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हमरे विलेज में कोंहड़ा बहुत है, हम तुरब तू न बेचबे की नाही

सुन लो. माथे में दो लीटर ठंडी खुशी भर जाएगी. कहानी कैरिबियन द्वीपों में पैदा हुए फेमस चटनी म्यूजिक की. जो न बनता गर बिहार के गीत, लोग, समाज और यादें न होतीं.

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चटनी म्यूजिक के पितामह कहे जाने वाले सुंदर पोपो

कहानी जी खुश कर देने वाले चटनी म्यूजिक की.

गैंग्स ऑफ वासेपुर में स्नेहा खानवलकर ने एक गाना संगीतबद्ध किया था. आई एम अ हंटर यू वॉन्ट टू सी माई गन? कि मैं एक शिकारी हूं क्या मेरी बंदूक देखना चाहोगे? गाने में एक द्विअर्थी बात भी आती है लेकिन इसकी विशेषता थी इसका स्वरूप. ये गाना चटनी म्यूजिक पर आधारित था. यानी जिसे सुनते हुए मुंह में चटनी वाला स्वाद घुल जाए. धनिया, हरी मिर्ची, लाल मिर्ची, आम, अमिया, पुदीना, नमक.. और ऐसी ही अन्य मसालेदार चीजों से मिलकर बनी. https://www.youtube.com/watch?v=4dEJLFqR6_s इस म्यूजिक के लिए संगीतकार स्नेहा खासतौर पर कैरिबियन द्वीपों में गई थी क्योंकि ये चटनी म्यूजिक वहीं की पैदाइश है. वहां के त्रिनिदाद, सूरीनाम और गुआना में 19वीं सदी में ये चलन में आया. इस चटनी में खास था भोजपुरी म्यूजिक, कैरिबियन द्वीपों का लोकल म्यूजिक और पश्चिमी म्यूजिक. और इसकी चटनी भी उतनी भी तेज़ और खट्टी-मीठी बनी.
अफ़्रीकी-अमेरिकियों की गुलामी खत्म होने के बाद मजदूरी के लिए भारत के बिहार और उत्तर प्रदेश से बंधुआ मजदूरों को ब्रिटिश राज में कैरिबियन द्वीपों पर ले जाया गया. ताकि वो गुलामी ख़त्म होने से आई आर्थिक मंदी को दूर कर सकें. ये लोग अपने घरों से उठाकर दूर देश फ़ेंक दिए गए लोग थे. अजनबी देश में नई ज़िन्दगी बसाना और उसे स्वीकार करना इनकी ज़रूरत थी.
गन्ने के खेतों में काम करते हुए इन्हें अपने गावों, खेत-खलिहानों और ताल-पोखरों की याद बहुत आती होगी. इस गुलामी में वे खेतों के गीलेपन और हरियाली के करीब तो थे, लेकिन सिर नहीं उठा सकते थे. सिर उठाने पर उन्हें अजनबी आकाश का सूनापन और पराई भाषा की गालियां ही नसीब हो पाती थीं. इस दासता की जंज़ीरें दिखती नहीं थीं. ऐसे माहौल में उन्होंने जो गाने गाए वो अपने गांव की यादों को गन्ने के खेतों, मंदिर के कीर्तनों, और शादी के मंडपों में जी लेने की कोशिशे थीं. इनमें विदेशी तत्व स्वाभाविक रूप से मिलते चले गए. और चटनी म्यूजिक स्वरूप में आया. https://youtu.be/lWu3rdHtK1Q?list=PLDDACEB96F2DD9459

गीतकार जावेद अख्तर अपनी किताब 'टाकिंग सॉन्ग्स : जावेद अख़्तर इन कनवर्जेशन विद नसरीन मुन्नी कबीर' में इंसानों के अंदर से गीत निकलने की ज़रूरत की बात करते हैं. उनके अनुसार गीत एक तरह से, जकड़न से मुक्ति का ज़रिया हैं. जिस समाज में जितना ज़्यादा दमन होगा, वहां से उतने ही ज़्यादा गीत निकलेंगे. और शायद इसीलिए महिलाओं के हिस्से में ज़्यादा गीत आते हैं. दबाए गए भावों को निकालने का सबसे सुलभ तरीका गीत ही होते हैं. क्योंकि इनमे गद्द्य जैसी जवाबदेही की दरकार नहीं होती.

