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दिल्ली बिल: संसद बड़ी या सुप्रीम कोर्ट?

दिल्ली सर्विसेज़ बिल संसद के दोनों सदनों से पास हो गया है.

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अगर राष्ट्रपति मुर्मू ने इस बिल पर साइन कर दिया तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो जाएगा

"देश का संविधान सर्वोपरि है. न न्यायपालिका, न कार्यपालिका और न ही संसद. सबसे ऊपर सिर्फ देश का संविधान है."

ये बयान है सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर का. और ये बयान आज की तारीख में बेहद जरूरी हो चुका है. क्योंकि ऐसे सवाल उठ रहे हैं कि देश में न्यायपालिका और संसद की टसल के बीच क्या संविधान दबा जा रहा है.

देश की संसद जब कोई बिल लेकर आती है. और वो बिल दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा में पास हो जाता है. तब वो देश में कानून बन जाता है. संविधान और उसके छत्र के नीचे आने वाले हर एक कानून की व्याख्या करने का अधिकार दिया गया है सर्वोच्च न्यायालय को. यानी संसद कानून बनाएगी, लेकिन उस कानून को कैसे परिभाषित किया जाएगा, उसके मायने क्या होंगे, ये सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट तय कर सकती है. सोशल स्टडीज़ की किताब में आपने जो ''system of checks and balances'' नाम से सिद्धांत पढ़ा था, ये उसके सबसे बढ़िया उदाहरणों में से एक है. लेकिन सिद्धांत और उदाहरण हैं, इसका मतलब ये नहीं कि हमने अंतिम सत्य को पा लिया. समय के साथ तंत्र के तीनों अंग - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ''checks and balances'' की परिभाषा को चुनौती देते हैं, बदलते हैं, नए सिरे से गढ़ते भी हैं.

2023 के मॉनसून सत्र में ऐसा ही एक उदाहरण आज देखने को मिला. दिल्ली में अधिकारियों की पोस्टिंग और नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट ने सूबे की सरकार के हित में फैसला दिया, तो उसे पलटने के लिए केंद्र ने एक बिल ले आई. ये लोकसभा से पास हो ही गया था. और आज राज्यसभा में पेश हुआ. यहां पास हुआ, तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो जाएगा. इस घटना को कैसे देखा जाए? checks and balances में परिष्कार की तरह. या फिर सरकार द्वारा संघीय ढांचे और सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार में दखल की तरह?

एससी-एसटी एक्ट 2018

पहली मिसाल है एससी-एसटी एक्ट 2018 की. 2018 में काशीनाथ महाजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया. ये फैसला SC-ST एक्ट को कमजोर कर रहा था. मार्च 2018 में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा कि अगर SC-ST के तहत किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को गिरफ्तार करना है तो पहले उसके सुपीरियर अधिकारी से अनुमति लेनी होगी. और अगर किसी आम नागरिक को गिरफ्तार करना है तो SSP (सीनियर सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस) से इजाजत लेनी होगी. लेकिन सबसे ज़्यादा चर्चा हुई कोर्ट के उस आदेश की, जिसमें बेंच ने कहा कि,

'एट्रॉसिटी के आरोप वाले मामलों की FIR में SC-ST एक्ट के तहत धारा लगाने से पहले भी पुलिस जांच करेगी. तभी इन धाराओं में मामला कायम होगा.'

फैसला आने के बाद ये बहस छिड़ गई कि क्या ये सही वक्त है SC-ST एक्ट की ताकत को कम करने का? क्या वाकई दलित और आदिवासी उस मुख्य धारा से जुड़ गए हैं जिसका भोग सामान्य कैटेगरी में आने वाले नागरिक करते आए हैं. क्योंकि दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने की खबरें तो आए दिन अखबारों के चौथे-पांचवें पन्ने पर छपती ही हैं. ऐसे में क्या प्रक्रिया के चक्कर में दलितों के अधिकार कुछ कम हो जाएंगे?

