14 और 15 अगस्त की 1947 की दरमियानी रात, जब नेहरू ने स्वतंत्रता का संदेश दिया. तब एक और शख्स था जिसने देश की तकदीर बदलने का बीड़ा उठाया. कोट-पैंट वाली वेशभूषा वाले उस व्यक्ति के पीछे हजारों लोग एक अघोषित युद्ध की तरफ चल रहे थे. बरसों की गुलामी का बोझ उतार फेंकने के लिए. ये लड़ाई तलवार या बंदूक की नहीं, हक की थी जिसने पिछड़ों को इंसानियत का पहला घूंट पिलाया. संविधान से लेकर भारत के पहले कानून मंत्री की राह नापने तक. फिर भी अपनी ही सरकार से इस्तीफा देना पड़ा. सबके हितों का ध्यान रखने के बीच जब राजनीति में हाथ आजमाने का मौका मिला तो लगातार दो बार हार मिली. ये कहानी है बाबा साहेब डॉ भीम राव आंबेडकर की.
संसद से लेकर सड़क तक जिस डॉ आंबेडकर के नाम पर मचा है घमासान, असल में कैसा था उनका जीवन?
Dr. Ambedkar की लड़ाई तलवार या बंदूक की नहीं, हक की थी जिसने पिछड़ों को इंसानियत का पहला घूंट पिलाया.
डॉ भीमराव आंबेडकर का जीवन आसान नहीं रहा. दो साल की उम्र में ब्रिटिश सेना में सूबेदार रहे पिता का सेवानिवृत्त हो गए थे. वहीं जब वो छह साल के थे, तब मां का साया सिर पर नहीं रहा. फिर भी उन्होंने दुनियाभर के तमाम बड़े संस्थानों से पढ़ाई की. आजादी से पहले और बाद के भारत की यात्रा का हिस्सा रहे. लेकिन आज, उनके जीवन की कठिनाइयों और संघर्ष की कहानी से इतर जानते हैं, उनके सामाजिक जीवन और राजनीतिक करियर के बारे में.
आंबेडकर का महाड़ सत्याग्रहसाल, 1927, दोपहर का समय. धूल भरी सड़कों पर करीब पांच हजार लोग बरसों से चली आ रही प्रथा को धता बताकर आगे बढ़ रहे थे. इस हुजूम का नेतृत्व कर रहा था कोट पैंट पहना एक शख्स. जगह महाराष्ट्र का महाड़ जो कि रायगढ़ जिले में आता है. पहले इसे कुलाबा के नाम से जाना जाता था. इस भीड़ ने एक प्रथा के खिलाफ बाना पहन रखा था. एक प्रथा, जिसे हजारों साल से दलित समाज के लोग अपने माथे पर ढो रहे थे. ये थी मंदिरों में घुसने की मनाही, कुओं से पानी लेने पर रोक. ऐसी तमाम प्रथाएं जो मानवीय अधिकार तक से वंचित करती थीं.
यहीं चवदार तालाब भी मौजूद था जो किसी क्रूर अलगाव के प्रतीक सा था. ये तालाब सूरज की रोशनी में चमकता हुआ मानों उनके अस्तित्व का मखौल उड़ा रहा था. यहां ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशु, कुत्ते सब पानी पी सकते थे, लेकिन गांव के दलित या तथाकथित अछूतों को इसके पास फटकने की भी इजाजत नहीं थी. पर आज सब बदलने वाला था. कोट पैंट पहना ये शख्स इसी तालाब किनारे रुक कर इतिहास के भार को अपने कंधों पर दबाते हुए नीचे झुका. अंजुली भर पानी लेकर घूंट भर ली. इस दृश्य को हजारों लोग टकटकी लगाकर देख रहे थे. ये वो दौर था जब वर्ण व्यवस्था अपने चरम पर थी.
इस अवरोध के खिलाफ नींव कुछ साल पहले ही रखी जा चुकी थी. 4 अगस्त, 1923 को बॉम्बे विधान परिषद ने Bole resolution पास किया था. इस प्रस्ताव के मुताबिक सभी वर्ग के लोगों को सरकार द्वारा संचालित संस्थाएं-अदालत, स्कूल, अस्पताल, कुएं, तालाब के इस्तेमाल की इजाजत दी जानी थी.
