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शाह बानो केस में कोर्ट ने किस आधार पर मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ फैसला दिया था?

साल 1985 में शाह बानो केस में अदालत के फैसले के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ गई थी

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शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को पति से गुजारा-भत्ता पाने का हक है. 1986 में राजीव गांधी सरकार ने इसे पलट दिया (तस्वीर: इंडिया टुडे)

रूसी क्रांति के जनक व्लादिमीर लेनिन का कथन है, 

"कई ऐसे दशक भी होते हैं जहां कुछ नहीं होता और कुछ ऐसे हफ्ते भी होते हैं जहां दशकों का काम हो जाता है."

भारत के इतिहास में फरवरी 1986 में दो हफ्ते ऐसे बीते जिसने भारतीय राजनीति की दशा-दिशा को बदल कर रख दिया. कारण और प्रभाव का नियम लगाएं तो इन दो हफ़्तों से आने वाले दशकों तक एक सीधी रेखा खींची जा सकती है. साल 1985 में मुस्लिम लीग के सांसद जी एम बनातवाला ने संसद में एक विधेयक पेश किया. क्या था इस विधेयक में?

इस विधेयक के जरिए बनातवाला मुस्लिम औरतों को CrPC की धारा 125 के दायरे से बाहर निकालने की बात कर रहे थे. राजीव गांधी सरकार में दो तरह की आवाजें उठ रही थीं. मंत्री आरिफ मोहम्मद खान इस विधेयक के खिलाफ थे. जबकि जिया उर रहमान समर्थन में.

राजीव गांधी के लिए समस्या कहीं और थी. उस साल कई लोकसभा सीटों पर चुनाव हुए थे. और सब जगह से कांग्रेस के लिए बुरी खबर थी. आसाम के चुनाव में चंद दिन पुरानी पार्टी यूनाइटेड माइनॉरिटीज फ्रंट (UMF) ने 17 सीटों पर जीत दर्ज़ की थी. वहीं बिहार में किशनगंज लोकसभा सीट के चुनाव में सय्यद शहाबुद्दीन ने कांग्रेस के खिलाफ 73000 वोटों से जीत हासिल की थी. सब जगह एक ही मुद्दा था. शाह बानो केस.

मुस्लिम मतदाताओं के डर से अंत में राजीव गांधी सरकार ने फैसला लिया कि वो अपना बिल लेकर आएगी. इधर अल्पसंख्यकों को मनाने के सरकार ने बिल पेश किया उधर बहुसंख्यक नाराज हो गए. गुणा-भाग ऐसा बैठा कि इस बिल के पेश होने के दो हफ्ते भीतर बाबरी मस्जिद का ताला तोड़ दिया गया. आज 5 मई है और आज ही के दिन साल 1986 में संसद ने द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986 पास किया था. इस बिल तक का रास्ता शुरू होता है शाह बानो की कहानी से.

कौन थी शाह बानो?

मध्य प्रदेश के इंदौर में रहने वाली शाह बानो की शादी साल 1932 में हुई थी. पति का नाम था मुहम्मद अली खान. इस शादी से दोनों को तीन बेटे और दो बेटियां हुई. इसके बाद अली खान ने साल 1946 में एक और निकाह किया, हलीमा बेगम से. कुछ साल ऐसे ही चलता रहा. फिर घरेलू झगड़े बड़े तो साल 1975 में मुहम्मद अली ने शाह बानो को घर से निकाल दिया.

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शाह शाह बानो को तीन तलाक तरीके से तलाक गया था (तस्वीर: AFP)

कुछ साल तक मुहम्मद अली शाह बानो को 200 रूपये प्रति माह गुजारे के लिए देते रहे. लेकिन फिर उन्होंने ये रकम देना बंद कर दिया. गुजारा चलाने के लिए साल 1978 में शाह बानो ने इंदौर की अदालत में एक केस दर्ज़ किया. और अदालत से मांग की कि क्रिमिनल प्रोसीजर एक्ट (CrPC) की धारा 125 के तहत उन्हें 500 रूपये गुजारे भत्ते के रूप में दिए जाएं. इस मामले में कोर्ट का फैसला आता, इससे पहले ही 6 नवम्बर 1978 को मुहम्मद अली खान ने शाह बानो को तलाक दे दिया. साथ ही उन्होंने कोर्ट में 3000 रूपये की रकम कोर्ट में जमा कराते हुए कहा कि ये महर की रकम है जिसे वो लौटा रहे हैं.

अगस्त 1979 में इस मामले में निचली अदालत का फैसला आया. और उन्होंने मुहम्मद से शाह बानो को 25 रूपये प्रति माह बतौर भत्ता देने का हुकुम दिया. मुहम्मद की महीने की कमाई लगभग 5 हजार थी. इस लिहाज से 25 रूपये की रकम शाह बानो के लिए बिलकुल भी जायज़ नहीं थी. और इसी कारण वो 1980 में उन्होंने हाई कोर्ट में केस दायर करते हुए मांग की कि भत्ते की रकम को बढ़ाया जाए.

