साल 1911. दिल्ली में जॉर्ज पंचम का दरबार लगा. पूरे भारत से राजे रजवाड़े दरबार में हाजरी लगाने पहुंचे. प्रोटोकॉल तय था. हर राजा, हीरे जवाहरातों से सजी राजसी पोशाक में आएगा. राजा के सामने पेशी होगी. इस दौरान सिंहासन के सामने तीन बार सर झुकाना होगा, और फिर बिना पीठ दिखाए, वापिस लौट जाना होगा. राजाओं की लाइन लगी थी. लाइन में आगे खड़े दो लोगों ने प्रोटोकॉल के अनुसार पेशी दी और वापिस लौट गए. (Princely State of Baroda)
बड़ौदा रियासत का भारत में विलय कैसे हुआ?
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अब बारी थी तीसरे शख़्स की. लेकिन ये शख़्स कुछ अलग था. वो बिना शाही गहने पहने दरबार में आया था. हालांकि उसके हाथ में एक सुनहरी लाठी ज़रूर थी. उसने जॉर्ज पंचम को देखा, सर हल्के से झुकाया. ब्रिटिश सरकार का गवर्नर जनरल, लॉर्ड हार्डिंग ये सब देख रहा था. जलसे की ज़िम्मेदारी उसके हाथ में थी. और सब कुछ सही ढंग से हो, ये उसे ही देखना था. लेकिन उस वक्त हार्डिंग ने जो देखा, उसकी त्योरियां चढ़ गई. तीसरा शख़्स झुका लेकिन सिर्फ़ थोड़ा सा, और वो भी बस एक बार. इसके बाद वो मुड़ा और आधी दुनिया के सम्राट को पीठ दिखाता, मुस्कुराता हुआ लौट गया. ये बड़ौदा रियासत के महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ थे. (Integration of Princely States)
गायकवाड़ राजघराने की शुरुआत
डॉमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब, फ़्रीडम एट मिड नाइट में लिखते हैं,
‘बड़ौदा के महाराजा दरबार में जो पोशाक पहनकर आते थे, वो ख़ालिस सोने की तार की बुनी हुई होती थी. बुनाई का काम रियासत के एक ख़ास परिवार ही कर सकता था. परिवार का हर आदमी अपने नाखून बढ़ाकर रखता था. इन नाखूनों को काटकर उनमें कंघियों जैसे दांत बना दिए जाते थे. ताकि सोने के पतले तारों से महाराजा की पोशाक का कपड़ा बना जा सके.’
किताब में आगे दर्ज है कि बड़ौदा के राजा जिस हाथी से चलते थे, उसके कानों में दस-दस सोने की ज़ंजीर लटकती रहती थीं और. रियासत के पास सितार ए दकन नाम का एक हीरा हुआ करता था, जिसे फ़्रांस के सम्राट नेपोलियन ने अपनी प्रेमिका यूजीन को तोहफ़े में दिया था. भारत में मौजूद समस्त रियासतों में हैदराबाद के बाद बड़ौदा दूसरी सबसे ताकतवर रियासत थी. एक जमाने में यहां के राजा दुनिया के सातवें सबसे अमीर व्यक्ति हुआ करते थे. ये सब मुकम्मल हुआ एक छोटी सी शुरुआत से.
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बड़ौदा रियासत की कहानी शुरू होती है 18 वीं सदी की एकदम शुरुआत में. मराठा साम्राज्य लगातार ताकतवर होता जा रहा था. छत्रपति साहूजी महाराज के आदेश पर मराठा जनरल खांडेराव दाभाड़े ने गुजरात पर आक्रमण कर मुग़लों के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करना शुरू किया. 1716 में खांडेराव मराठाओं के सेनापति बने. उनके एक जनरल दामाजी गायकवाड़, जिन्हें शमशेर बाहदुर की उपाधि मिली हुई थी, ने 1921 में गुजरात में बड़ौदा रियासत की नींव रखी. दामाजी के बाद उनके उत्तराधिकारी बने, पिलाजी राव गायकवाड़. और इस तरह गायकवाड़ राजवंश की शुरुआत हो गई.