Bole resolutionरावबहादुर सीताराम केशव बोले, जिन्हें बाबा साहेब बोले के नाम से भी जाना जाता है, उस समय अंग्रेजी सरकार में बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य थे. बाबा साहेब बोले, बॉम्बे में मिल मजदूरों और भंडारी समुदाय के समर्थन में आवाज उठाने के लिए जाने जाते थे. 1926 में इसी परिषद से डा आंबेडकर भी जुड़े थे. 1924 में महाड़ नगर परिषद ने इसे लागू करने के लिए एक प्रस्ताव भी पास किया. फिर भी दलितों को यहां पानी पीने से रोका जा रहा था. बाबा साहेब ने अपने समाज को बताया कि सार्वजनिक स्थान से पानी पीने का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है.
फिर 19 और 20 मार्च 1927 को एक सम्मेलन आयोजित हुआ. आंबेडकर सत्याग्रह में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन रूढ़िवादी मन को बदलने का एक यही तरीका था. ये सत्याग्रह पानी पीने के अधिकार के साथ-साथ इंसान होने का अधिकार जताने के लिए भी किया गया था. उन्होंने तय कर लिया कि दलित समाज इस तालाब से पानी पीकर रहेगा. सम्मेलन में बाबा साहेब आंबेडकर ने भाषण देकर तीन मंत्र दिया कि,
-हमें गंदा नहीं रहना है, साफ कपड़े पहनने हैं.
-मरे हुए जानवर का मांस नहीं खाना है.
-दूसरे लोगों की तरह हमें भी सम्मान से रहने का अधिकार है.
लेकिन तालाब से पानी पीने की जुर्रत का बदला उन्हें जल्द ही झेलना पड़ा. पूरे गांव में खबर फैल गई कि दलित मंदिर में घुस गए हैं. गुस्साए लोगों ने उनकी बस्ती में आकर तांडव मचाया और लोगों को लाठियों से पीटा. बच्चों, बूढ़ों और औरतों को भी पीट-पीटकर लहूलुहान कर दिया गया. Indian Institute of Advanced Study के पूर्व फेलो रमाशंकर सिंह बताते हैं
"इस मारपीट में एक शख्स की मौत तक हो गई थी. तिलमिलाए गांव वालों ने घटना के बाद पूजा-पाठ और पंचगव्य (गाय का दूध, घी, दही, गोमूत्र, गोबर) से तालाब को फिर से शुद्ध किया ."
ये आंदोलन भले ही 1927 से शुरू हुआ, लेकिन इसके बाद एक लंबी कानूनी लड़ाई चली. 1937 में बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद दलितों को तालाब से पानी इस्तेमाल करने की अनुमति मिल पाई थी. सामाजिक आंदोलन के अलावा, कानून मंत्री रहते हुए भी उन्होंने कई सुधारों के लिए अपना ठोस मत रखा.
कानून मंत्री का इस्तीफा गायब13 फरवरी, 2023 को द हिंदू में एक खबर छपी. टाइटल था - ‘भारत के पहले कानून मंत्री डॉ आंबेडकर का इस्तीफा दस्तावेजों से गायब’. वो इस्तीफा जो डॉ आंबेडकर, के विचारों की दृढ़ता का सबूत था. इसकी कहानी शुरू हुई है साल 1947 में 14 और 15 अगस्त की दरमियानी रात को. पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भाषण देते हैं-
“At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom.”
अपनी जुबान में कहें तो “आधी रात के समय जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता लिए जागेगा”. बहरहाल देश आजाद हो चुका था. अब बारी थी देश की तकदीर, देश के ही लोगों के हाथों तय करने की. इसके लिए सबसे जरूरी थे आम चुनाव. इसी क्रम में संविधान बना जिसका अंतिम पाठ पूरा होने के बाद डॉ आंबेडकर ने कहा था,
“26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में शामिल होने वाले हैं. राजनीतिक जीवन में तो समानता हमारे पास होगी. लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में नहीं.”
कहने का मतलब, हाशिए पर रखे लोगों के लिए राजनीतिक बराबरी की बात तो तय कर दी गई थी. पर समाज और पैसे के मामले में यह अभी दूर की बात थी. जब आजादी के बाद अंतरिम सरकार में वो कानून मंत्री बनाए गए तो उन्होंने ऐसे ही हाशिए पर रखे एक वर्ग के लिए कुछ सुधार करने की सोची. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब, मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया में लिखते हैं
“1940 के दशक में भारत के तब के कानून मंत्री बी. आर. आंबेडकर ने हिन्दू पर्सनल लॉ में बदलाव की सोची ताकि महिलाएं मर्जी से पति चुन सकें, तलाक ले सकें. और पिता की संपत्ति में हक पा सकें. प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू ने भी इसका समर्थन किया. लेकिन इसमें आगे का काम रूढ़िवादी नेताओं के चलते रुकने लगा.”
