द्रविड़ अस्मिता, तमिलनाडु में पार्टी दर पार्टी कारवां बढ़ता गया...
तमिलनाडु में
द्रविड़ अस्मिता से जुड़ी पार्टी की स्थापना का इतिहास सौ साल पहले जाता है, जब मद्रास प्रेसिडेंसी में गैर-ब्राह्मणवादी भावों को स्वर देने वाली
'जस्टिस पार्टी' की स्थापना हुई. ब्रिटिश इंडिया में 'जस्टिस पार्टी' कांग्रेस का विकल्प थी, और 1920 में इसने प्रेसिडेंसी में हुए पहले सीधे चुनावों में जीतकर सरकार बनाई. लेकिन 1937 में पार्टी की चुनावों में हार हुई. इसी दौर में विचारक
'पेरियार' पार्टी के प्रमुख बने, और उन्होंने पार्टी का नाम बदलकर
'द्रविड़ कझगम' की स्थापना की. साल था 1944. फिर आजादी के बाद 'पेरियार' से कई व्यक्तिगत और सैद्धांतिक दिक्कतों के चलते
सी एन अन्नादुराई ने भिन्न रास्ता चुना और नई पार्टी की स्थापना की, और उसका नाम रखा
'द्रविड़ मुनेत्र कझगम' (DMK).
DMK चुनावों में उतरी, लेकिन बाकी मुल्क की तरह ही तमिलनाडु में भी पचास का दशक और साठ के शुरूआती साल कांग्रेस के साल रहे. फिर साठ ख़तम होते-होते भाषाई आंदोलन बुलंद हुआ, और DMK अन्नादुराई के नेतृत्व में सत्ता में आ गई. वजन देखिये,
DMK अपने दम पर राज्य की सत्ता हासिल करने वाली
पहली गैर कांग्रेसी पार्टी थी. साल था 1967. लेकिन दो साल बाद ही अन्नादुराई की मृत्यु के साथ पार्टी फिर दोराहे पर आ गई. कुछ साल
करुणानिधि के नेतृत्व में सरकार चली, एक चुनाव भी जीता. लेकिन
एम जी रामचंद्रन का अलग होकर
'ऑल इंडिया अन्ना डीएमके' (AIADMK) बनाना निर्णायक साबित हुआ. रामचंद्रन की पार्टी सता में आई, और 87 में उनकी मृत्यु तक सत्ता में हिस्सेदारी करती रही. एम जी रामचंद्रन के दौर में ही द्रविड़ अस्मिता वाली पार्टी ने केंद्र में सत्ता की हिस्सेदारी शुरू की. यह दौर नब्बे के दशक में और उभरकर सामने आया, जब देश की राष्ट्रीय राजनीति ने
गठबंधन का दौर देखा.
जयललिता और करुणानिधि जैसे क्षेत्रीय पार्टी नेता, केंद्र में सत्ता को निर्णायक तरीके से तय करने वाली भूमिकाओं में पहुंचे. एक समय था जब जयललिता की समर्थन वापसी ने ही केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिराई. और आज उन्हीं जयललिता का सपना राज्य की सत्ता के सहारे खुद प्रधानमंत्री पद तक पहुंचना है.
करप्शन से लेकर सिनेमा तक, दो मुख्य द्रविड़ पार्टियों के इर्द गिर्द घूमती कई और बातें हैं तमिलनाडु की राजनीति में, जो इन द्रविड़ पार्टियों की राजनीति को बाकी देश से कुछ अलग और बहुत दिलचस्प बनाती है. आज मौका है, तो क्यों ना समझा जाए तमिल राजनीति के दांव-पेच को.
करप्शन का खेला
नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के एक ताज़ा सर्वे ने तमिलनाडु को देश के
सबसे भ्रष्ट राज्यों में से एक घोषित किया है. चुनाव सुधार संस्था असोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के सर्वे में भी वोटर्स ने करप्शन को चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बताया. लेकिन तमिलनाडु की प्रमुख पार्टियों की चुनावी रैलियों और भाषणों में करप्शन फिर भी बड़ा मुद्दा नहीं बनता. क्यों?
वजह है, 'जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते'.
सत्ता और विपक्ष, करप्शन के मुद्दे पर दोनों घिरे हैं. यहां दोनों पार्टियों की चादर बराबर मैली है.
ADR के ही एक और सर्वे के मुताबिक तीनों प्रमुख मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार - जयललिता, करुणानिधि और विजयकांत चुनावों में खड़े दर सबसे अमीर लोगों की लिस्ट में शामिल हैं. वर्तमान मुख्यमंत्री जे जयललिता को तो आय से अधिक संपत्ति के मुक़दमे के चलते अपना मुख्यमंत्री पद तक छोड़ना पड़ा था. यह उनके नब्बे के दशक में मुख्यमंत्री रहने के दौरान का मुकदमा था, जहां उन पर 66 करोड़ की हेराफेरी का आरोप लगा.
