आज ही के दिन यानी 3 अगस्त, 1749 को दूसरे कर्नाटक युद्ध की पहली लड़ाई लड़ी गई. इसे अंबुर की लड़ाई के नाम से जाना जाता है, जो कर्नाटक और हैदराबाद पर शासन को लेकर हुई थी. कर्नाटक युद्ध ने ही तय किया कि भारत में आगे चलकर कौन शासन करेगा. इस लड़ाई में हैदराबाद और कर्नाटक के नवाबों के साथ-साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी (EIC) और फ़्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी भी शामिल थी. अब ये तो हम जानते ही हैं कि आख़िरकार ब्रिटिश EIC जीती जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखी. लेकिन इस लड़ाई में इतने अलग-अलग पहलू थे कि जरा यहां-वहां हुआ होता तो ‘तीन गुना लगान’ बचाने के लिए भुवन क्रिकेट के बजाय फुटबॉल खेल रहा होता. जी हुजूर कहने के बजाय हम बॉनज्यूर, बॉनज्यूर कहते फिरते. और ब्रेकफास्ट में टोस्ट के बजाए क्रोसौं चबा रहे होते. औरंगज़ेब के बाद जैसा कि हमने आपको तारीख़ के 14 जुलाई के एपिसोड में बताया था, 1707 में बादशाह औरंगज़ेब ने अपनी मृत्यु के वक्त कहा था, मेरे बाद फसाद ही फसाद होगा. यही सच भी साबित हुआ. औरंगज़ेब के मरने तक मुग़ल शासन पूरे भारत में फैल गया था. लेकिन उसकी मृत्यु के साथ ही मुगलों का सूरज अस्त होने की और बढ़ने लगा था.
इतने बड़े शासन को संभालने के लिए मुगलों ने अलग-अलग हिस्सों में सूबेदार नियुक्त कर रखे थे. इनमें ने एक था आसफजाह. औरंगजेब की मौत के बाद आसफजाह ने खुद को हैदराबाद का निजाम घोषित कर दिया. और सादतुल्ला खां को कर्नाटक का नवाब बना दिया. सादतुल्ला खां का कोई बेटा नहीं था.

निज़ाम-उल-मुल्क आसफजाह (फ़ाइल फोटो)
वारिस की ज़रूरत को देखते हुए उसने अपने भाई ग़ुलाम अली के बच्चे को गोद ले लिया. जिसका नाम था दोस्त अली. सादतुल्ला खान की मौत के बाद 1732 में दोस्त अली कर्नाटक का नवाब बन गया. इसके बेटे का नाम था सफ़दर अली खां और दामाद था चंदा साहिब. नाम याद रखिएगा. ये दोनों आगे की कहानी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं. कर्नाटक और मराठा दोस्त अली ने उत्तर में मराठाओं के साथ संधि कर रखी थी. संधि के अनुसार मराठा साम्राज्य कर्नाटक पर हमला नहीं करता था. इसके बदले में उन्हें सूबे के रेवेन्यू का एक चौथाई हिस्सा मिलना था. जिसे उन दिनों चौथ कहा जाता था. समय के साथ धीरे-धीरे दोस्त अली ने चौथ देना बंद कर दिया. मराठाओं की तरफ़ से दोस्त अली को कई ख़त भिजवाए गए लेकिन उसने किसी का जवाब नहीं दिया. ग़ुस्से में आकर रघुजी भोंसले के नेतृत्व में मराठाओं ने कर्नाटक पर हमला कर दिया. 1740 में आरकोट के पास एक युद्ध में दोस्त अली, रघुजी की सेना के हाथों मारा गया. जान बचाने के लिए उसका बेटा सफ़दर अली और दामाद चंदा साहिब फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी से मदद मांगने पहुंचे. उस समय फ़्रेंच EIC का गवर्नर था पियरे डुमास. डुमास की सफ़दर अली से दोस्ती थी. इस कारण उसने सफ़दर और चंदा साहिब को अपने यहां शरण दी.
