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कफिया: सफेद-काले रंग का ये कपड़ा दुनियाभर में फिलिस्तीन की आवाज कैसे बन गया?

सिर और गले में कफ़िया पहनकर दुनिया भर के देशों में लोग फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं. जानें इसकी कहानी.

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कफ़िया पहनकर फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन करते हुए लोग. (फोटो सोर्स- AFP)

सात दिसंबर को इज़रायल-हमास जंग (Israel Hamas War) शुरू हुए दो महीने पूरे हो जाएंगे. गाज़ा पट्टी से मौत और तबाही की कहानियां फिर बाहर आ रही हैं. जंग शुरू होने के बाद से फिलिस्तीनियों के समर्थन में दुनिया भर के कई देशों में प्रदर्शन हुए हैं. प्रदर्शनकारियों के पास फ़िलिस्तीनी झंडे और तरबूज के अलावा एक और ख़ास चीज दिखती है. एक सूती गमछे जैसा कपड़ा, जिसे पारंपरिक तौर पर 'कफ़िया' (The Palestinian keffiyeh) कहते हैं. प्रदर्शनकारी इसे अपने सिर या गले में पहने रहते हैं. 

ज्यादातर फिलिस्तीनियों के लिए कफ़िया संघर्ष और प्रतिरोध का प्रतीक है. एक राजनीतिक और सांस्कृतिक ‘हथियार’ है. और ये पिछले 100 सालों से प्रासंगिक रहा है. इसीलिए इसे फिलिस्तीन का 'अनौपचारिक झंडा' भी कहा जाता रहा है. कफ़िया पहनने की शुरुआत कहां से हुई, ये कितना अहम है और ये फिलिस्तीनियों के लिए एक प्रतीक कैसे बना?

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कफ़िया की शुरुआत

इतिहासकारों का मानना है कि इसका चलन 7वीं सदी में इराक़ी शहर कुफ़ा से शुरू हुआ. इसीलिए इसे कफ़िया कहा जाने लगा. धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल बढ़ा. सांस्कृतिक या राजनीतिक नहीं, बल्कि जरूरत के चलते. 20वीं सदी की शुरुआत में अरब के किसान और खानाबदोश खुद को धूप, हवा और रेगिस्तान की रेत से बचाने के लिए कफ़िया पहनते थे.

शहरों में बहुत कम अरब लोग कफ़िया पहनते थे. वे दूसरे महीन कपड़े, जैसे फ़ेज़ (जिसे तारबुश भी कहा जाता था) पहनते थे. ये एक लाल टोपी होती थी. जो ऑटोमन शासक महमूद द्वितीय के वक़्त प्रचलन में आई थी. साल 1930 आते-आते, फिलिस्तीनी समुदाय में कफ़िया का अपना ख़ास मतलब समझा जाने लगा. इसका इस्तेमाल तेजी से बढ़ने लगा.

पुराने दौर में कफ़िया पहने हुए लोग (फोटो सोर्स- Getty) 
साल 1936 का विद्रोह

1930 के दशक में फिलिस्तीनी इलाक़े ब्रिटिश शासन के अधीन थे. पहली वर्ल्ड वॉर के बाद फिलिस्तीनी इलाके यूनाइटेड किंगडम को दे दिए गए. 1948 तक यूनाइटेड किंगडम का शासन रहा. फिलिस्तीनियों का मानना था कि अंग्रेज यहूदी राष्ट्र बनाए जाने के प्लान (ब्रिटिश जायनिस्ट प्लान) के पक्ष में हैं. उधर यूरोप में यहूदियों पर अत्याचार बढ़ा तो यहूदी, पश्चिम एशिया के इलाके में आने लगे. साल 1936 से 1939 तक राष्ट्रवादी अरबों ने इसका विरोध किया. दोनों समुदायों के बीच कई बार टकराव हुआ. इस दौरान कफ़िया की भी अपनी भूमिका थी.

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बीबीसी के मुताबिक, कफ़िया के राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व पर शोध करने वाली इतिहासकार जेन टायनन कहती हैं,

“ब्रिटेन की मौजूदगी से फिलिस्तीनी हताश थे और प्रतिरोध करने का सबसे सही तरीका था कि पहचान ज़ाहिर न हो. और इस तरह कफ़िया, ब्रिटिश प्रशासन को सकते में डालने की रणनीति का हिस्सा बन गया.”

साल 1938 में विद्रोही अरब नेताओं ने शहरों में रहने वाले सभी अरबी लोगों को कफ़िया पहनने को कहा.

यहूदीयों के पश्चिम एशिया में बसने के खिलाफ 1937 के दौरान अरब लोगों के विरोध प्रदर्शन का एक चित्र (फोटो- Getty)

सब एक ही तरह की पोशाक में रहते. इसके चलते लोगों की पहचान मुश्किल हो गई. ब्रिटिश सैनिक कन्फ्यूज़ हो जाते थे. विद्रोहियों के लिए काम करना आसान हो गया. कफ़िया का इस्तेमाल इतना सफल हुआ कि ब्रिटिश लोगों ने इसे बैन करने की भी कोशिश की, लेकिन असफल रहे.

A Socio-Political history of Kafia के लेखक अनु लिंगाला के मुताबिक, ये एक प्रभावी सैन्य रणनीति थी. साथ ही ये एकजुट होकर प्रतिरोध दर्ज कराने का भी प्रतीक बन गया.