बड़ौदा रियासत को लेकर शुरुआती कुछ दशक तक काफ़ी तनातनी रही. फिर 1752 में पेशवा बालाजी बाज़ीराव के शासन में पिलाजी के बेटे दामाजी द्वितीय को बड़ौदा का एकमात्र शासक डिक्लेयर कर दिया गया. बदले में तय हुआ कि बड़ौदा से पेशवा को हर साल 5 लाख रुपए की चौथ दी जाएगी. और 20 हज़ार की घुड़सवार सेना पेशवा की सेवा के लिए हर समय तैयार रहेगी. इस सेना का पूरा रखरखाव बड़ौदा राजघराना करेगा. साल 1758 में दामाजी गायकवाड़ ने अहमदाबाद के मुग़ाल गवर्नर को उसके पद से हटाया और गुजरात के सबसे ताकतवर शासक बन गए.
19 वीं सदी की शुरुआत तक मराठाओं और बड़ौदा रियासत के रिश्ते अच्छे रहे. लेकिन फिर दूसरे आंग्ल मराठा युद्ध के चलते शक्ति का संतुलन चेंज हो गया. लिहाज़ा बड़ौदा रियासत ने अंग्रेजों से संधि में अपनी भलाई समझी. 1802 में बड़ौदा के राजा, आनंद राव गायकवाड़ और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के बीच संधि हुई. जिसके चलते रियासत का बड़ा हिस्सा अंग्रेजों के हाथ में चला गया. लेकिन गायकवाड़ अपनी सत्ता बचाने में सफ़ल रहे. बड़ौदा के इतिहास में अगला बड़ा चैप्टर आया साल 1856 में. इस साल बड़ौदा की गद्दी पर बैठे, खांडेराव गायकवाड़ द्वितीय. इन्होंने 1870 तक शासन किया. और इनके दौर में दो बड़ी घटनाएं हुई.
बड़ौदा में रेल लाइन
पहला 1857 के बाद ब्रिटिश राज ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से कमान अपने हाथ में ले ली. जिसके चलते सरकार का एक रेज़िडेंट ऑफ़िसर हर समय बड़ौदा में तैनात रहने लगा. इस ऑफ़िसर के चक्कर में आगे बड़ा हंगामा हुआ. लेकिन पहले दूसरी बड़ी घटना सुनिए. महाराजा खांडेराव गायकवाड़ वो पहले भारतीय शासक थे, जो अपने राज्य में रेल लेकर आए. 1862 में दाभोई से मियागाम तक एक 32 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन डाली गई. शुरुआत में रेल के डिब्बों को खींचने के लिए बैल इस्तेमाल में लाए जाते थे. क्योंकि रेल लाइन ऐसी नहीं थी कि उसमें स्टीम लोकोमोटिव चल सके. 1872 में इस लाइन को और मज़बूत किया गया. जिसके बाद यहां नैरो गेज की लाइन में रेल का इंजन दौड़ने लगा.
आगे के सालों में दाभोई पश्चिमी रेल नेटवर्क का एक फ़ोकल पाइंट बना. जो उस दौर में दुनिया का सबसे बड़ा नैरो गेज जंक्शन हुआ करता था. इन्हीं महाराजा खांडेराव गायकवाड़ के दौर में एक और ख़ास चीज़ बनाई गई. मोतियों की एक चादर, जिसे बड़ौदा के कारीगरों ने बनाया था. खांडेराव ने इस चादर को ख़ास तौर से बनवाया था, ताकि इसे मदीना में चढ़ाया जा सके. लेकिन वो ऐसा कर पाते इससे पहले ही उनकी मौत हो गई. आगे चलकर ये क़ालीन बड़ौदा की ही एक महारानी के ज़रिए यूरोप, और फिर वहां से अमेरिका पहुंचा. साल 2009 में हुए एक ऑक्शन में इसे 45 करोड़ रुपए में ख़रीदा गया और साल 2023 में ये नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ क़तर का हिस्सा है.