मामला हाई कोर्ट पहुंचा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने रकम बढ़ाकर 179.20 रुपये महीना कर दी. इस फैसले के खिलाफ मुहम्मद ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट में मुहम्मद ने अपने पक्ष में दो दलीलें दी. पहली दलील मुस्लिम पर्सनल लॉ से. जिसके अनुसार मेहर की रक़म चुकाने के बाद वो और भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं थे. 

नोट: ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या के अनुसार तलाक़ की स्थिति में शौहर को सिर्फ़ इद्दत की मियाद यानी 3 महीने तक तलाकशुदा बीवी को गुजारा देना होता है. 

ध्यान दीजिए हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया था वो CrPC की धारा 125 के तहत था. CrPC की धारा 125 के तहत बेसहारा, त्यागी गईं या तलाकशुदा औरतों को अपने पति से सहायता प्राप्त करने का अधिकार है, बशर्ते वो (पति) खुद मोहताज न हो. इसी धारा के तहत असहाय माता-पिता भी सहायता के लिए अधिकार मांग सकते हैं.

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आरिफ मुहम्मद खान जो आगे जाकर केरल के गवर्नर बने (तस्वीर: इंडिया टुडे)

चूंकि शाह बानो के पास कमाई का कोई जरिया नहीं था इसलिए उन्हें धारा 125 के तहत गुजारा मांगने का हक़ बनता था. लेकिन चूंकि शादी या डायवोर्स का केस सिविल केस होता है. इसलिए इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ भी लागू होता था. जिसके बारे में हमने पहले ही आपको बताया कि उसमें सिर्फ इद्दत यानी 3 महीने तक भत्ते का प्रावधान है.  जब सुप्रीम कोर्ट में धारा 125 की बात उठी तो जवाब में मुहम्मद और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने CrPC की एक और धारा का हवाला दिया. धारा 127. क्या कहती है ये धारा?

CrPC की धारा 127 में ये बताया गया है कि किन परिस्थितियों में में कोर्ट गुज़ारा भत्ते को कैंसिल कर सकता है या उसमें बदलाव कर सकता है. यानी 125 के तहत गुज़ारा भत्ता मिलने के नियम बताए गए हैं और 127 में उसमें बदलाव की शर्त व नियम बताई गई हैं. 127 धारा के दूसरे सेक्शन के b खंड में ये दर्ज़ है कि पर्सनल लॉ के तहत अगर व्यक्ति को तय रक़म मिल चुकी है. तो ऐसे केस में कोर्ट गुज़ारे भत्ते को कैंसिल कर सकता है. ये शब्दशः अनुवाद नहीं है. इसलिए पूरी धारा पढ़ने के लिए आप CrPC चेक कर सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

पूरे मामले को समझें तो कोर्ट के सामने सवाल था, चूंकि धारा 127 का सेक्शन (3b), 125 को कांट्रडिक्ट कर रहा था. तो क्या धारा 125 मुस्लिम महिलाओं पर लागू होगी या नहीं?

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शाह बानो केस के खिलाफ बिल पेश करने के बाद बाबरी मस्जिद का ताला खोला गया (तस्वीर: getty)

इस मामले में वकील डैनियल लतीफ़, शाह बानो की तरफ से कोर्ट में कोर्ट की पैरवी कर रहे थे. उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्याख्या पर सवाल उठाते हुए कोर्ट में क़ुरान की दो आयतें पेश कीं. आयत नंबर 241, जिसका तर्जुमा यूं है-

और जिन औरतों को तलाक़ दे दी जाए. उनके साथ (जोड़े, रुपये वगैरहा से) सलूक़ करना लाज़िम है. ये भी परहेज़गारों पर एक हक़ है.

इसी के साथ आयत नंबर 242 में लिखा है-

इस तरह ख़ुदा तुम लोगों (की हिदायत) के वास्ते अपने अहक़ाम साफ़ साफ़ बयान फरमाता है.

इन दो आयतों के बल पर शाह बानो पक्ष ने दलील दी कि क़ुरान में तलाकशुदा औरतों की मदद का फ़रमान है. इसलिए शाह बानो को मदद दी जानी चाहिए. अंत में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक़ में अपना फ़ैसला सुनाते हुआ कहा कि चूंकि धारा 125 क्रिमिनल लॉ की धारा है, इसलिए वो मुस्लिम पर्सनल लॉ से ऊपर है.

 ये पहला मामला नहीं था जब ऐसा हुआ हो. इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ऐसे ही दो मामलों में फैसला सुना चुका था. एक फैसला साल 1979 में बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिसाली के मामले में दिया गया, दूसरा साल 1980 में फुजलुम्बी बनाम के खादर अली के मामले में. दोनों मामलों में अदालत ने तलाकशुदा औरत को भत्ते का अधिकार दिया था. फिर सवाल ये है-

शाह बानो केस में हंगामा क्यों हुआ?

