कुर्सी नाम की एक शै होती है. बैठने के काम आती है. हालांकि हर कुर्सी एक सी नहीं होती. मेज़ के इस तरफ़ रखी हो तो बॉस बन जाती है, और दूसरी तरफ़ रखो तो मुलाजिम. सैकड़ों कुर्सियों के सामने एक अकेली कुर्सी रखी हो तो सत्ता बन जाती है और कुर्सी हो ही ना तो रियाया बन जाती है. रियाया कुर्सी पर बिठाती है, और कुर्सी से उखाड़ भी फेंकती है. कुर्सियां अनेक होती हैं, लेकिन अपने पड़ोसी देश के पास एक ऐसी कुर्सी है. जिसके बारे में कहा जाता है कि, जब तक उस पर बैठे हो, पूरी ताक़त आपकी है. हालांकि अगर कुर्सी छूट गई तो सत्ता तो जाएगी ही जाएगी, जान के भी लाले पड़ जाएंगे. (Death of Zia-ul-Haq)
ज़िया उल हक़ की मौत से मोसाद का क्या कनेक्शन था?
पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया-उल-हक़ की मौत, हादसा या साज़िश?
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आज बात एक ऐसे शख़्स की जो पाकिस्तान की कुर्सी पर 11 साल बैठा. मौत आई एक हादसे में. लेकिन 35 साल से लोग कहते हैं, कुर्सी से हटाने के लिए हादसा किया गया. हम बात कर रहे हैं, पाकिस्तान (Pakistan) के छठे राष्ट्रपति ज़िया उल हक की. जो एक प्लेन हादसे में मारे गए थे. लेकिन 35 सालों से पता नहीं चल पाया है कि ये हादसा था कि साज़िश. CIA ने गोटी फ़िट की या मोसाद(Mossad) ने. या ज़िया को ले डूबे वो आम जिन्हें वे अपने प्लेन में लेकर रावलपिंडी जा रहे थे. ये सोचकर कि उन्हें अपने दुश्मनों की तरह गुठली समेत निगल जाएंगे. (Zia-ul-Haq death mystery)
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90 दिन बचे हैं
ये कहानी शुरू होती है बहावलपुर नाम की जगह से. बहावलपुर पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब में पड़ता है. साल 1988, 16 अगस्त के रोज़ पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ का प्लेन बहावलपुर में लैंड करता है. यहां कुछ रोज़ पहले एक अमेरिकी नन की हत्या हुई थी. और इसी चक्कर में राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ दौरा कर रहे थे. हालांकि उनके दौरे का असली मक़सद कुछ और था. अगले रोज़ यानी 17 अगस्त को उन्हें टामेवाली पहुंचना था. टामेवाली बहावलपुर से 60 किलोमीटर दूर है. ये इलाक़ा रेगिस्तान को छूता है. टामेवाली के नाम के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है.
दरअसल साल 1900 में इस जगह पर एक उल्कापिंड गिरा था. जिसकी खोज एक अंग्रेज अफ़सर ने की थी. इस अफ़सर का नाम था टॉमी. लिहाज़ा जगह का नाम पड़ गया टॉमीवाली. जो आगे जाकर टामेवाली बन गया.बहरहाल टामेवाली में ज़िया उल हक़ अमेरिकी MI - अबराम टैंकों का प्रदर्शन देखने आए थे. डॉन अख़बार की तब की रिपोर्ट के अनुसार ज़िया, टैंकों के प्रदर्शन से कुछ खुश नहीं थे. कुछ देर रुकने के बाद उन्होंने लौटने की ठानी. लेकिन उससे पहले एक दिलचस्प वाक़या हुआ.
पाकिस्तान फ़ौज के एक अफ़सर मेजर जनरल महमूद दुर्रानी प्रदर्शन की कमान सम्भाल रहे थे. लेक्चर के दौरान किसी टेक्निकल डीटेल को समझाते हुए उन्होंने किसी मसले पर कहा कि उसमें 90 दिन बचे हैं. इसके तुरंत बाद तुरंत अपनी ही बात को काटते हुए दुर्रानी बोले,
"प्लीज़ ये मत समझना की मैं ज़िया के 90 दिनों तक बचे रहने की बात कर रहा हूं".
ये बात सुनकर सब ज़ोर से हंस पड़े.
