मई 1942 की बात है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान ने जबरदस्त हमला करते हुए मित्र राष्ट्रों की सेना को बर्मा से खदेड़ दिया. बर्मा थियेटर की कमान एक अमेरिकी जनरल के हाथ में थी. नाम था जोसफ स्टिलवेल. स्टिलेटवेल अपने साथ लगभग 1000 फौजी और सिविलयन्स को लेकर बर्मा के घने जंगलों से पैदल भारत लौटे. ये यात्रा 210 किलोमीटर की थी. लौटने के बाद इस पूरे कैम्पेन की छानबीन हुई. क्यों हारे, आगे क्या करें. इधर जब स्टिलवेल ये सोच रहे थे.
जब USA ने 16 हजार करोड़ खर्च कर भारत में बनाई सड़क!
साल 1942 में असम से बर्मा होते हुए चीन तक 1700 किलोमीटर की रोड बनवाई, जिसका हर एक किलोमीटर बनाने में एक आदमी मारा जाता था.
चीन में चियांग काई शेक, जापानी आक्रमण का सामना कर रहे थे. और ऐसा लग रहा था कि जल्द ही चीन पर भी जापान का कब्ज़ा हो जाएगा. यानी स्टिलवेल के आगे दो दो मुसीबतें थीं. बर्मा का कैम्पेन तो कमोबेश फिर भी संभव था. लेकिन भारतीय कमांड से चीन को मदद देना, लगभग नामुमकिन. इसका कारण था कि चीन तक पहुंचने के लिए पूर्वी हिमालय की चोटियों को पार करके जाना पड़ता था. और इसके लिए लगते थे कार्गो प्लेन.
DC-3, C-39, C 53 मॉडल के ये विमान अमेरिकी मेड थे. इन्हें डिब्रूगढ़ आसाम से चीन के कुन्मिंग प्रान्त तक जाना होता था. मित्र राष्ट्रों की मदद के बिना चियांग काई शेक, जापान का सामना नहीं कर सकते थे. इसलिए इन विमानों से लगातार सप्लाई भेजी जानी जरूरी थी. लेकिन ये हवाई यात्रा इतनी मुश्किल थी कि तब इसका नाम पड़ गया था, ‘स्काईवे टू हेल’ यानी नर्क का रास्ता. सोचिए हिमालय के ऊपर 12 से 20 हजार फ़ीट की ऊंचाई पर उड़ने वाले इन प्लेन्स को लगभग 850 किलोमीटर की हवाई यात्रा करनी पड़ती थी. वो भी बिना रुके. इस दौरान बर्फीले तूफानों के बीच शून्य से भी कम तापमान में उड़ान भरनी होती थी.
ऊपर से न 21 वीं सदी जैसे नैविगेशन सिस्टम थे, ना ही मौसम उपकरण. दुर्घटना होने के पूरे चांसेज़ थे. और दुर्घटनाओं का आलम ये रहा कि पूरे युद्ध के दौरान अमेरिका के 500 एयरक्राफ्ट गायब हुए. 1200 फौजी मारे गए. और इनमें से 416 का कभी कुछ पता नहीं चला. इन दुर्घटनाओं के चलते इस रुट को एक और नाम मिला, ‘द एल्युमीनियम ट्रेल’. क्योंकि इस रास्ते पर आगे कई दशकों तक विमानों के पुर्जे मिला करते थे. अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट के अनुसार हर महीने लगभग 8 विमान इस रुट पर गायब हो जाया करते थे. फिर भी क्या करते, सप्लाइज पहुंचाना जरूरी था. वरना चीन हाथ से निकल सकता था. बहरहाल इसी दौरान जनरल स्टिलवेल ने एक नए प्लान सुझाया. क्या था ये प्लान?
इस प्लान के तहत भारत से बर्मा होते हुए चीन तक की एक सड़क बनानी थी. 1700 किलोमीटर लम्बी ये सड़क द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तैयार किया गया सबसे बड़ा, सबसे महंगा और सबसे कंट्रोवर्सियल प्रोजेक्ट था.