अब बात उस ब्रिटिश रेज़िडेंट ऑफ़िसर की, जिसका ज़िक्र अभी थोड़ी देर पहले किया था. इनका नाम था रॉबर्ट फ़ायरे. फ़ायरे साहब हमेशा फ़ायर रहते थे, इसलिए बड़ौदा के महाराज से उनकी ख़ास बनती नहीं थी. महाराजा खांडेराव के कार्यकाल तक तो सब फिर भी ठीक रहा. लेकिन 1870 में उनकी मौत के बाद हालात बिगड़ने लगे. महाराजा खांडेराव का कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उनकी मौत के बाद उनके भाई मल्हार राव गायकवाड़ बड़ौदा के महाराजा बने. इनके कार्यकाल में एक घटना हुई, जिसने बड़ौदा के भविष्य पर गहरा असर डाला.
ब्रिटिश अफसर की मौत का षड्यंत्र
ये बात है साल 1874 की. एक रोज़ रॉबर्ट फ़ायरे सुबह सुबह घूमकर घर लौटे. हमेशा की तरह फ़ायरे का नौकर शरबत का एक गिलास लेकर आया. एक घूंट पीते ही फ़ायरे को मितली आने लगी. उन्होंने शरबत का गिलास ज़मीन में उड़ेल दिया. फ़ायरे ने देखा, गिलास में अंदर कुछ काला जमा हुआ है. तुरंत उन्होंने हिसाब लगाया कि ये ज़हर है. जैसे ही ये खबर आसपास फैली, ब्रिटिश अधिकारियों के बीच हंगामा मच गया. हालात सम्भालने के लिए महाराजा मल्हार राव ने फ़ायरे को आश्वासन दिया कि वो इस मामले की जांच कराएंगे.
जांच होती इससे पहले ही फ़ायरे ने डिक्लेयर कर दिया कि इस षड्यंत्र के पीछे महाराजा मल्हार राव ही हैं. ब्रिटिश सरकार पहले से ही मल्हार राव को ठिकाने लगाने का बहाना ढूंढ रही थी. उन्होंने मल्हार राव के ख़िलाफ़ जांच बिठाई. जांच पैनल में तीन भारतीय और तीन अंग्रेज थे. मल्हार राव ने अपनी पैरवी के लिए एक इंगलिश बैरिस्टर को बुलाया लेकिन फ़ैसला अपने हक़ में ना मोड़ सके. मल्हार राव को गद्दी से उतार दिया गया. अब सवाल था कि नया राजा कौन बनेगा?
इस सवाल और साल 1875 से बड़ौदा की कहानी में एंट्री होती है, एक ऐसे महाराजा की, जिन्हें अपने दौर का सबसे उदारवादी शासक माना जाता था. इनका नाम था सायाजी राव गायकवाड़. इनके बचपन का नाम गोपालराव था. ये बड़ौदा राज परिवार से सम्बंध रखते थे, लेकिन दूर के रिश्ते में. इनके राजा बनने की कहानी यूं है कि मल्हार राव के गद्दी से उतरने के बाद पूर्व महाराजा खांडेराव की पत्नी महारानी जमनाबाई ने गायकवाड़ राज वंश के सभी रिश्तेदारों को बड़ौदा आने का न्यौता दिया. न्यौते की शर्त ये थी कि उन्हें अपने बेटों को साथ लाना होगा. और जो सबसे उपयुक्त होगा, उसे महारानी गोद लेंगी और वही बड़ौदा का अगला महाराजा बनेगा.
सायाजी गायकवाड़ गद्दी पर बैठे
प्रत्याशियों में एक नाम था 12 साल के गोपालराव का. गोपाल राव तीन भाइयों में मंझले थे. जब न्योते का पता चला, उनके मां बाप 600 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर महाराष्ट्र के कवलाना से बड़ौदा पहुंचे.बड़ौदा में सभी प्रत्याशियों से एक सवाल पूछा गया,
"क्यों आए हो यहां?"