इसके बाद जनरल ज़िया और उनका कारवां हेलिकॉप्टर से बहावलपुर लौटा. यहां सबने आर्मी मेस में दोपहर का भोजन किया. भोजन समाप्त होने के बाद ज़िया अपने लॉकहीड C-130 हर्कुलीज़ विमान में बैठ गए. ज़िया की आदत थी कि अक्सर वो किसी अफ़सर को अपने साथ बैठने को कह देते. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. उन्होंने कई लोगों को अपने VVIP प्लेन में आने ना न्यौता दिया. फ़ौज के कुछ अफसरों के अलावा दो अमेरिकी भी ज़िया के न्यौते पर प्लेन में सवार हुए. इनमें एक पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत आर्नोल्ड राफ़ेल थे और दूसरे, US आर्मी के ब्रिगेडियर हर्बर्ट वैसम.
दोपहर 3 बजकर 40 मिनट पर राष्ट्रपति का प्लेन बहावलपुर हवाई अड्डे से उड़ान भरता है. प्लेन में कुल 30 लोग सवार थे. जिनमें 17 यात्री और 13 क्रू के लोग थे. प्लेन में एक एयर कंडीशन कैप्सूल लगा था. जिसमें ज़िया और उनके अमेरिकी मेहमान बैठे थे. अगले 10 मिनट सब कुछ ठीक था लेकिन फिर 3 बजकर 51 मिनट पर प्लेन का संपर्क बहावलपुर कंट्रोल टावर से टूट जाता है. वैनिटी फ़ेयर्स के लिए लिखी रिपोर्ट में अमेरिकी पत्रकार जे एपस्टीन ने तब इस घटना का ब्यौरा दर्ज किया था. उनके अनुसार पास के गांव वालों ने देखा कि प्लेन आसमान में हिचकोले खा रहा था. कभी ऊपर कभी नीचे. मानों किसी अदृश्य रोलर कोस्टर पर बैठा हो.
तीसरे गोते में प्लेन सीधे जाकर ज़मीन से टकराया और नोक के बल रेत में धंस गया. चंद सेकेंड बाद प्लेन में आग लग गई और जल्द ही वो आग के एक बड़े गोले में तब्दील हो गया. ज़िया उल हक़ समेत प्लेन में सवार एक भी शख़्स ज़िंदा नहीं बच पाया. प्लेन हादसे की खबर शाम तक पूरे देश में फैल चुकी थी. रात को TV रेडियो से घोषणा हुई और अगले ही रोज़ पाकिस्तान के छठे राष्ट्रपति ज़िया उक हक़ का शरीर सुपुर्द-ए ख़ाक कर दिया गया. अब बारी थी इंवेस्टिगेशन की.
तहक़ीक़ात
ज़िया उल हक़ के बाद अगले राष्ट्रपति बने ग़ुलाम इशाक खान. इशाक खान के पास जांच एजंसियों ने जो रिपोर्ट भेजी. वो 365 पन्नों की थी. पूरी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई. रिपोर्ट के कुछ पन्ने ही सामने आए. जिसमें लिखा था कि इस हादसे में ज़रूर कोई बाहरी या अंदरूनी हाथ है. इस प्लेन में दो अमेरिकी अधिकारी भी मारे गए थे. इसलिए जांच में अमेरिका ने भी सहयोग किया. लेकिन अमेरिकी और पाकिस्तनी अधिकारियों का मत अलग था. अमेरिकी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि टेक्निकल फ़ॉल्ट के चलते प्लेन हादसा हुआ. जबकि पाकिस्तानी अधिकारियों के अनुसार प्लेन में गड़बड़ी के कोई लक्षण नहीं थे.
सारे सिस्टम सही काम कर रहे थे. प्लेन में दो हायड्रॉलिक सिस्टम लगे थे. एक ख़राब होने पर भी दूसरा काम कर सकता था. प्लेन पर किसी मिसाइल से भी हमला नहीं हुआ था. ना प्लेन क्रैश होने से पहले उसमें आग लगी थी. इसलिए उनके अनुसार हादसे का कारण सिर्फ़ एक हो सकता था. किसी ने ज़िया की हत्या की साज़िश की थी. लेकिन किसने और कैसे. इस सवाल का जवाब अभी तक किसी के पास नहीं आया था. आगे क्या थियोरियां बनी, उससे पहले आपको घटना से कुछ रोज़ पहले ले चलते थे. अगस्त के शुरुआती दिनों में जब बहावलपुर में टैंक परीक्षण का प्लान बना. ज़िया का जाना इस प्लान में शामिल नहीं था. ज़िया उल हक़ के बेटे एजाजुल हक़, द हिंदू अख़बार से बात करते हुए बताते हैं, जनरल ज़िया का जाने का कोई प्लान नहीं था. लेकिन मेजर जनरल महमूद दुर्रानी उनसे बार बार ज़िद करते रहे. एक बार को तो ज़िया ने चिड़ के बोल भी दिया.