धीरे-धीरे भारत के इन बंधुआ मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी. और हर समुदाय की तरह इनके भी आपसी परिचय और रिश्ते बढ़ने लगे. फिर इनकी दूसरी पीढ़ी आई. इनकी उलझनें, आदतें और अपने असली देश की यादें काफ़ी अलग थीं. इनकी भाषा और उसकी टोन बदल रही थी. इनकी आपसी बातचीत और म्यूजिक टेस्ट बदल रहे थे. लेकिन अभी दादा-दादी से सुनी कहानियों और आज भी परिवार में बोली जाने वाली भोजपुरी से अलग नहीं हो पाए थे. ये चटनी म्यूजिक का सबसे सफल समय था.
1968 में सूरीनाम के रामदेव चैतोए ने 'किंग ऑफ़ सूरीनाम' नाम के एल्बम की रिकॉर्डिंग की. इससे पहले तक चटनी म्यूजिक की कोई रिकॉर्डिंग नहीं हुई थी. 1968 में ही द्रौपती नाम की चटनी म्यूजिशियन बहुत लोकप्रिय हुईं. चटनी म्यूजिक में एक बड़ा नाम हैं हैरी महाबीर. इन्होंने अपने म्यूजिक में बिहार और उत्तर प्रदेश के ख़ास तरीके के ऑर्केस्ट्रा को पश्चिमी म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स के साथ इस्तेमाल किया. ये भारतीय गानों का नॉस्टेल्जिया था. ऐसा नॉस्टेल्जिया जो बच्चों को बचपन में सुन रखे शादी के ऑर्केस्ट्रा की याद की तरह जीवन भर सताता रहता है. https://youtu.be/KMHB6Hq0Ttw https://youtu.be/8iNcpQZn6zs?list=RDjajJ6HnmjnY हैरी महाबीर के बाद उनके शिष्य सुंदर पोपो ने चटनी म्यूजिक को एक नई पहचान दिलाई. उन्होंने रतिया में दूल्हा के मौसी बोलल गए जैसे शादी के गाने गाए. जिनको सुनकर गांव की शादी में गीत गाती बुआ-चाची, और शादी में चलते हंसी-मज़ाक का पूरा माहौल याद आ ही जाता है. हमरे विलेज में कोंहड़ा/बैंगन बहुत है, हम तुरब तू न बेचबे की नाही... जैसे गीत भी हैं. सोचा जा सकता है कि इन गीतों को सुन कर दूर देश में रहते हुए भी लोग बिहार के बैंगन-कोंहड़ा के इर्द-गिर्द बुनी ज़िन्दगी के कितने करीब आ जाते होंगे. पोपो के नाना-नानी, Don't fall in love और I wish I was a virgin जैसे गाने भी आए. इनमें भोजपुरी शब्द कम थे, लेकिन म्यूजिक का मिजाज़ और आवाज़ की टोन बिलकुल भोजपुरी सी ही थी. इनके थीम भी अब गांव के परिवेश से बाहर निकल रहे थी. https://youtu.be/kW34uR2ojFY?list=PL3utT_ykKo4GGFND91qczRJWNt3zRXag3 https://youtu.be/rAUOf7xmZww?list=PLDDACEB96F2DD9459 सैम बूद्राम, आइजैक यांकरण, राकेश यांकरण और जगेस्सर जैसे चटनी म्यूजिक कलाकारों के आने के साथ चटनी म्यूजिक की इंडस्ट्री बढ़ने लगी. राकेश यांकरण का दुलहिन चले ससुराल एक विवाह गीत से आगे बढ़ते हुए, परदेस जा कर भूल ना जाना की बात करता है. विदेशी ज़मीं पर 'घर की शादी' और 'घर छोड़कर जाने के मायनों' को एक नई दिशा मिल जाती है. यांकरण का ही एक और गाना है बड़ी दूर से आए हैं. इस गीत के बोल हैं- 'अनजाने लोगों में कोई साथ तो मिलेगा, कोई तो होगा जो हमको समझेगा...'. ये बोल बरसों से अंदर चल रही पहचान और अभिव्यक्ति की उलझन के रास्ते से होकर हम तक पहुंचते हैं. https://youtu.be/g-IxNIifNo8 ऐसा ही कुछ हुआ था भारत के अंदर ही. जब बिहार से बड़ी संख्या में लोग काम की खोज में कलकत्ता और बम्बई जा रहे थे. और चटनी म्यूजिक जैसे ही 'कल्चरल एलिएनेशन' से 'बिदेसिया' नाटक निकले. बिदेसिया के नाटक और विरह गीत के जन्मदाता भिखारी ठाकुर थे. हालांकि बिदेसिया कलकत्ता गए बिहारी लोग अपनी भाषा, भोजपुरी में ही करते थे. इनके थीम चटनी म्यूजिक के थीम जैसी थी, लेकिन यहां भाषाओं या शैलियों से बनने वाली चटनी नहीं थी. चटनी म्यूजिक से ही प्रेरित होकर अफ्रीकन-भारतीय और पश्चिमी म्यूजिक के कई चटनी वर्ज़न सामने आने लगे. जिसमें इंडियन सोका चटनी प्रमुख है. इसकी शुरुआत कलाकार लार्ड शौर्टी से ही मानी जाती है. आज हम जो नए चटनी म्यूजिक सुन सकते हैं, वो सोका चटनी से ही निकले हैं. चटनी हिप-हॉप, चटनी भांगड़ा जैसी डिशेज आपको यूट्यूब पर प्रचुर मात्रा में मिलेंगी. https://www.youtube.com/watch?v=-kRXMlHmrr4&list=PL-Y8tf0w9wzHnfDUhwh06i2FrF4iiFxNG

ये स्टोरी ‘दी लल्लनटॉप’ के साथ इंटर्नशिप कर रहीं पारुल ने लिखी है.