लेकिन इससे भी ज्यादा बदनामी करवाई 1997 में पड़े उस छापे ने, जिसमें उनकी संपत्ति में 800 किलो चांदी, 28 किलो सोना, 750 जोड़ी जूते-चप्पल, 10,500 साड़ियां और 91 घड़ियां बरामद हुई थीं. उधर विपक्षी DMK भी 2G घोटाले में अपने हाथ और तत्कालीन केंद्र की यूपीए सरकार का भविष्य जला चुकी है. खुद मुख्यमंत्री करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को जेल जाना पड़ा.
लेकिन इसके बावजूद चुनावों में दोनों मुख्य पार्टियां एक-दूसरे को करप्शन के मुद्दे पर टारगेट नहीं करतीं. अपवाद था जब DMK ने पिछले विधानसभा चुनाव में ऐसा किया था, लेकिन माना गया कि इससे जयललिता को पब्लिक का
'सहानुभूति वोट' मिल गया और उन्होंने 196 सीटें जीतकर सरकार बनाई. ज़ाहिर है, इस बार चुनाव में जब जयललिता मुक़दमे से बरी होकर लड़ने खड़ी हुईं तो DMK ने फिर कोई रिस्क लेना ठीक नहीं समझा. उनकी पार्टी की ओर से खड़े हुए 'दागी' उम्मीदवारों को भी ख़ास इस मुद्दे पर टारगेट नहीं किया गया. नतीजा, दोनों ही पार्टियों के कुकर्म कालीन के नीचे.
और ये कालीन था 'मुफ्तमाल' का
तमिलनाडु की
'फ्रीबीज़' वाली राजनीति चुनावों में हर बार खबर बनती है. सोशल मीडिया के आने के बाद चुटकुलों का मसाला भी. यहां पार्टियां खुलेआम 'गिफ्ट' देकर मतदाताओं को बरगलाती रहीं हैं. कभी टीवी, कभी एजुकेशन लोन, कभी चावल का कट्टा. इस साल DMK के चुनावी वादों में सोलह लाख छात्रों को टेबलेट और लैपटॉप देने का वादा था, 3g और 4g कनेक्शंस के साथ, 10 जीबी हर महीने डाउनलोड के आप्शन के साथ. बीस किलो चावल मुफ्त देने वाली स्कीम लाने के वाडे के साथ पार्टी ने गरीब परिवारों को मुफ्त स्मार्टफ़ोन देने का वादा भी किया. इससे पहले भी DMK 2006 में रंगीन कलर टीवी देने का वादा कर बदनाम हो चुकी है. सत्तारूढ़ AIADMK ने भी इस साल स्कूटर और मोबाइल फ़ोन खरीद पर बड़ी सब्सिडी देने का ऐलान किया है.
मुफ्त में तोहफे देने वाली इस चुनावी राजनीति के पीछे की सबसे बड़ी वजह पार्टियों का चुनाव जीतने के शॉर्टकट ढूंढना है. असमान विकास और समाज में बढ़ती आर्थिक खाई से मतदाताओं का ध्यान भटकाना भी इसका लक्ष्य रहता है. इसके अलावा लोग तमिलनाडु में करप्शन से भी इस मुफ्तमाल का सम्बन्ध बताते हैं. दोनों पार्टियां बड़े करप्शन के आरोपों को ढकने के लिए इन मुफ्त के तोहफों के नकाब का इस्तेमाल करती हैं.
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. मुफ्त में टीवी, या मोबाइल देने की आलोचना तो हो सकती है, लेकिन भारत जैसे देश में सस्ता अनाज देना या स्कूलों में मिड डे मील जैसी योजना को शुरु करना अंतत: गरीब के पेट में रोटी पहुंचाना गिना जाएगा. जिस तरह 'अम्मा कैंटीन' जैसे प्रयोगों को लोकप्रियता मिली है, उसका AIADMK के इस बार भी स्पष्ट बहुमत से चुनाव जीतने में प्रमुख भूमिका है.
शराबबंदी का दांव
इस प्रैक्टिस की एक और आलोचना है. 2003 से ही तमिलनाडु में शराब का वितरण और बिक्री सरकार के हाथों में है, और सरकार इससे बड़ी रकम कमाती है. इससे भी 'मुफ्तमाल' का सम्बन्ध जुड़ा है. कहते हैं कि चुनावों के पहले और बाद में इस तरह सामानों की मुफ्त की बंदरबांट सरकार को कमाई के मोर्चे पर शराब की बिक्री से ज्यादा से ज्यादा माल कमाने को उकसाती है.
सरकार अपने फायदे के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को दांव पर लगा रही है, आलोचकों का कहना है.
यह आलोचना बीते सालों में बुलंद हुई है, शायद इसीलिये इस बार दोनों मुख्य द्रविड़ पार्टियों ने जीत के बाद शराबबंदी की घोषणा की है. या चाहें तो आप इसे बिहार चुनाव में नीतीश की जीत का आफ्टर इफैक्ट भी मान सकते हैं. इस चुनाव में विजय के बाद DMK ने एक ही झटके में, और AIADMK ने चरणबद्ध तरीके से शराबबंदी का अपने घोषणापत्रों में ऐलान किया है. अब जयललिता चुनाव जीतने के बाद इसे कैसे लागू करती हैं, यह देखने वाली बात होगी.