इसके बाद भारी बवाल हुआ. हिंसा हुई. और सरकार पर अच्छा खासा दबाव पैदा हो गया कि वो कोर्ट के फैसले को पलटे. मौके की नज़ाकत को समझते हुए अगस्त 2018 में केंद्र सरकार ने SC-ST एक्ट में संशोधन कर दिया. संशोधित कानून में कहा गया है कि जांच अधिकारी को किसी आरोपी की गिरफ्तारी के लिए किसी सुपीरियर की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी. इसके अलावा, पास हुए विधेयक में ये भी प्रावधान है कि एक्ट के तहत आरोपी व्यक्ति के खिलाफ FIR दर्ज करने के लिए शुरुआती जांच की भी जरूरत नहीं होगी. यानी सुप्रीम कोर्ट के पूरे फैसले को पलट दिया गया. हालांकि, इसके बाद मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. लेकिन सर्वोच्च अदालत ने इस बार सरकार के कानून की वैधता को सही ठहराया.

ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट

अगला केस. ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट. 2017 में केंद्र सरकार एक फाइनेंस बिल लेकर आई. इस कानून के तहत ट्रिब्यूनल सिस्टम का पुनर्गठन किया गया. ट्रिब्यूनल्स की संख्या 26 से घटाकर 19 कर दी गई. और सरकार को ये पावर मिल गई कि ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन, उसके मेंबर, नियुक्तियां, कार्यकाल, सैलरी-भत्ते, सबकुछ सरकार तय कर सकेगी. ट्रिब्लूनल्स को आप विशेष अदालतों की तरह समझ सकते हैं, जो किसी खास क्षेत्र पर फोकस रखती हैं, फैसला देती हैं. मिसाल के लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल  NGT. ये पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का निपटान करती है. इसी तरह आर्म्ड फोर्सेड ट्रिब्यूनल सेना से जुड़े मामलों को सुनती है. तो सरकार का 2017 वाला कानून उसे ये अधिकार दे रहा था कि वो ये खुद तय कर ले कि ट्रिब्यूनल में बैठेगा कौन.

ज़ाहिर है, ये असहज करने वाली स्थिति थी. क्योंकि सामान्य अदालतों की तरह ट्रिब्यूनल्स में चलने वाले तमाम मामलों में भी एक बड़ा पक्षकार सरकार खुद है. तो मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट. और 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर चाबुक चला दी. कोर्ट ने कहा कि ये कानून न्यायिक स्वायत्ता माने ज्यूडिशियल इंडिपेंड्स के खिलाफ है. कोर्ट ने कहा कि इस ऐक्ट से ट्रिब्यूनल्स, उनके सदस्य और सेलेक्शन कमेटी के अधिकार सरकार ने ले लिए जो कि गलत हैं. कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि इस कानून को रिफॉर्मूलेट किया जाए. माने कानून दोबारा बनाया जाए.

इसके बाद सरकार जुलाई 2021 में एक अध्यादेश  लेकर आई. अध्यादेश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया गया. लेकिन अध्यादेश भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. मद्रास बार एसोसिएशन वर्सेज़ यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सरकार के अध्यादेश को खारिज कर दिया. कोर्ट के फैसले में 2:1 के डिविज़न रहा. और आदेश में कहा गया कि अध्यादेश न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ है.

कोर्ट का फैसला आया. और कुछ ही दिन बाद सरकार संसद में बिल लेकर आ गई. सरकार ने कानून बनाकर पारित कर दिया. मामला फिर सुप्रीम पहुंचा. और अभी कोर्ट में अटका हुआ है. हालांकि कानून पर रोक नहीं लगी है. तो ये दूसरा मामला था, जहां मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट रही थी, या पलटना चाह रही थी.

एनिमी प्रॉपर्टी ऐक्ट

तीसरे नंबर पर है, एनिमी प्रॉपर्टी ऐक्ट. जब दो देशों में युद्ध होता है, तब अक्सर दुश्मन देश की संपत्तियों को ज़ब्त करने की जुगत की जाती है. ये पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी हुआ और बाद के सालों में भी. इस संपत्ति को 'विदेशी संपत्ति' या एनिमी प्रॉपर्टी कहते हैं. पाकिस्तान और चीन के साथ जंग में भी भारत ने उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली थी. इसे ही लेकर संसद में 2016 में एनिमी प्रॉपर्टी (संशोधन और वैलिडेशन) बिल पास किया गया. लेकिन इस बार भी बिल से पहले का खेल समझना पड़ेगा.