किसी तरह सफ़दर और रघुजी में एक संधि हुई और सफ़दर कर्नाटक का नवाब बन गया.
तय हुआ कि पहले की ही तरह मराठों को चौथ समय पर दी जाएगी. लेकिन रघु जी की नज़र चंदा साहिब पर भी थी जो अभी भी डुमास के पास था. ये जानकर रघुजी भोंसले ने डुमास के पास एक दूत भेजा. दूत ने डुमास से कहा कि वो चंदा साहब को मराठों के हवाले कर दे.
डुमास ने चंदा साहिब को देने से तो मना कर दिया. लेकिन वो जानता था कि फ्रेंच इतने ताकतवर नहीं कि 50 हज़ार मराठा सैनिकों का सामना कर सकें. कूटनीति दिखाते हुए उसने रघु जी के पास एक ख़त और तोहफा भिजवाया.
ख़त में लिखा था,
‘जनाब, चंदा साहिब हमारे दोस्त हैं इसलिए हम गुज़ारिश करते हैं कि आप उनकी जान बख्श दें. इसी के साथ हमने आपके लिए एक तोहफ़ा भी भेजा है’.रघु जी ने तोहफ़ा देखा तो उसमें फ़्रांस से ख़ास मंगवाई गई फ़्रेंच ब्रांडी की 30 बोतलें थी.
रघुजी मान गए. उन्होंने जवाब भिजवाया कि वो चंदा साहिब की जान बख्श देंगे. लेकिन साथ में उन्हें फ़्रेंच ब्रांडी की कुछ और बोतलें चाहिए. इस तरह चंदा साहिब की जान बच गई और वो मराठों की कस्टडी में रहने लगा.

भारत में यूरोपियन कॉलोनी (फ़ाइल फोटो)
उधर दोस्त अली का बेटा सफ़दर अली कर्नाटक का नवाब बन गया. लेकिन 1743 में उसकी भी मृत्यु हो गई. उस वक्त उसका बेटा सादतुल्ला खां -2 बहुत छोटा था. इसलिए एक मुसीबत आ खड़ी हुई कि अब नवाब कौन बनेगा. इस सबके बीच चंदा साहिब एक नाम हो सकता था लेकिन वो तो मराठों के पास कैद था. ऐसे में हैदराबाद के नवाब आसफजाह ने कहा कि सादतुल्ला -2 को नवाब बना दिया जाए. और जब तक वो बड़ा नहीं हो जाता, उसका एक प्रतिनिधि नियुक्त किया जाए. ये प्रतिनिधि था अनवरुद्दीन. सब कुछ सही चल रहा था लेकिन वो वक्त ऐसा था कि नवाब मक्खियों की तरफ़ टपक रहे थे.
जी! टिरियन लेनिस्टर का डायलॉग है और क्रेडिट हम दिए दे रहे हैं. कुछ ही समय में सादतुल्ला -2 की भी मौत हो गई. और अनवरुद्दीन, जो अब तक केवल प्रतिनिधि था. आरकोट यानि कर्नाटक का नवाब बन बैठा. ब्रिटिश और फ़्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी इस सबमें ब्रिटिश EIC और फ़्रेंच EIC कहां थी? ये समझने के लिए हमें उनका भारत आने का उद्देश्य समझना होगा. ब्रिटिश EIC, यानि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आने वाली पहली कंपनी नहीं थी. उनसे पहले डच, पुर्तगाल और फ्रेंच EIC भारत आ चुके थे. 1700 तक इसमें से केवल दो मुख्य रह गए थे. ब्रिटिश EIC और फ़्रेंच EIC. इनका मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार करना था. और व्यापार के चलते दोनों में कंपटीशन भी बहुत था.
