शिव के अपमान से पड़ी सती प्रथा की नींव!
कैसे शुरू हुई सती प्रथा? जवाब मिलेगा श्रीमद्भगवत पुराण की इस कहानी में.
देवी सती दक्ष और प्रसूति की बेटी, मतलब ब्रह्मा जी की पोती थीं. शिव जी से शादी करने के लिए उन्होंने बहुत कठिन तपस्या की थी. वो शिव की पहली पत्नी थीं और शिव उनसे बहुत प्यार करते थे. एक बार सती के पापा ने घर में बहुत भारी यज्ञ किया. उसमें उन्होंने शिव को इनवाइट नहीं किया. सती को जब इस बारे में पता चला तो बहुत अपसेट हो गईं. उन्होंने भगवान शिव से चलने की रिक्वेस्ट की पर सेल्फ-रेस्पेक्ट के चक्कर में शिव नहीं गए. वो ज़िद करती रहीं और शंकर जी मना करते रहे. पार्वती जी भी गुस्से में अकेली ही निकल लीं. उनको अकेले जाता देख शंकर जी भी चेले-चपाटी के साथ चल दिए. मायके पहुंचकर भी सती को बहुत कुछ झेलना पड़ा. उनके मायके वाले शंकर जी के खूब उल्टा-सीधा बक रहे थे. जब बात बर्दाश्त के बाहर हो गई तो सती अपने पापा से बोलीं कि मुझे आपकी बेटी होते हुए आज शर्म आ रही है क्योंकि आपने भगवान की इज्जत करना नहीं सीखा. आगे कभी लोग आपके नाम से मेरा नाम जोड़ेंगे जो मुझे बहुत दुख होगा. ऐसे में अच्छा यही है कि में अपनी जान ले लूं. फिर पापा दक्ष और सभी लोगों के सामने सती ने पीला कपड़ा ओढ़ा और यज्ञ में जा बैठीं. सती के नाम से आज सती प्रथा को जोड़ा जाता है. ये तो आपको पता ही होगा कि यह एक ऐसा रिवाज था जिसमें औरतें खुद को पति की जलती चिता में झोंक देती थीं. सती के सबसे पुरानी घटनाओं के सबूत चौथी सदी से मिलते हैं. पर यह प्रैक्टिस कैसे और क्यों शुरू हुई इसके पीछे की सही-सही कहानी का पता लगाना मुश्किल है. जानकार मानते हैं कि यह प्रथा क्षत्रियों में पहले शुरू हुई. लड़ाइयों में जब क्षत्रिय हार जाते थे, तब उनकी पत्नियों पर हमेशा दुश्मनो से सताए जाने और बलात्कार का खतरा रहता था. तब अपना 'मान बचाने' के लिए औरतें सुसाइड करना ही सही समझती थीं. तब इस प्रथा को 'सहगमन' मल्लब कि पति के साथ जाना, या फिर 'सहमरण' यानी पति के साथ मरना कहते थे. राजपूतों में इसी को जौहर कहा गया है. युद्ध के टाइम जब कई सैनिक एक साथ मारे जाते थे, तो उनकी पत्नियां एक साथ जलती हुई आग में कूद जाती थीं. सती की कहानी से सती प्रथा को जोड़ा जाता है. बाद के दिनों में 'सती हो जाना' विधवा की पवित्रता का प्रूफ हो गया था. बात औरतों के मान से शिफ्ट होकर आदमियों, फिर जाति और फिर कुल के मान की हो गई थी. लेकिन औरत सिर्फ शिकार बनी रही. सिर्फ हिंदुओं, जैनों और सिखों में ही नहीं, साउथ-ईस्ट एशिया और इंडोनेशिया तक में सती की घटनाएं देखी गईं. हालांकि 1857 की लड़ाई के कुछ साल बाद ही यह प्रथा बैन कर दी गई. फिर भी कुछ कमदिमाग़ लोगों ने उसे ज़िंदा रखा और कुछ साल पहले तक ऐसे केस सामने आते रहे. रिकॉर्ड्स के मुताबिक सती का लेटेस्ट केस 1987 में राजस्थान के सीकर जिले में देवराला गांव से आया. शादी के 8 महीने बाद ही जब पति मर गया तो 18 साल की रूप कंवर भी उसकी चिता के साथ जल गई. कुछ लोगों ने कहा कि उसके साथ ज़बरदस्ती की गई. कुछ का मानना था कि ऐसा उसने अपनी इच्छा से किया. अगर औरत अपनी इच्छा से भी सती जैसी प्रथा में भाग ले, तब भी इस पर विचारना चाहिए कि वह अपनी मर्जी से जान देने को क्यों आतुर होती है? इसकी जड़ें आपको पुरुष सत्ता के चरित्र में मिलेंगी. भले ही सती जैसी चीज़ खत्म हो गयी है, पर अब भी औरत को उसके शरीर और उसकी सेक्स लाइफ के आधार पर जज किया जाता है. पवित्रता और उसके प्रमाण का बोझ ढोती हुई औरत आज भी मानसिक तौर पर तो सती होती ही है. (श्रीमद्भगवत महापुराण)