लिंगाला के मुताबिक,

“इस परिधान के साथ 1938 में घटी घटना को फिलिस्तीनी संस्कृति में अहम मोड़ माना जाता है, जब राष्ट्रवादी मकसद के चलते एकजुटता के पक्ष में और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ सभी मतभेदों को दरकिनार कर दिया गया.”

जेन टायनन के मुताबिक, उस वक़्त से ही कफ़िया फ़िलिस्तीनी निर्णय, इंसाफ़ और एकजुटता का प्रतीक बन गया. जेन कहती हैं,

"ये विद्रोहियों को ये बताने का तरीक़ा था कि हम सब आपके साथ हैं.”

फोटो सोर्स- Getty
कफ़िया किस तरह का होता है?

कफ़िया अलग-अलग रंग और डिज़ाइन का हो सकता है. लेकिन जो कफ़िया अब फ़िलिस्तीनी लोगों की पहचान बना है वो काला और सफ़ेद है और इसके तीन पैटर्न होते हैं. इसमें बनीं जैतून की पत्तियां, इलाक़े के जैतून के पेड़ों और इसकी ज़मीन से जुड़ाव को दिखाती हैं. वहीं लाल रंग का कफ़िया, फिलिस्तीनी मछुआरों और भूमध्य सागर के साथ उनके संबंध को दर्शाता है. जबकि इसकी काली लाइनें, फिलिस्तीन के पड़ोसी देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते को दिखाती हैं.

दुनिया भर में कैसे प्रचलित हुआ कफ़िया?

विद्रोह के बाद के सालों में फिलिस्तीनियों के बीच कफ़िया विद्रोह का प्रतीक बन चुका था. 14 मई 1948 को नया देश इजरायल बना. फिलिस्तीनियों के लिए सबसे दर्दनाक इस तारीख को ‘नकबा’ कहते हैं. इस दौरान 7 लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था. इतिहासकार मानते हैं कि इसी दौरान कफ़िया के चलन में सबसे ज्यादा तेजी आई. 60 के दशक तक यासिर अराफ़ात फिलिस्तीनी हितों का फेस बन चुके थे. उनके चलते कफ़िया दुनिया भर में भी जाना जाने लगा. अराफ़ात की शायद ही कोई ऐसी तस्वीर हो जिसमें वो कफ़िया न पहने हों. सीरिया, जॉर्डन और लेबनान में लड़ाई के दौरान और उसके बाद 1974 में UN में फ़िलिस्तीनियों के पक्ष में भाषण देते हुए और फिर 20 साल बाद जब ओस्लो में नोबेल शांति पुरस्कार मिला, हर वक़्त अराफ़ात कफ़िया पहने थे.

यासिर अराफ़ात (फोटो सोर्स- Getty)

जेन टायनान के मुताबिक,

“राजनीतिक बयान देते समय अराफ़ात आम तौर पर कफ़िया ही पहनते थे. वो अपने दाहिने कंधे पर इसे इस तरह रखते थे कि ये 1948 के पहले वाले फिलिस्तीन के आकार का लगे."

सिक्स डे वॉर के बाद जब इज़रायल ने फिलिस्तीनी झंडे को प्रतिबंधित कर दिया तब कफ़िया फिलिस्तीन के लोगों का और बड़ा प्रतीक बनकर उभरा. यहां तक कि फिलिस्तीन की महिलाएं भी इसका इस्तेमाल करने लगीं. पॉपुलर फ़्रंट फ़ॉर द लिबरेशन ऑफ़ फिलिस्तीन की मेंबर रहीं लीला खालिद की AK-47 राइफ़ल के साथ कफ़िया पहने एक तस्वीर साल 1969 में काफ़ी चर्चित हुई थी.

फिलिस्तीन के वेस्ट बैंक में लीला खालिद की वाल पेंटिंग (फोटो सोर्स- Getty)

धीरे-धीरे कफ़िया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक फ़ैशनेबल पहनावा बन गया, ख़ास तौर पर पश्चिम के देशों में. जेन के मुताबिक अमेरिका और यूरोप में मीडिया में आने की वजह से कफ़िया लोकप्रिय हुआ और फिर यह बहुत आकर्षक फ़ैशन बन गया. 1990 के दशक में दुनिया की कुछ बड़ी शख़्सियतें भी कफ़िया पहनने लगीं. जैसे फ़ुटबॉलर डेविड बेकहम और म्यूजिशियन रोजर वाटर्स. लुई विटन जैसे बड़े ब्रांड्स ने भी कफ़िया बनाना शुरू कर दिया. फिलिस्तीन में एक फैक्ट्री साल 1961 से कफ़िया बना रही है.

लेबनानी मॉडल नताली फदलल्लाह (फोटो- Getty)

कफ़िया भले ही फ़ैशनेबल चीज़ बन चुकी है, लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि इसका राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व कभी कम नहीं हुआ. इज़रायल-हमास युद्ध के दौर में भी कफ़िया की प्रासंगिकता है. सफ़ेद और काले रंग के कपड़े का एक टुकड़ा दुनिया भर में एक युद्धग्रस्त समुदाय की आवाज बना हुआ है. इसको लेकर विवाद भी हैं. जर्मनी जैसे कुछ देश इस पर पाबंदी तक लगा चुके हैं.

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