कैपिटलिज्म में एक कॉन्सेप्ट होता है फ्री मार्केट इकॉनमी. यानि मार्केट में जितना कंपटीशन, ग्राहक को उतना फायदा. आज भी चाहे एंड्राइड हो या एप्पल, मैकडॉनल्ड हो या बर्गर किंग. कंपनियां लगातार इस कोशिश में रहती हैं कि किस प्रकार दूसरे से ऊपर जाया जाए. लगातार दांव-पेंच भिड़ाए जाते है कि दूसरे को ऊपर उठने से कैसे रोका जाए.
खैर आज जो होता है वो सरेआम है. लेकिन तब न मार्केटिंग थी, न ही एडवरटाइजिंग. कोई केंद्रीय एजेंसी भी नहीं थी कि मोनोपॉली होने से रोके. कम्पटीशन को ख़त्म करने का एक ही हथियार था, वो था जंग. ये सम्राटों वाली जंग नहीं थी. जिसमें आन-बान की लड़ाई हो. बस व्यापार था. भारत में अकूत प्राकृतिक सम्पदा थी. और फ्रेंच और ब्रिटिश किसी भी हाल में इसे क़ब्ज़ाना चाहते थे. इसी का नतीजा थे, कर्नाटक के 3 युद्ध जो 1740 से 1760 के बीच लड़े गए.
1740 तक ब्रिटिश EIC और फ़्रेंच EIC, दोनों शांति से व्यापार करते थे. छुटपुट मुठभेड़ों के सिवा कोई बड़ी लड़ाई नहीं होती थी. लेकिन उसी समय यूरोप में ऑस्ट्रिया पर अधिकार को लेकर ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच जंग हो गई. जिसका असर भारत पर भी हुआ. ब्रिटिश EIC ने ‘बे ऑफ़ बंगाल’ में खड़े फ़्रेंच EIC के जहाजों पर हमला कर दिया. जोसेफ डुप्ले, जो उस समय फ़्रेंच EIC का गवर्नर था, युद्ध के पक्ष में नहीं था. लेकिन ब्रिटिश EIC ने जब फ़्रांसीसी जहाज़ों पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की. तो डूप्ले ने मॉरीशस के गवर्नर 'ला बोर्दने’ की मदद से मद्रास में घेरा डाल दिया. 21 सितम्बर, 1746 को मद्रास फ्रेंच EIC के कब्जे में आ गया. बैटल ऑफ़ अद्यार हमने आपको पहले बताया था कि इस वक्त तक अनवरुद्दीन कर्नाटक का नवाब बन चुका था.
मद्रास पर घेरा डाले जाने की घटना से अनवरुद्दीन बहुत नाराज़ हुआ. उसने फ़्रांस की सेना के साथ युद्ध करने की ठान ली. जिसके चलते फ़्रांस और अनवरुद्दीन की सेना के बीच 1746 में लड़ाई हुई. जिसे ‘बैटल ऑफ़ अद्यार’(Battle of Adyar) के नाम से जाना जाता है. ये युद्ध भारत के इतिहास का एक निर्णायक युद्द माना जाता है. इससे पहले तक युद्ध में अधिकतर सेनाबल का ही जोर चलता था. जिसकी जितनी बड़ी सेना, उसके जीतने की सम्भावना उतनी ज्यादा. लेकिन ‘यूरोपियन वॉरफेयर’ की जो तकनीक प्रसा (Prussia) में डेवलप हुई थी, पहली बार इस युद्ध के ज़रिए भारत में उन तकनीकों का उपयोग हुआ.