इस पर गोपाल राव ने जवाब दिया,
"मैं यहां राज करने आया हूं".
इसके बाद गोपाल राव को एक नया नाम दिया गया. सायाजीराव. और सत्ता सम्भालने के लिए उनकी ट्रेनिंग शुरू हो गई. साल 1881 में सायाजीराव को पूरी तरह सत्ता मिली. और अंग्रेजों ने उन्हें फ़र्ज़ंद-ए-ख़ास-ए-दौलत-ए-इंग्लिशिया की पदवी दे दी. इस पदवी का मतलब था, ब्रिटिश राज का खासमख़ास. सायाजीराव ने 58 सालों तक बड़ौदा पर शासन किया. इस दौरान उन्होंने बहुत सेसुधार लागू किए. बाल विवाह पर बैन लगाया, स्कूल और हॉस्पिटल बनवाए. और कला को बढ़ावा दिया. उनके शासन में कुछ कमाल की चीजें हुई. मसलन बैंक ओफ़ बड़ौदा की स्थापना हुई, जो साल 2023 में भी भारत के बड़े बैंकों में से एक है.
महाराजा का एक हासिल ये भी रहा कि उन्होंने भारत की पहली पब्लिक लाइब्रेरी बनाई. उन्होंने रेल नेटवर्क को बढ़ावा दिया. बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर को स्कॉलर शिप प्रदान करने वाले भी महाराजा सायाजीराव गायकवाड़ ही थे. इसी स्कॉलरशिप की बदौलत आम्बेडकर पढ़ाई के लिए अमेरिका जा पाए थे. हालांकि एक बात ये भी सच है कि जब 1917 में आम्बेडकर भारत लौटे, बड़ौदा में उन्हें भयानक छुआछूत से रूबरू होना पड़ा. हुआ यूं कि बड़ौदा सरकार में आम्बेडकर को नौकरी मिल गई. लेकिन कहीं कमरा नहीं मिल रहा था. इसलिए किसी सराय में वे एक पारसी नाम रखकर रहने लगे. एक दिन दर्जन भर लोग अचानक उनके कमरे में आ धमके, और उनके साथ बुरा सलूक किया. आम्बेडकर को शाम तक सराय खाली करने के लिए कह दिया गया. वे लिखते हैं,
“मेरा दिल बैठ गया, मैंने बद्दुआएं दी और बुरी तरह रो पड़ा.”
वे एक हिन्दू और इसे दोस्त के पास गए पर कहीं से मदद नहीं मिली. इस घटना के अठारह बरस बाद आम्बेडकर लिखते हैं,
“मेरे जेहन भी आज भी वो घटना एकदम ताजा है और जब भी मैं उसे याद करता हूं. रोए बिना नहीं रह पाता.”
जहां तक महाराजा सायाजी राव की बात है, 63 साल की ज़िंदगी जीन के बाद, साल 1939 में वे चल बसे. उनके बाद उनके पोते प्रताप सिंह राव गायकवाड़ को बड़ौदा के महाराज बनाया गया. अब यहां से शुरू होती है बड़ौदा में भारतीय संघ में विलय की कहानी. वल्लभ भाई के पटेल के निजी सचिव और रियासतों के भारतीय संघ में विलय के सूत्रधार रहे VP मेनन अपनी किताब, द स्टोरी ऑफ़ इंटीग्रेशन ऑफ़ द इंडियन स्टेट्स में लिखते हैं,
“भारत के किसी और राजा को विरासत में इतनी दौलत नहीं मिली जितनी, महाराजा प्रताप सिंह गायकवाड़ को. उनके सत्ता में बैठते वक्त बड़ौदा सबसे ताकतवर रियासतों में से एक थी. लेकिन चंद सालों में हालात ऐसे बने, की सरकार को बड़ौदा के महाराजा पर लगाम लगाने के मजबूर होना पड़ा”
बड़ौदा का भारत में विलय और एक स्कैंडल
साल 1939 में प्रताप राव महाराजा बने. कोल्हापुर की घोरपड़े परिवार से आने वाली महारानी शांता देवी उनकी महारानी थी. इस शादी से महाराजा को आठ बच्चे हुए. लेकिन फिर 1943 में महाराजा मद्रास के एक ज़मींदार की बेटी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गए. महाराजा के सामने दो दिक्कतें थीं.