"इसकी दिक़्क़त क्या है. ये मेरे जाने की इतनी ज़िद क्यों कर रहा है".
इसके बावजूद ज़िया उल हक़ उस रोज़ बहावलपुर ग़ए. जो उनकी आख़िरी यात्रा साबित हुई. ज़िया की मौत के पीछे कौन था, ये बात कभी सामने नहीं आ पाई. कुछ इशारे ज़रूर मिले. मसलन प्लेन के मलबे के परीक्षण में फास्फोरस के अवशेष पाए गए. जो आमतौर पर विमान संरचनाओं, ईंधन आदि में नहीं पाया जाता. लेकिन इस मसले पर आगे कोई जांच नहीं की गई. इस्लाम का हवाला देकर मृत शरीरों के पोस्टमोर्टेम भी नहीं करवाए गए. आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने नवाज़ शरीफ़ ने इस प्लेन हादसे की जांच के लिए शफ़ी उर रहमान कमीशन का गठन किया. लेकिन इस कमीशन की रिपोर्ट भी कभी सार्वजनिक नहीं की गई. चूंकि आधिकारिक रूप से बात कभी सामने नहीं आई. इसलिए बची सिर्फ़ कुछ कांसपिरेसी थियोरीज.
पहली थियोरी- CIA का हाथ
ज़िया उल हक़ के बेटे एजाजुल हक़ प्लेन बनाने वाली कम्पनी लॉक हीड मार्टिन पर केस करना चाहते थे. डॉन अख़बार से बात करते हुए वो बताते हैं,
"हम पैसे नहीं चाहते थे. बस ये प्रूव करना चाहते थे कि प्लेन में कोई दिक़्क़त नहीं थी. लेकिन हमें ऐसा करने से रोक दिया गया".
एजाजुल के अनुसार अमेरिकी इंटेलिजेन्स कम्यूनिटी में उनके पिता के दोस्तों ने उन्हें इस केस से पीछे हट जाने का सुझाव दिया और कहा,
'तुम्हें अभी भी उस देश में रहना है'.
ज़िया का परिवार एक मशहूर अमेरिकी वकील से भी मिला. ली बेली नाम के इस वकील ने शुरुआत में बहुत उत्साह दिखाया लेकिन फिर एक रोज़, बक़ौल एजाजुल हक़, ली बेली को एक सरकारी अमेरिकी अधिकारी ने लंच पर बुलाया, जिसके बाद उसने फ़ोन उठाना बंद कर दिया. इस मामले में CIA का हाथ होने की कई बातें हुई. कहा गया कि सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान से लौटने के बाद ज़िया उल हक़ CIA के लिए परेशानी का कारण बन गए थे. ज़िया उल हक़ उन मुजाहिदीनों को भी हथियार पहुंचा रहे थे, जो एंटी अमेरिकी सेंटिमेंट्स रखते थे. कारण और भी हो सकते थे. मसलन अपनी किताब 'Charlie wilson's war: The Extraordinary Story of the Largest Covert Operation in History" में जॉर्ज क्रिले लिखते हैं,
"अफ़ग़ान युद्ध के दौरान ज़िया उल हक़ और अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन के बीच गुप्त समझौता हुआ था. जिसके तहत पाकिस्तान की मदद के एवज़ में अमेरिका पाकिस्तान को परमाणु सहयोग देने वाला था". लेकिन फिर अमेरिका अपने इस वादे से पलट गया. 1987 में पाकिस्तानी मूल के एक व्यवसायी अरशद परवेज को अमेरिका में परमाणु हथियार बनाने का सामान ख़रीदते पकड़ा गया. अरशद जनरल ज़िया का एजेंट था. ये बात सामने आने के बाद अमेरिकी कांग्रेस पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद में कटौती की मांग करने लगी. लिहाज़ा ऐसी सम्भावनएं जताई गई कि हो सकता है CIA ने ज़िया को रास्ते से हटाने के लिए ये कदम उठाया हो".
