बेनजीर भुट्टो (Benazir Bhutto) अपनी आत्मकथा, “डॉटर ऑफ द ईस्ट” में एक किस्सा बताती हैं. बात तब की है जब बांग्लादेश युद्ध (1971 Bangladesh War) के बाद शिमला (Shimla Agreement) में भारत और पाकिस्तान समझौते की मेज पर आमने-सामने आए. 2 जुलाई, 1972 की शाम, इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) और जुल्फिकार अली भुट्टो (Zulfiqar Bhutto) बंद कमरे में मीटिंग में जुटे थे. बाकी सब फाइनल हो चुका था. सिवाए एक चीज के. भारत की मांग थी कि कश्मीर में 'संघर्ष विराम रेखा' को 'नियंत्रण रेखा' का नाम दिया जाए. भुट्टो को डर था कि कश्मीर का जिक्र होते ही पाकिस्तान में हंगामा हो जाएगा. कश्मीर मुद्दे पर बातचीत पटरी से उतरने लगी थी. फिर देर शाम इंदिरा और भुट्टो के बीच एक घंटे की मीटिंग हुई. मीटिंग पूरी होने के बाद पाकिस्तानी डेलीगेशन का एक मेंबर बाहर आया और बोला, “मुबारक हो बेटा हुआ है”. दरअसल ये खुशबखरी का कोड वर्ड था. पाकिस्तान की नहीं मानी जाती तो कहा गया होता, “बेटी हुई है.”
भारत ने 93 हजार पाक युद्धबंदी क्यों रिहा किए?
शिमला समझौते के दौरान इंदिरा पाकिस्तान के युद्धबंदी छोड़ने के लिए राजी हो गई थीं. इसके कई कारण गिनाए जाते हैं. इसी से जुड़ा है एक जरूरी मुलाक़ात का किस्सा.
माना जाता है कि शिमला समझौते में पाकिस्तान का पलड़ा भारी रहा. युद्ध के दौरान जो भी जमीन खोई थी, वो उन्हें वापस मिल गई. साथ ही वो 93 हजार सैनिक भी भारत वापस लौटाने पर राजी हो गया, जो युद्ध के दौरान बंदी बनाए गए थे. तब से लगातार ये सवाल उठता रहा है कि भारत ने 93 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदियों को रिहा क्यों कर दिया?
क्या भारत इन युद्धबंदियों के बदले कश्मीर मसले को हमेशा के लिए सुलझा सकता था?
इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री ने हाथ में आया अवसर जाने क्यों दिया?
वक्त बे वक्त इन सवालों के कुछ जवाब भी दिए जाते रहे हैं. मसलन कहा जाता है कि सोवियत संघ का भारत पे बड़ा प्रेशर था. इंदिरा पाकिस्तान को उस हद तक नहीं धकेलना चाहती थी, जहां दोनों देशों के बीच आगे का कोई रास्ता न बचे. कुछ लोग इसके पीछे पी एन हक्सर का दिमाग भी बताते हैं. हक्सर के दिमाग में पहले विश्व युद्ध के बाद हुई 'वर्साय की संधि' थी. ये संधि जर्मनी के लिए इतनी अपमानजनक थी कि कहते हैं इसी की वजह से दूसरा वर्ल्ड वॉर हुआ. हक्सर का मानना था कि शिमला समझौते में पाकिस्तान को इतने घुटने टिका देने को नहीं कहना चाहिए कि ये चीज आगे चलकर एक और युद्ध की वजह बन जाए. इसी सवाल का जवाब जानने की कोशिश करेंगे एक दूसरे नजरिए से. इस नजरिए के पीछे है एक किस्सा. किस्सा वो कि जब इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान की मंशा जानने के लिए एयरपोर्ट पर भेजा एक जासूस. क्या थी पूरी कहानी. चलिए जानते हैं.
16 दिसंबर 1971. भारतीय इतिहास का शायद सबसे गौरवशाली दिन. भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया. देश में जश्न का माहौल था. सड़क से संसद तक इंदिरा गांधी की जय जयजयकार हो रही थी. इस बीच हालांकि इंदिरा के सामने तीन बड़ी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हो गई. युद्ध का वित्तीय बोझ, पूर्वी पाकिस्तान से आए रिफ्यूजियों की समस्या का समाधान और पाकिस्तान के 93 हजार युद्धबंदियों का सवाल.
