. नीचे सर्च ऑपरेशन चलता रहा जिसकी वजह से तीन दिन तक उन्हें पेड़ पर ही भूखे-प्यासे रहना पड़ा. तीन दिन बाद ही उन्होंने हिम्मत की और सकुशल अपनी साथी के साथ आज़ाद हिंद फ़ौज के बेस पर लौट आई.
तीन दिन तक टांग में रही गोली ने उन्हें हमेशा के लिए लंगड़ाहट बख्श दी. हालांकि वो लंगड़ाहट उनके लिए गर्व का प्रतीक बनी और जासूसी के दिनों के रोमांच की याद भी. राजामणि की इस बहादुरी से नेताजी बहुत खुश हुए और उन्हें आईएनए की रानी झांसी ब्रिगेड में लेफ्टिनेंट का पद दिया. उसके दो साल बाद ही सन 1945 में जब अंग्रेजों ने दूसरा महायुद्ध जीत लिया, नेताजी ने उनकी सेवा समाप्त की और उन्हें भारत जाने की राय दी. इसके आगे की कहानी दर्दनाक है.
# कांग्रेसमय भारत में गुमनामी का दंश
अगस्त 1945 में एक विमान हादसे में कथित तौर पर नेताजी की मौत हो गई. दो साल बाद ही भारत आज़ाद हो गया.नए भारत में ना तो किसी को सरस्वती राजामणि की ज़रूरत थी, ना ही कोई उन्हें याद करने वाला था. आज़ाद भारत के शुरुआती दिनों में जब कांग्रेस से जुड़े हुए हर एक रामू-शामू ने बढ़िया चांदी काटी, तमाम मलाईदार ओहदे हथियाए, वहीं राजामणि को महज़ 'फ्रीडम-फाइटर' का दर्जा मिलने में 25 साल लग गए.साल 2002 में एक अख़बार में उनके बारे में खबर छपी तब तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने उन्हें एक मकान और ग्रांट अलॉट की. पिछले साल एपिक चैनल ने अपने कार्यक्रम 'अदृश्य' में उनके बारे में एक एपिसोड किया.
# कुछ याद इन्हें भी कर लो
चेन्नई के उस सरकारी मकान में अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल बिता रहीं सरस्वती राजामणि उन बेशुमार 'अनसंग हीरोज' का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनको ना इतिहास ने याद रखा, ना नेताओं ने और ना ही जनता ने.ये वो लोग हैं जिनकी वजह से इस देश को आज़ाद फ़ज़ा मयस्सर हो पाई. ये वो लोग हैं जिनका क़र्ज़ तमाम हिंदुस्तान पर है. ये वो लोग हैं जिन्हें महज़ जानना भर इतिहास के पन्नों पर उकरी हुई गौरवशाली गाथाओं को जीने जैसा है.
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पुलवामा हमले पर सरकार के बाद अब बॉलीवुड की प्रतिक्रिया -