पहली- सीता देवी नाम की ये लड़की, पहले से शादीशुदा थी.
और दूसरी दिक़्क़त ये कि बड़ौदा के क़ानून के अनुसार कोई आदमी दोबारा शादी नहीं कर सकता था.
मेनन लिखते हैं, महाराजा ने रास्ता ढूंढा. सीता देवी को इस्लाम धर्म क़बूल करवाया गया. और फिर कोर्ट से एक काग़ज़ ले आए, जिसके अनुसार धर्म परिवर्तन के चलते सीता देवी की पहली शादी रद्द हो गई. इसके बाद सीता देवी का दुबारा धर्म परिवर्तन करा लिया. हालांकि महाराजा की पेरशानी अभी पूरी तरह हल नहीं हुई थी. दूसरी शादी में बड़ौदा का क़ानून आड़े आ रहा था. इसलिए महाराजा ने क़ानून ही बदल दिया. और उसमें लिखवाया कि ये क़ानून महाराजा के लिए लागू नहीं होते. इसके बाद महाराजा ने सीता देवी के साथ दूसरी शादी कर ली. इस शादी के चक्कर में बड़ा हंगामा हुआ. ब्रिटिश सरकार ने इसे अमान्य ठहराया. और दंड स्वरूप साल 1944 में सरकार ने महाराजा का प्रिवी पर्स 50 लाख रुपए प्रति वर्ष से घटाकर 25 लाख कर दिया.
साल 1947 में जब बड़ौदा रियासत भारत में विलय की बात आई, शुरू में महाराजा काफ़ी उत्सुक दिखे. संविधान सभा में प्रतिनिधि भेजने वालों में बड़ौदा पहली रियासत थी. और जल्द ही उन्होंने विलय पत्र पर दस्तख़त की इच्छा भी ज़ाहिर कर दी. सबको लगा मामला सेटल. लेकिन फिर ऐन मौक़े पर महराजा अपनी बात से पलट गए. महाराजा के पड़ोस में जूनागढ़ की रियासत पड़ती थी. वहां के नवाब ने पाकिस्तान में विलय की इच्छा ज़ाहिर की तो प्रताप राव को लगा, इसका फ़ायदा उठाकर वो भी अपने लिए रियायत हासिल कर सकते हैं. सरदार बल्लभ भाई पटेल को लिखे, 2 सितम्बर 1947 के ख़त में वो लिखते हैं.
“मुझे जूनागढ़ के हालात का पता है. हम मदद करेंगे लेकिन हमारी कुछ शर्तें हैं”
क्या थी ये शर्तें?
एक शर्त ये थी कि उन्हें यानी प्रताप सिंह को बड़ौदा का महाराजा घोषित किया जाए. साथ ही बड़ौदा रियासत को डोमिनियन स्टेटस का हिस्सा दिया जाए. मेनन लिखते हैं,
“पटेल ने इस ख़त का सीधा जवाब देते हुए लिखा, भारत सरकार को आपकी मदद की ज़रूरत नहीं है”
उधर 1947 में महराजा का एक और राज खुला. आज़ादी का बाद बड़ौदा की ट्रेज़री का हिसाब किया गया तो पता चला, महाराजा ने 1943 से 1948 के बीच प्रिवी पर्स के अलावा 6 करोड़ रुपए और निकाले थे, जो बड़ौदा की जनता का पैसा था. इसके अलावा सात लड़ी वाला एक मोतियों वाला हार, सितारा-ए-दक्कन जड़ा हीरे का हार, और मोतियों के बने दो क़ालीन, बड़ौदा के ख़ज़ाने से ये सब चीज़ें महाराजा ने देश के बाहर पहुंचा दी थी.