इंडियन एक्सप्रेस की अन्विति चतुर्वेदी और चक्षु रॉय की रिपोर्ट के मुताबिक़, 2017 तक 12 हज़ार से ज़्यादा शत्रु संपत्तियों की पहचान की गई थी. इनमें से ज़्यादातर पाकिस्तानी नागरिकों की संपत्तियां थीं. सवा सौ के करीब चीनी नागरिकों की भी थीं. 2017 में इनकी कुल क़ीमत 1 लाख करोड़ रुपये से भी ज़्यादा थी. आज के बाज़ार भाव के हिसाब से ये रकम कहीं ज़्यादा हो गई है.

इसे लेकर जो क़ानून हमारे पास था - 1968 का शत्रु संपत्ति अधिनियम - उसने शत्रु नागरिकों को उनकी संपत्तियों पर कुछ अधिकार दिए हुए थे. लेकिन उनके अधिकार कितने होंगे और कस्टोडियन के पास क्या ताक़तें होंगी, इसे लेकर अस्पष्टता थी. यहां कस्टोडियन का संदर्भ उस देश से है, जिसने संपत्तियां क़ब्ज़ाईं. तो क़ानून में अस्पष्टता की वजह से विवाद अदालतों तक चले जाते थे. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इनमें से कुछ विवादों को सल्टा दिया. कोर्ट ने फै़सला सुनाया कि कस्टोडियन केवल ट्रस्टी के रूप में एनिमी प्रॉपर्टी का प्रशासन कर सकता है और मालिक, दुश्मन देश का नागरिक ही रहेगा. इसलिए, अगर उसकी मृत्यु होती है, तो संपत्ति उसके क़ानूनी उत्तराधिकारी को ही मिलेगी.

इसके बाद, सबसे पहले - 2010 में - मनमोहन सिंह सरकार ने कस्टोडियन के अधिकार का विस्तार करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया. सरकार की मांग थी कि अगर शत्रु की मृत्यु हो जाए या उसकी राष्ट्रीयता बदल जाए, तब भी संपत्ति को स्थायी रूप से कस्टोडियन में सौंप दिया जाना चाहिए. हालांकि, ये अध्यादेश लैप्स हो गया.

इसके बाद मोदी सरकार भी कांग्रेस सरकार के रास्ते पर चली. लेकिन एक क़दम आगे. कांग्रेस एक अध्यादेश लाई थी, तो भाजपा पांच ले आई. इस बार सीधी मांग थी कि शत्रु संपत्ति का मालिकाना हक़ कस्टोडियन को सौंप दिया जाए. पांच में से चार अध्यादेश लैप्स हो गए, लेकिन अंतिम अध्यादेश पारित हो गया. 2005 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को प्रभावी ढंग से ख़ारिज करते हुए केंद्र सरकार, सारी शत्रु संपत्तियों की मालिक बन गई. 

NJAC ऐक्ट 

तीन मौक़े वो बताए, जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों को निष्क्रिय किया. अब एक उलटा केस बताते हैं. अगला.. आख़िरी.. बट नॉट द लीस्ट: NJAC Act. ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि न्यायपालिका और विधायिका में जो घर्षण है, ये मामला सीधे तौर पर इसी से जुड़ा हुआ है.

> NJAC का मतलब: National Judicial Appointments Commission. हिंदी में: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग. एक संवैधानिक संस्था, जिसे जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम सिस्टम के विकल्प के तौर पर प्रस्तावित किया गया था.
> 2014 में संविधान के 99वें संशोधन अधिनियम के तहत NJAC की स्थापना की गई और सरकार ने संसद में NJAC Act पारित किया.
> प्रस्तावित NJAC का प्रस्तावित स्ट्रक्चर भी समझ लीजिए:-
अध्यक्ष - भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI),
सदस्य - सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जज,
केंद्रीय क़ानून और न्याय मंत्री,
और नागरिक समाज के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति.

प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन कैसे होता? 

CJI, प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की एक समिति बनती. दो में से एक सदस्य का नाम ये समिति देती. और दूसरे को SC/ST/OBC/अल्पसंख्यक समुदायों या महिलाओं में से नामित किया जाता.