पुराने ख्याल के नेताओं ने इस बिल का खूब विरोध किया. बिल पास नहीं हो पाया और अंत में आंबेडकर को नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा. पर इस इस्तीफे के बाद उन्होंने पहले चुनाव में हाथ आजमाया. लेकिन नियति ने उनके लिए बड़ा प्लान तैयार कर रखा था. उन्हें केवल संसद के गलियारों तक ही सीमित नहीं रहना था, बल्कि उससे भी बहुत आगे जाना था. दलितों के सशक्तिकरण के अलावा वो राजनीतिक कौशल के अलावा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वो सभी में बेहतर थे.
पहला चुनावडॉ आंबेडकर का राजनीतिक करियर, उनके सामाजिक जीवन का ही हिस्सा था. उनका राजनीतिक करियर हाशिए पर रखे वर्गों के अधिकारों का जरिया था. देश को आजादी तो मिल गई, पर समाज में तमाम वर्गों के लिए काम अभी बाकी था. ऐसे में आजाद भारत के पहले आम चुनाव दस्तक देते हैं. ये चुनाव अक्टूबर 1951 से लेकर, फरवरी 1952 तक चले. पांच महीनों तक चले इन चुनावों में डॉ आंबेडकर भी चुनावी मैदान में थे. सामने थे उन्हीं के पर्सनल असिस्टेंट और नौसिखिए माने जाने वाले नेता, नारायण सदोबा काजरोलकर. काजरोलकर का दूध का कारोबार भी था. इसी को लेकर उस वक्त मशहूर मराठी पत्रकार पी.के. अत्रे ने एक नारा भी गढ़ा जो काफी मशहूर भी हुआ. कहा गया,
“कुथे तो घटनाकर आंबेडकर, आनी कुथे हा लेनिविक्या काजरोलकर”
माने कहां संविधान के महान निर्माता आंबेडकर और कहां नौसिखिया काजरोलकर. दरअसल पहले लोकसभा चुनाव में डॉ आंबेडकर अपनी पार्टी शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन की छतरी तले मुंबई की नॉर्थ सेंट्रल सीट से लड़ रहे थे. अशोक मेहता की अगुवाई वाली सोशलिस्ट पार्टी भी उनका समर्थन कर रही थी. ये एक 2 मेंबर कांस्टिट्वेंसी थी जहां एक ही सीट से जनरल और शेड्यूल कास्ट, या शेड्यूल ट्राइब के दो प्रत्याशी चुनावी अखाड़े में उतरा करते थे. ये पुरानी प्रैक्टिस थी जो साल 1961 तक चली.
दिग्गज कम्युनिस्ट नेता एस ए डांगे भी कभी इस सीट से चुनाव लड़ चुके थे. पर अपनी बारी में आंबेडकर कांग्रेस के प्रत्याशी काजरोलकर से कुछ 15 हजार वोटों से हार गए. पंडित नेहरू के नेतृत्व और पार्टी की लहर के चलते कांग्रेस को जबरदस्त जीत मिली. हालांकि हार के बाद डॉ आंबेडकर ने चुनाव के नतीजों पर सवाल भी उठाए. द मूकनायक के मुताबिक, यह हार उनके लिए कष्टदायक भी थी क्योंकि महाराष्ट्र उनकी कर्म भूमि थी. समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने इस बारे में कहा,
"बंबई के लोगों के भारी समर्थन को किस प्रकार, इतनी बुरी तरह से नकार दिया गया, यह वास्तव में चुनाव आयुक्त द्वारा जांच का विषय है."
आगे डॉ आंबेडकर और अशोक मेहता ने एक साझा याचिका भी दायर की. इस याचिका में मुख्य चुनाव आयुक्त से चुनाव रद्द करने की मांग भी की. उन्होंने ये दावा भी किया कि 70 हजार से ज्यादा, बैलेट पेपर रिजेक्ट कर दिए गए और गिने नहीं गए. हालांकि चुनाव आयोग ने इस याचिका पर क्या कार्रवाई की, यह कभी रोशनी में नहीं आ पाया.
साल 1952 में उन्हें राज्यसभा के लिए नॉमिनेट किया गया. राज्यसभा में रहकर उन्होंने देश की विधि व्यवस्था में अपना योगदान दिया. उन्होंने 1954 में भंडरा के उपचुनाव में किस्मत आजमाई. लेकिन इस बार वो तीसरे नंबर पर रहे. वहीं अगले आम चुनाव होने तक उनका निधन हो गया. इस तरह भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य के एक निर्माता नहीं रहे.
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