सिरके वाला जनरलअसम के तिनसुकिया जिले में एक छोटा सा क़स्बा है. नाम है लेडो. 1 दिसंबर 1942 को यहीं से सड़क बनाने की शुरुआत हुई. लेडो को चुनने का एक खास कारण था. ये इलाका कलकत्ता और कराची से आने वाले रेल लाइन के मुहाने पर पड़ता था. अमेरिका से बुलडोज़र, क्रेन, स्टीम रोलर और कई भारी भरकम उपकरण लाए जाने थे. ये पूरा उपक्रम 19 हजार किलोमीटर की लंबाई पे, दो महासमुद्रो, और तीन महाद्वीपों को पार कर पूरा किया जा रहा था.
रोड बननी तो शुरू हो गई. लेकिन अमेरिका में कई लोग इससे बिलकुल खुश नहीं थे. सबको लग रहा था कि ये अस्मभव काम है. लेकिन स्टिलवेल किसी हाल में हार मानने को तैयार नहीं थे. स्टिलवेल के बारे में मशहूर था कि वो एकदम अक्खड़ मिजाज के आदमी थे. एक बार किसी सैनिक ने उनके व्यवहार से तंग आकर उनका एक कार्टून बना दिया, जिसमें स्टिलवेल सिरके की बोतल से निकलते हुए दिख रहे थे. कहने का आशय था कि उनका मिजाज बहुत ही खट्टा था. बहरहाल स्टिलवेल को कब ये पता चला, उन्होंने उस कार्टून को अपने कब्ज़े में लिया और अपने सारे दोस्तों को दिखाया. तबसे स्टिलवेल का नाम पड़ गया, ‘विनेगर जो’. चियांग काई शेक के साथ उनकी बिलकुल नहीं पटती थी. इसलिए वो उसे मूंगफली बुलाया करते थे. क्यूंकि मूंगफली उन्हें बिलकुल नहीं पचती थी. स्टिलवेल के मातहत एक कर्नल हुआ करते थे. कर्नल लुइस पिक. पिक को रोड बनाने का जिम्मा सौंपा गया था.
पिक की आदत थी कि वो हर सुबह सड़क के मुआयने पर निकल जाया करते थे. और अपने सैनिकों को हर दिन का टारगेट दिया करते थे. हफ्ते में सिर्फ 6 दिन बारिश होती थी. और ऐसे में भी सड़क का काम जारी रहता. तब के एक अखबार, CBI राउंडअप के अनुसार पिक का आदेश था कि 24 घंटे में 5 मील सड़क बनानी है. एक दिन गुस्से में आकर एक सार्जेंट ने कह दिया, ये बेवकूफ मुझे समझता क्या है , मैं कोई जादूगर हूं. इस बीच जापानी स्नाइपरों, मच्छर मलेरिया आदि का खतरा भी लगातार बना रहता. सैनिक हर रोज़ कहते कि ये काम असम्भव है, और फिर दुबारा काम पर लग जाते.
दुनिया की सबसे मुश्किल इंजीनियरिंगइस इलाके में इतनी बारिश होती थी कि हर रोज़ कई सौ मजदूर बीमार पड़ते. ऊपर से मुश्किल इलाके में कहीं पहाड़ था तो कहीं जंगल. दुर्घटना का खतरा हमेशा बना रहता. आंकड़ों के मुताबिक़ हर रोज़ इस सड़क को बनाने में 3 लोग मारे जाते थे. इसलिए इस सड़क को एक और नाम मिला, अ माइल अ मैन. यानी हर मील पर सड़क एक जिंदगी लील जाती थी. इस पूरी रोड को बनाने में 1 करोड़ तीस लाख क्यूबिक यार्ड बराबर मिट्टी हटाई गयी. यानी अगर एक फुटबॉल फील्ड को गोल पोस्ट तक खोदा जाए. तो लगभग ऐसे 560 फुटबाल के मैदानों के बराबर मिट्टी हटाई गई.