कुल मिलाकर इस सिस्टम के बाद जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका बढ़नी थी. "थी" हम इसलिए कह रहे हैं कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC ऐक्ट और 99वें संविधान संशोधन को ख़ारिज कर दिया. तब से लेकर अब तक - 8 बरसों में - न्यायिक नियुक्तियों को लेकर बहस जारी है. दोनों ओर से भारी भरकम तर्क हैं. सार हम दो बिंदुओं में दे देते हैं -
सरकार कहती है कि जज स्वयं ये कैसे तय कर सकते हैं कि जज कौन बने. जवाबदेही और पारदर्शिता कैसे आएगी? और कोर्ट कहती है कि जब सरकार मामलों में एक पक्षकार है, तो वो कैसे तय करेगी कि जज कौन होगा. क्योंकि यहां तो सीधे-सीधे हितों का टकराव है.

दिल्ली बिल

अब आते हैं दिल्ली बिल पर, जो आज की सबसे बड़ी खबर बना. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद से एक विवाद चल रहा है. विवाद ये कि दिल्ली का बॉस कौन. इसको लेकर बार-बार विवाद होते रहे हैं. मामला अदालत तक जा चुका है. इसी साल 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं के नियंत्रण और अधिकार से जुड़े मामले पर फैसला दिया था.  सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि दिल्ली की नौकरशाही पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण है और अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग पर भी उसी का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ कर दिया है कि पुलिस, जमीन और पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर बाकी सभी दूसरे मसलों पर उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार की सलाह माननी होगी. लेकिन 10 दिन भी नहीं बीते और केंद्र सरकार अध्यादेश लेकर आ गई. अध्यादेश के बारे में हम लल्लनटॉप शो में कई बार चर्चा कर चुके हैं. मजमून ये समझिए कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए केंद्र एक बार फिर से दिल्ली का बॉस बन गया.

लेकिन अध्यादेश को 6 महीने के भीतर पक्का कानून बनाता होता है. संसद में बिल पास करके. सरकार ने मॉनसून सत्र में बिल पेश किया. लोकसभा से 3 अगस्त को बिल पास हो चुका है. आज राज्यसभा में पेश हुआ. बिल पर राज्यसभा में क्या चर्चा हुई और इसको विस्तार से समझने के लिए आप हमारा शो 'संसद में आज' देख सकते हैं.

दिल्ली बिल मोदी सरकार के लिए नाक का सवाल बन गया है. क्योंकि केजरीवाल और केंद्र सरकार दोनों दिल्ली के अधिकारी पर अपना-अपना अधिकार जताना चाहती हैं. लेकिन यहां एक बात समझने लायक है. ये सब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए किया जा रहा है. और ये पहली बार नहीं हो रहा है. हमने आपको पहले ही विस्तार  से बताया है. जजों की नियुक्तियों को लेकर होने वाले विवादों की भी एक लिस्ट तैयार हो चुकी है. तो दिल्ली बिल से इतर एक सवाल ये उठ रहा है कि क्या सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच सुपरमेसी की टसल चल रही है.

इस पर लाइव लॉ के मैनेजिंग एडिटर मनु सबास्टियन ने अपने एक लेख में लिखा है, 1990 के बाद से - दो दशकों के दौरान - सुप्रीम कोर्ट की ताक़त और क़द बढ़ा है. हमारे सुप्रीम कोर्ट को "दुनिया की सबसे ताक़तवर अदालत" की उपाधि मिली है. इस दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम के ज़रिए नियुक्तियों में बढ़त ली और कई मुद्दों में हस्तक्षेप करने के लिए न्यायिक समीक्षा का दायरा बढ़ाया. उन मुद्दों के लिए भी, जो रवायतन कार्यपालिका के हिस्से थे. जनता का राजनीतिक कार्यपालिका से भरोसा उठ गया, मोहभंग हो गया. गठबंधन वाली सरकार और जो भी सरकारें रहीं, जनता उन्हें कमज़ोर, समझौतावादी और भ्रष्ट मानने लगीं. इस "रिक्त स्थान" की जगह आला अदालत ने भरी और उसे उम्मीद का सुराख़ माना जाने लगा. लेकिन 2014 में ये सिनैरियो बदल गया. ऐसा मनु सबास्टियन लिख रहे हैं. क्या बदला 2014 के बाद? मनु की कहें, तो बीते 30 सालों में पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट का सामना ऐसी सरकार से हुआ जिसके पास अपने बूते से बहुमत है.