इसका कारण था कोर्ट इस इस मामले पर अतिरिक्त टिप्पणी. कोर्ट ने जजमेंट में धर्म के नाम पर औरतों के साथ किए जाने वाले अत्याचारों पर कठोर टिप्पणी करते हुए सरकार को समान नागरिक संहिता बनाने का सुझाव दे डाला. कहा गया कि इससे राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा करने में सहायता मिलेगी. साथ ही कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के सुझाव भी दिए. इसी के चलते मामले ने तूल पकड़ा.

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राजीव गांधी के साथ वजाहत हबीबुल्लाह (तस्वीर: Getty)

मुस्लिम उलेमाओं को लगा सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनके धर्म पर हमला है. फतवा जारी कर कह दिया कि ये इस्लामिक शिक्षाओं के खिलाफ है. और ये फतवा इतना प्रचारित किया गया कि लोगों को लगा ‘इस्लाम खतरे में है’ और इस विरोध ने सांप्रदायिक संघर्ष का रूप धर लिया. जगह जगह प्रदर्शन हुए. फैसले को बदलने के लिए मांग होने लगी.

कांग्रेस को कुछ चुनावों में हार मिली तो राजीव गांधी सरकार पर दबाव बढ़ने लगा. अपनी किताब “माय इयर्स विद राजीव” में वजाहत हबीबुल्लाह एक किस्से का जिक्र करते हैं. 1986 का साल. हबीबुल्लाह अल्पसंख्यक आयोग का कामकाज देखा करते थे. उस रोज़ जब हबीबुल्लाह प्रधानमंत्री के चेम्बर में दाखिल हुए तो देखते हैं, टेबल की दूसरी तरफ MJ अकबर बैठे हुए थे. हबीबुल्ला के आते ही राजीव गांधी ने उनसे कहा, “आओ, आओ वजाहत, तुम हम में से ही एक हो.”

हबीबुल्ला इस अजीब से अभिवादन पर हैरान हुए. लेकिन कुछ देर में ही उन्हें बात का मर्म समझ आया. बकौल हबीबुल्ला, MJ अकबर राजीव को समझा रहे थे कि अगर सरकार ने शाह बानो केस में कोर्ट के जजमेंट खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया, तो मुस्लिम समुदाय समझने लगेगा कि प्रधानमंत्री उन्हें अपना नहीं मानते.

हबीबुल्ला लिखते हैं कि MJ अकबर राजीव को समझा रहे थे कि मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा कर, वो मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने में सफल होंगे. ये वो वक्त था जब कांग्रेस के एक सांसद आरिफ मुहम्मद खान सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का समर्थन करते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की बात कर रहे थे. लेकिन फिर कई ऐसे भी थे जो इस जजमेंट के खिलाफ इस्तीफ़ा देने तक को तैयार हो गए थे. जैसे की पर्यावरण मंत्री जिया उर रहमान अंसारी. अंसारी ने तब कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते हुए संसद में कहा था,

“जजों को क़ुरान और हदीस का कुछ पता नहीं है. पान बेचने वाला अगर तेली बनने की कोशिश करेगा तो ख़राब अंजाम होना लाज़मी है.”

राजीव गांधी सरकार ने नया कानून लागू किया

फरवरी 1986 तक आते-आते आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड राजीव गांधी को ये समझाने में सफल हो गया था कि वो ही भारत में मुसलमानों की एकमात्र आवाज हैं. और वोट बैंक खिसकने के डर से फ़रवरी 1986 में सरकार ने सदन में द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986  पेश किया. नए क़ानून के तहत मुस्लिम महिलाएं धारा 125 के तहत गुज़ारे भत्ते का हक़ नहीं मांग सकती थीं.

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शाह बानो केस के बाद देश भर में मुसलमानों ने विरोध किया (तस्वीर: इंडिया टुडे)

दलील दी गई कि इद्दत की तीन महीने की मुद्दत के बाद उनके शौहर की गुज़ारा भत्ता देने की ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है. इसके बाद उन औरतों की ज़िम्मेदारी उनके माता पिता या फैमिली पर होगी, इनके विफल होने पर स्थानीय वक्फ़ बोर्ड पर. आज ही के दिन यानी 5 मई 1986 को संसद ने ये बिल पास भी कर दिया.

नया बिल आने के बाद शाह बानो ने अपना केस वापस ले लिया. हालांकि आने वाले सालों में सुप्रीम कोर्ट ने कई और केसों में इस नए बिल की व्याख्या करते हुए माना कि मुस्लिम महिलाओं को इद्दत के बाद भी गुज़ारे भत्ते का अधिकार है. लेकिन राजीव गांधी सरकार के लिए ये बिल पैर में कुल्हाड़ी साबित हुआ. बाबरी मस्जिद का जिन्न बोतल से बाहर आ चुका था. जिसने अगले एक दशक तक देश की राजनीति को सुलगाए रखा.

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