आरकोट के युद्ध में रॉबर्ट क्लाइव तोप चलाते हुए (तस्वीर: विक्टर सरिज़)
इस लड़ाई में अनवरुद्दीन ने अपने बेटे महफूज़ खान को 10 हज़ार सैनिकों के साथ मोर्चे पर भेजा. जबकि फ्रेंच सेना के पास केवल 700 सैनिक थे. इसके बावजूद महफूज खान को हार का स्वाद चखना पड़ा. क्योंकि फ़्रेंच सेना के पास उस समय की बेहतरीन तकनीक वाली तोपें थीं. और ये बेहतर तकनीक थी स्क्रू. स्क्रू की मदद से नाल का कोण बदला जा सकता था. सटीक निशाने के लिए पूरी तोप को हिलाने की ज़रूरत नहीं रह गई थी. फ्रेंच सेना का तोपखाना मोबाइल था. मतलब शॉर्ट नोटिस पर अपनी जगह बदल सकता था. तो इस बेहतर तकनीक की मदद से उन्होंने महफूज़ खान की सेना को तितर-बितर कर दिया. इस हार से अनवरुद्दीन को अहसास हुआ कि अकेले फ्रेंच सेना का मुकाबला नहीं किया जा सकता. उसने जाकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिला लिया.
इसके बाद इस कहानी में एक और महत्वपूर्ण मोड़ आया. 1748 में हैदराबाद के निज़ाम आसफजाह की मौत हो गई. जिससे हैदराबाद की गद्दी को लेकर संकट खड़ा हो गया. कायदे से हैदराबाद की गद्दी आसफजाह के बेटे नासिर जंग को मिलनी थी. लेकिन उसने 1741 में अपने पिता को मारने की कोशश की थी. जिसके चलते आसफजाह ने नासिर जंग को रियासत से बेदखल कर दिया था. और मरने से पहले अपने नाती मुज़फ्फर जंग को वारिस घोषित किया था. इसे लेकर नासिर जंग और मुज़फ्फर जंग में दुश्मनी हो गई. दूसरी ओर कर्नाटक का नवाब अनवरुद्दीन, जो पहले ही ब्रिटिश EIC से हाथ मिला चुका था, उसने हैदराबाद की गद्दी के लिए नासिर जंग का समर्थन किया. सेकेंड कर्नाटक वॉर उधर चंदा साहिब अब मराठों की कैद से आजाद हो चुका था. वो किसी तरह अनवरुद्दीन को बेदखल कर खुद कर्नाटक का नवाब बनना चाहता था. ये जानकर कि अनवरुद्दीन नासिर जंग की मदद कर रहा है, चंदा साहिब ने मुजफ्फर जंग से हाथ मिलाने का फैसला किया. फ्रेंच EIC से उसकी दोस्ती पहले से थी ही.
अब इस पूरे घटनाक्रम को देखें तो दो खेमे बन गए थे. एक तरफ ब्रिटिश EIC, नासिर जंग, अनवरुद्दीन और दूसरी तरफ फ्रेंच EIC, चंदा साहिब और मुजफ्फर जंग.
दूसरी कर्नाटक वॉर की जमीन तैयार हो चुकी थी. चंदा साहिब और मुजफ्फर जंग ने अपनी सेना को इकठ्ठा किया और कर्नाटक की ओर कूच कर दिया. अनवरुद्दीन को लगा कि अगर चंदा सहिब आरकोट पहुंच गया तो उन्हें रोकना बहुत मुश्किल होगा. इसलिए वो अपनी सेना लेकर अंबुर पहुंच गया. आज ही के दिन यानि 3 अगस्त, 1749 को दोनों गुटों में लड़ाई हुई जिसे ‘वॉर ऑफ़ अंबुर’ के नाम से जाना जाता है. इस युद्ध में चंदा साहिब ने अनवरुद्दीन को मार दिया और खुद कर्नाटक का नवाब बन बैठा. फ्रेंच EIC ने चंदा साहिब का साथ दिया था जिसके एवज में उन्हें 80 गांवों की दीवानी दे दी गयी. वल्लाजाह की कहानी चंदा साहिब के नवाब बन जाने से फ़्रेंच EIC फ़ायदे में आ गई थी. ब्रिटिश EIC ने इस स्थिति को बदलने के लिए अनवरुद्दीन के बेटे वल्लाजाह से हाथ मिलाया. वल्लाजाह भी अपने बाप की मौत का बदला लेना चाहता था. उसने ब्रिटिश EIC की मदद से चंदा साहिब वाले गुट से 1750 में एक और युद्द किया. ‘बैटल ऑफ़ तिरुवदी’, जिसमें ब्रिटिश EIC की एक और हार हुई. जान बचाने के लिए वल्लाजाह जिंजी के किले में जाकर छुप गया, जो आरकोट से 80 किलोमीटर दूर था.