चार्ल्स ग्लीम, अमेरिका की 330 इंजिनीयर्स फ़ोर्स के कमांडर ने तब कहा था “दुनिया में इससे मुश्किल इंजीनियरिंग का काम आज तक नहीं हुआ”. ऊपर दिख रहा पहला चित्र देखिए. हजारों फुट की ऊंचाई से लिया हुआ ये चित्र किसी नदी सा दिखाई पड़ता है. ऐसा ही ख्याल आया था लार्ड माउंटबेटन को, जब 1944 के आसपास वो युद्ध के मोर्चे पर पहुंचे. हवा में उड़ान भरते हुए माउंटबेटन ने अपने स्टाफ से पूछा, इस नदी का नाम क्या है? साथ में चल रहे अमेरिकन अफसर ने जवाब दिया, “सर ये नदी नहीं है, ये लेडो रोड है”.
सड़क बनाने में अमेरिका के लगभग 28 हजार जवान लगे हुए थे. वहीं चीन की तरफ चीनी मजदूर, और भारत की तरफ चाय बागान में काम करें वाले मजदूरों को लगाया गया था. इस रोड का एक स्याह पहलू ये भी है कि इस काम में जिन अमेरिकी फौजियों को तैनात किया गया था. उनमें से अधिकतर अश्वेत थे. और मारे जाने वालों में से भी अधिकतर संख्या उन्हीं की थी.
जब अमेरिकी फौजी पहुंचा नागाओं के पासऐसा ही एक फौजी था हरमन पेरी. भयंकर बारिश में काम करते करते पेरी को बहुत ही मुश्किल हो रही थी. एक रोज़ गुस्से में आकर उसने अपने एक ल्यूटिनेंट की हत्या कर दी. इसके बाद पेरी वहां से भाग गया. पेरी ने भाग कर नागा जनजाति के पास शरण ली. यहां कुछ वक्त रहकर उंसने कबीले के एक सरदार की बेटी से शादी भी कर ली. पेरी की जिंदगी आराम से बीत रही थी कि तभी नागाओं के गांव में एक अश्वेत के होने की खबर चारों तरफ फ़ैल गई. ये खबर सुनकर अमेरिकी अधिकारियों ने पेरी को पकड़ा और उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई गई.
करीब 3 साल की मेहनत और लगभग 60 हजार लोगों की कोशिश के बाद 9 जनवरी 1945 को सड़क का काम पूरा हुआ. 12 जनवरी के रोज़ इस रोड से पहली खेप भेजी गई. जो 1736 किलोमीटर की यात्रा करते हुए 4 फरवरी को चीन पहुंची. स्टिलवेल अब तक कमांड से हटाए जा चुके थे. इसके पीछे चियांग काई शेक का हाथ था. जिन्होंने अमेरिकियों पर उन्हें हटाने का प्रेशर डाला था. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से जब सड़क बनकर तैयार हुई तो चियांग काई शेक ने सड़क का नाम स्टिलवेल के नाम पर ‘स्टिलवेल रोड’ रखा. इस सड़क को बनाने में तब 150 मिलियन डॉलर का खर्च आया था. 2022 के हिसाब से ये रकम करीब 1640 अरब रूपये बैठती है. इतनी रकम खर्च करने के बावजूद ये सड़क सिर्फ 7 महीने के लिए इस्तेमाल में लाई गई. अगस्त में अमेरिका ने हिरोशिमा नागासाकी में परमाणु विस्फोट किया और युद्ध वहीं ख़त्म हो गया. वर्तमान में इस सड़क का क्या हाल है?
2022 की बात करें तो चीन ने अपने हिस्से की लगभग 632 किलोमीटर दुबारा तैयार कर ली है. भारत के हिस्से की 64 किलोमीटर सड़क साल 2019 तक यूं ही बर्बाद हालत में रही. जिसके बाद इसके कुछ हिस्से दुबारा बनाने की कोशिश की गई है. समय समय पर अरुणांचल प्रदेश और आसपास के राज्यों की सरकारों की तरफ से ये मांग की जाती रही है कि इस सड़क का पुनर्निर्माण कराया जाए, ताकि ये सड़क बर्मा और इन राज्यों के बीच व्यापार के नए अवसर खोल सके. हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से ये एक नाजुक मामला है. चीन के इरादे आप देख ही रहे हैं. बर्मा में इस सड़क को पुनर्जीवित करने का ठेका चीनी कंपनियों को मिला हुआ है. इसलिए एक डर ये भी है कि किसी रोज़ अगर युद्ध हुआ तो चीन इस रास्ते आराम से भारत में घुस आएगा.
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