ये सब देखकर सरदार पटेल ने तेज़ी से महाराजा के स्क्रू कसने शुरू किए और अंततः 31 जनवरी, 1949 को महाराजा ने भारत के साथ विलय की घोषणा कर दी. विलय सम्पन्न हुआ 1 मई 1949 को जब बड़ौदा को बॉम्बे का हिस्सा बना दिया गया. लापियर और कॉलिन्स की किताब के अनुसार, जिस रोज़ विलय की बात पक्की हुई, महाराजा इतने दुखी थे, कि मेनन के गले लगकर रोने लगे.
पायजेब गले में
बड़ौदा रियासत के भारत में विलय की पूरी कहानी के बाद शायद एक सवाल आपके मन में रह गया हो. सीता देवी का क्या हुआ, जिनसे महाराजा प्रताप राव ने दूसरी शादी की थी. उनकी कहानी अपने आप में काफ़ी दिलचस्प है. 1947 के बाद रानी यूरोप चली गई और वहां के देश मोनाको की नागरिकता ले ली. बड़ौदा रियासत से ले जाए गए काफ़ी सारे बेशक़ीमती जवाहात महाराजा ने सीता देवी को दे दिए थे. आगे जाकर ये अलग अलग ऑक्शन में देखे ग़ए. इनमें दो हीरे भी शामिल थे. एक 128 कैरेट का और दूसरा 78 कैरेट का. साल 2023 के हिसाब से इनकी क़ीमत प्रति कैरेट, 6 करोड़ रुपए बैठती है. भारतीय इतिहास पर लिखने वाले K. R. N. स्वामी, द ट्रिब्यून के एक आर्टिकल में सीता देवी और इन जवाहरातों से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं.
हुआ यूं कि सीता देवी के पास एक जोड़ी हीरों जड़ी पायजेब हुआ करती थी. साल 1953 में सीता देवी ने इन्हें बेच दिया. इन्हें न्यू यॉर्क के एक जौहरी ने ख़रीदा और पायजेब से हीरों का एक हार बना डाला. इत्तेफ़ाक से हीरों का ये हार वालेस सिंपसन ने ख़रीदा. ये कौन थीं? जॉर्ज पंचम थे ना. उनके एक बेटे हुए एड्वर्ड. जॉर्ज पंचम के उन्हें राजा बनाया गया. लेकिन एड्वर्ड को एक विधवा महिला के साथ इश्क़ हो गया. और उसके लिए उन्होंने सिंहासन त्याग दिया. इसके बाद जॉर्ज छठे, इंग्लैंड के राजा बने. बाद में इन्हीं की बेटी एलिज़ाबेथ रानी बनी.
बहरहाल वालेस सिंपसन के हार ख़रीदेने के बाद मयू यॉर्क की एक पार्टी में उनकी और सीता देवी की मुलाक़ात हुई. पार्टी में जहां हर कोई हार की तारीफ़ कर रहा था, सीता देवी ने तंज़ मारते हुए कहा, हां ये मेरे पैरों पर भी अच्छा ही लगता था. बस फिर क्या था. वालेस भड़क गई. और उन्होंने ये हार जौहरी को वापिस कर दिया. इसके बाद सीता देवी का क्या हुआ? 1956 में महाराजा प्रताप राव और सीता देवी अलग हो गए. महाराजा ने अपने अंतिम दिन लंदन में गुज़ारे वहीं सीता देवी 1986 तक ज़िंदा रही. अपने आख़िरी डं मुफ़लिसी में गुज़ारने के बाद फ़्रांस में उनकी मौत हो गई. और वहीं उनक अंतिम संस्कार भी हुआ.
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