सिलेमा सिनेमा
वैसे तो पूरा भारत ही इस मायावी मनोरंजन माध्यम का दीवाना है, लेकिन तमिलनाडु की बात और है. यहां राजनेता फिल्मस्टार्स को चुनाव प्रचार के लिए नहीं बुलाते, यहां खुद सिनेमा के सितारे ही राजनीति के सरताज बन जाते हैं. सिनेमा और राजनीति का ये घालमेल, दक्षिण के एक से ज्यादा राज्यों की खासियत है. वर्तमान DMK और AIMDMK दोनों के सर्वोच्च नेता सिनेमा की दुनिया से राजनीति में आए, और अपने साथ सिनेमाई लटके झटके भी लेकर आए.
लेकिन सिनेमा और राजनीति का यह खेल, वोटर्स के बारे में भी एक बात बताता है. सिनेमा की मेलोड्रेमेटिक भावुकता से वोटर्स की भावुकता का एक तार जुड़ता है. जिसके साथ उसकी अस्मिता जुड़ जाती है, वो उसी का हो लेता है. जब भरी विधानसभा में जयललिता की साड़ी खींची गई, अगले चुनाव में जनता ने DMK का डब्बा गुल कर दिया. 2001 में करुणानिधि को आधी रात गिरफ्तार करने वाला एपिसोड भी खुद विपक्षियों के खिलाफ गया. 2004 में लोकसभा चुनाव में AIADMK प्रदेश में से साफ़ हो गई. हर दूसरे चुनाव में लैंडस्लाइड विक्ट्री भी इसी इमोशनल कनेक्ट का असर दिखाता है.
लेकिन दोनों पार्टियों की पिक्चर में अंतर भी है. DMK अगर पीढ़ियों में फ़ैली पूरी
फैमिली ड्रामा फिल्म है तो जयललिता की AIADMK
'वन मैन आर्मी' फिल्म है. DMK में सवाल है कि स्टालिन, अझागिरी और कनिमोझी में अगला नेता कौन, तो वहीं AIADMK में सवाल है कि जयललिता के बाद आखिर कौन. वैसे सत्ता का केन्द्रीकरण दोनों पार्टियों में है, लेकिन मुख्यमंत्री का वर्तमान कार्यकाल और निराला है. जयललिता के इस मुख्यमंत्री काल में सत्ता का कोई समान्तर केंद्र भी नहीं है.
नई पारी में जयललिता

जयललिता की यह विजय तमिलनाडु का चुनावी इतिहास बदलने वाली है. सत्ता को दोनों पार्टियों के बीच पलट-पलटकर पकानेवाली जनता ने इस बार सत्तारूढ़ पार्टी को निर्णायक बहुमत दिया है. कोर्ट के आदेश के बाद जयललिता का सत्ता छोड़ना, और फिर बरी होकर वापस गद्दी पर आना उनके खिलाफ नहीं, बल्कि उनके पक्ष में गया है. जहां DMK को पारिवारिक भीतरघात का नुकसान हुआ, जयललिता ने एकछत्र सत्ता चलाई है. उन्हें हटा दें तो पार्टी में दूर दूर तक वैकल्पिक नेतृत्व नज़र नहीं आता, यही उनका प्लस पॉइंट भी है और यही माइनस भी. माइनस इसलिये कि बीते दिनों उनकी खराब तबियत ने उनके चाहनेवालों, और उनके विपक्षियों को भी कौतुहल से भर दिया है. इस नई पारी में, जिस कार्यकाल में जयललिता संभवतः केंद्र की गद्दी का दांव खेलना चाहती हैं, उनका अच्छा या खराब स्वास्थ्य कई राजनैतिक समीकरण तय कर सकता है.
लेकिन इतना तय है कि भारत के दक्षिणी सिरे पर उनकी इस दोबारा हुई निर्णायक जीत ने 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संभावित प्रतिद्वंद्वियों में नीतीश कुमार, अरविन्द केजरीवाल और ममता बनर्जी से साथ एक और नाम जोड़ दिया है.
जयललिता द्रविड़ राजनीति से निकली पार्टी की नेता हैं, लेकिन 'हिंदू अस्मिता' के विवादित मुद्दों पर कई बार बीजेपी के साथ खड़ी हो जाती हैं. वे बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट, भारतीय ताजनीति के इन तीनों वैचारिक ध्रुवों तक सीधी गति रखती हैं और सबकी सहयोगी रह चुकी हैं. स्पष्ट है कि केंद्र में दावेदार चाहें वे बनें या नहीं, शर्तिया इतना तो हुआ ही है कि उन्होंने 2019 के लिए खुले इस वृहत राजनैतिक मैदान को और मजेदार बना दिया है.