मुहम्मद अली वल्लाजाह (फ़ाइल फोटो)
लेकिन फ़्रेंच गवर्नर ‘जोसेफ डूप्ले’ के नेतृत्व में फ्रेंच सेना ने एक ही रात में जिंजी के क़िले को फतह कर लिया. वल्लाजाह की मदद के लिए नासिर जंग और ब्रिटिश EIC भी जिंजी पहुंच गए. लेकिन इस लड़ाई में फिर फ़्रेंच विजयी रहे. जिंजी के युद्ध से एक और फ़ायदा ये हुआ कि इस लड़ाई में डूप्ले ने नासिर जंग के एक ख़ास साथी को अपने साथ मिला लिया. जिसने एक दिन मौक़ा देखकर नासिर जंग की हत्या कर दी. और मुज़फ्फर जंग हैदराबाद का निजाम बन गया. फ़्रेंच EIC अब ताकतवर पोज़िशन में आ गई थी. हैदराबाद का निज़ाम और आरकोट का नवाब, दोनों उसके साथ थे.
जिंजी की लड़ाई में हारने के बाद वल्लाजाह ने त्रिचिनापल्ली के किले में शरण ली. अनवरुद्दीन का बेटा होने के नाते वो आरकोट की नवाब शाही पर हक़ जमा सकता था. और अगर ऐसा होता तो कर्नाटक ब्रिटिश EIC के हिस्से आ जाता. डुप्ले नहीं चाहता था कि किसी भी तरह से आरकोट हाथ से जाए. इसलिए चंदा साहिब और फ़्रेंच सेना को लेकर वो सीधा त्रिचिनापल्ली पहुंच गया. 1751 में उन्होंने त्रिचिनापल्ली के क़िले का घेराव कर लिया. वल्लाजाह की मदद करने आई ब्रिटिश सेना की टुकड़ी भी किले के अंदर फ़ंसकर रह गई थी. इनमें से एक था कैप्टन रॉबर्ट क्लाइव. वही रॉबर्ट क्लाइव जिसने आगे चलकर वॉरन हेस्टिंग्स के साथ मिलकर भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखी.
फ़्रेंच सेना को चकमा देकर किसी तरह क्लाइव क़िले से निकल भागा. वापस जाकर उसने एक योजना बनाई. कर्नाटक के नवाब की सेना त्रिचिनापल्ली के क़िले का घेरा किए हुए थी. ऐसे में उसे 500 सैनिकों की एक टुकड़ी लेकर आरकोट पर हमला कर दिया और उसे जीत लिया.
ये फ़्रेंच EIC के लिए एक बड़ा झटका था. इतना बड़ा कि इसके बाद वो ब्रिटिश EIC के सामने टिक नहीं पाए. 1752 में अंग्रेजों ने त्रिचिनापल्ली को भी जीत लिया.
आगे चलकर कर्नाटक में एक और लड़ाई हुई जिसे थर्ड वॉर ऑफ़ कर्नाटक के नाम से जाना जाता है. फ़्रेंच EIC और ब्रिटिश EIC के बीच की लड़ाई में थर्ड वॉर ऑफ़ कर्नाटक निर्णायक साबित हुई. और धीरे-धीरे ब्रिटिश EIC भारत में एक मात्र कंपनी बनकर रह गए.