इस वजह से जजों की नियुक्ति पर जो संघर्ष है, वो तो सबके सामने है ही. और ऐसा नहीं है कि कोई सुप्रीम कोर्ट को बरी कर रहा हो. NJAC वाले जजमेंट पर मनु की समीक्षा है कि जजमेंट की भाषा में जुडिशियल विज़डम से ज़्यादा अपना स्वर्ग सुरक्षित रखने की भावना झलकती है. नियुक्तियों के अलावा, 2014 से पहले आला अदालत, राजनीतिक मामलों में सरकार के ख़िलाफ़ जाने से नहीं हिचकिचाती थी. ऐसा 2G मामले और कोयला घोटाला मामले में दिखता है.

एक और परेशान करने वाली बात है: जजों के खुलासे, कि कैसे सरकार न्यायपालिका के प्रशासनिक मामलों में दख़ल देने की कोशिश कर रही है. मसलन, नियुक्ति और पीठों का गठन. इस बिंदु में मनु 2108 की उस प्रेस कॉनफ़्रेंस का ज़िक्र करते हैं. फिर जजों के रिटायमेंट के बाद वाले इंटरव्यूज़ का भी ज़िक्र आता है.

फिर सुप्रीम कोर्ट के अंदरूनी मसले हैं. 8-9 सालों में सरकार के साथ टकराव ने न्यायपालिका को पस्त और कमज़ोर किया है. लेकिन ये कहना अतिशयोक्ति होगी कि सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया. नागरिक स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में अदालत ने प्रगतिशील रुख अपनाया है. अपने निष्कर्ष में मनु ने लिखा है, कि मोदी शासन में सुप्रीम कोर्ट डरपोक, खंडित और कमज़ोर हुआ है.

अब चलते हैं दिन की दूसरी बड़ी खबर की तरफ. यहां भी मामला सुप्रीम कोर्ट से ही जुड़ा है. तीन महीने से ज्यादा समय से जल रहे मणिपुर पर आज सुप्रीम कोर्ट ने जांच कमेटी बनाने का आदेश दे दिया है. देश के मुख्य न्यायाधीश ने 3 रिटायर्ट जजों की एक कमेटी का गठन किया. कमेटी की तीनों सदस्य महिला हैं. जस्टिस आशा मित्तल, जस्टिस शालिनी जोशी और जस्टिस आशा मेनन.

CJI ने कहा कि हमारा पहला उद्देश्य मणिपुर में कानून पर लोगों का विश्वास बहाल करना है. इसके कामकाज पर चीफ जस्टिस ने कहा कि 3 सदस्यीय कमेटी का काम जांच के अलावा राहत कार्यों का ब्योरा लेना भी होगा. इसके अलावा CBI मणिपुर के जिन मामलों की   जांच कर रही है उनकी निगरानी भी डिप्टी SP रैंक के 5 अधिकारी करेंगे. और ये सभी अधिकारी दूसरे राज्यों से होंगे.

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 42 नई SIT बनाई हैं. ये 42 SIT उन मामलों की जांच करेंगी जिन्हें CBI नहीं देख रही है. DIG रैंक के अधिकारी SIT को हेड करेंगे. एक अधिकारी 6 SIT को सुपरवाइज़ करेंगे. सभी DIG मणिपुर के बाहर के होंगे.   इसके  अलावा कोर्ट ने एक  और  रिटार्यड अधिकारी अपॉइंट किया है. फॉर्मर IPS दत्तात्रेय पडसालगिकर. CJI ने कहा दत्तात्रेय एक बेहतीन और डेकोरेटेड अफसर रहे हैं. वो NIA में थे और नागालैंड भी जा चुके हैं.   दत्तात्रेय सभी SIT की स्क्रूटनी करेंगे. यानी सुपरवाइज़ करेंगे और देखेंगे कि जांच ठीक से हो रही है या नहीं.