दूसरी थियोरी- अंदरूनी साज़िश
ज़िया उल हक़ के बेटे एजाजुल हक़ के अनुसार इस काम के पीछे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बेटे मुर्तजा भुट्टो का हाथ था. मुर्तज़ा का एक और भाई था, शहनवाज.1980 में दोनों ने मिलकर एक छापामार दस्ता बनाया. नाम रखा- अल जुल्फिकार. इसका मकसद था ज़िया को रास्ते से हटाना. बेनजीर इससे सहमत नहीं थीं. इसी को लेकर उनका अपने भाई मुर्तजा से मतभेद भी हुआ. 1985 में शहनवाज की हत्या कर दी गई. बचे मुर्तजा. एजाजुल के अनुसार इस काम को मुर्तजा ने अंजाम दिया था, जिसमें उन्हें कुछ आर्मी जनरल्स का सहयोग मिला था.
तीसरी थियोरी - मोसाद
एजाजुल हक़ बताते हैं. घटना के सालों बाद एक मिलिट्री सोर्स से उन्हें पाकिस्तानी एयर फ़ोर्स के एक पाइलट का पता चला. जिसका नाम अकरम आवाम था. अकरम को हादसे से कुछ महीने पहले मोसाद और R&AW के लिए जासूसी करने के संदेह में गिरफ़्तार किया गया था. एजाज़ के अनुसार प्लेन हादसे के कुछ हफ़्ते बाद उन्हें एक विडियो दिखाया गया. इस विडियो में अकरम कुछ बोल रहा था. उसे पता चला कि प्लेन में उसके पिता भी सवार थे. जब उसे इस बात का पता चला, वो रोते हुए बोला,
"मुझे नहीं पता था, वे कमीने इस काम के लिए नर्व गैस का इस्तेमाल करने वाले थे".
यहां से इस कहानी में एंट्री होती है, आमों की उन पेटियों की जो इस हादसे का सबसे चर्चित पहलू हैं.
ज़िया उल हक़ जब बहावपुर से प्लेन में सवार हुए, उन्होंने अपने साथ आमों की कुछ पेटियां भी प्लेन में रखवा ली. इन पेटियों को लेकर भी एक थियोरी है. माना जाता है कि इन पेटियों में नर्व गैस भरी थी. जो प्लेन के उड़ते ही एक्टिव हुई. और सभी लोग बेहोश हो गए. डॉन अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार बहावलपुर में आम की सभी पेटियां अच्छी तरह चेक की गई थीं. लेकिन फिर भी ये अफ़वाह खूब फैलाई गई कि आम की पेटियों से ही प्लेन हादसा किया गया था. हालांकि ऐसा मानने वालों में सिर्फ़ conspiracy theorist अकेले नहीं है.
न्यू यॉर्क टाइम्स की साउथ एसिया ब्यूरो चीफ़ रह चुकी बारबरा क्रोसेट, अपनी रिपोर्ट 'व्हू किल्ड ज़िया' में लिखती हैं , जब प्लेन हादसा हुआ, उस समय जॉन गंथर डीन, भारत में अमेरीकी राजदूत के तौर पर काम कर रहे थे. उनका मानना था कि जिस बारीकी से इस ऑपरेशन को अंजाम दिया गया था, उसमें मोसाद के सिग्नेचर दिखाई पड़ते थे. गंथर डीन को जो सूचना मिली उसके अनुसार इस काम में VX नाम की गैस का इस्तेमाल हुआ था. जो नर्व एजेंट के तौर पर इस्तेमाल होती है. गंथर इस मामले में ब्रीफ़ देने के लिए वापिस अमेरिका गए लेकिन आश्चर्य जनक रूप से उन्हें राजदूत के पद से ही हटा दिया गया. और बाद में मानसिक अवसाद का कारण बताकर उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई.
ज़िया उल हक़ पाकिस्तान पर सबसे लम्बे वक्त तक शासन करने वाले राष्ट्रपति रहे. लेकिन उनकी मौत का रहस्य रहस्य ही बनकर रह गया.
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