जिनेवा कन्वेंशन के हिसाब से इन युद्धबंदियों को तमाम सुविधाएं प्रदान की जा रही थीं. लेकिन ये एक वित्तीय बोझ भी था, जिसका जल्द से जल्द निपटारा करना जरूरी था. ये सब समस्याएं अपने आप में काफी बड़ी थीं. लेकिन इंदिरा इस समय इन सबके बारे में नहीं सोच रही थी. उनकी नजर दूर पाकिस्तान में जेल में कैद एक शख्स पर टिकी थीं.
बांग्लादेश के राष्ट्रपिता, बंगबंधु शेख मुजीब उर रहमान पाकिस्तान की एक जेल में बंद थे. फांसी की सजा पहले ही मुक़र्रर की जा चुकी थी. बस फाइनल तारीख तय होनी बाकी थी. जेल के कमरे में उनके ठीक सामने एक साढ़े 6 फुट की कब्र खुदी हुई थी. जिसके ऊपर लटकी थी एक रस्सी. यानी पाकिस्तानी फौज ने पूरा इंतज़ाम करके रखा था. मुजीब को हर समय दिलाया जा रहा था कि उनका आख़िरी अंजाम क्या होगा.
मुजीब की रिहाई भारत के लिए बहुत जरूरी थी. बांग्लादेश को आजाद करना भारत की निःसन्देह सबसे बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन इस देश का सबसे बड़ा नेता अगर वक्त पर बांग्लादेश की डोर न संभाल पाए, तो बांग्लादेश पैदा होते ही अनाथ हो सकता था. तब बांग्लादेश भारत के लिए उपलब्धि न होकर एक नई मुसीबत बन जाता. इसलिए इंदिरा किसी भी कीमत पर जल्द से जल्द मुजीब की रिहाई चाहती थीं. इंदिरा ने ये बात अपनी किचन कैबिनेट के सबसे भरोसेमंद व्यक्ति को बताई. राम नाथ काओ , रॉ के चीफ. रॉ की मशीन अपने काम में जुट गई.
भुट्टो की फ्लाइट पर इंदिरा की नजरउधर पाकिस्तान में घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा था. भारत के हाथों मिली हार, आधी से ज्यादा जमीन का हाथ से निकल जाना, पाकस्तानी रहनुमाओं के लिए शर्म की बात थी. अब सर गिराए जाने थे, सो गिराए गए. याहया खान ने तुरंत जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़ा दे दिया. पाकिस्तान का होने वाला अगला राष्ट्रपति इस समय न्यू यॉर्क में था. UN में भुट्टों की तमाम कोशिशें बेनतीजा रही थीं. अब वो पाकिस्तान लौटने की तैयारी कर रहे थे. इसी बीच उनके पास पाकिस्तान से एक कॉल आया. पाकिस्तान की बागडोर उनके हाथ में दी जा चुकी थी. भुट्टो ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इत्तिला की. और वाशिंगटन से रावलपिंडी की फ्लाइट में बैठ गए. रावलपिंडी से पहले फ्लाइट को बीच में लन्दन में रुकना था.
इधर भारत में इंदिरा पल-पल की खबर ले रही थीं. जैसे ही उन्हें पता चला कि भुट्टो पाकिस्तान लौटने वाले हैं. उन्होंने तुरंत अपनी वॉर कैबिनेट की इमरजेंसी मीटिंग बुलाई. साउथ ब्लॉक में हो रही मीटिंग में इंदिरा ने दो टूक पूछा, भुट्टो के हीथ्रो एयरपोर्ट पर लैंड करते वक्त हमारी तरफ से वहां कौन मौजूद रहेगा.अब सवाल ये कि इंदिरा को भुट्टो की हीथ्रो लैंडिंग में इतना इंटरेस्ट क्यों था?
दरअसल इंदिरा को सिर्फ एक सवाल का जवाब चाहिए था. भुट्टो में मन में क्या है. मुजीब को लेकर उनके क्या ख्याल है. क्योंकि उसी हिसाब से भारत का अगला कदम तय होना था.
इस मीटिंग में विदेश मंत्रालय में पॉलिसी प्लानिंग के हेड, दुर्गा प्रसाद धर, रॉ के चीफ, RN काओ, इंदिरा के मुख्य सचिव PN हक्सर और विदेश सचिव TN कौल मौजूद थे. मीटिंग में किसी ने इंदिरा को मुजफ्फर हुसैन का नाम सुझाया.. हुसैन पूर्वी पाकिस्तान की सरकार में चीफ सेक्रेटरी हुआ करते थे. और इस समय युद्धबंदी कैम्पस में रह रहे थे. हुसैन को रातों रात दिल्ली बुलाकर DP धर के घर पर ठहराया गया. हुसैन को मिल रहे इस VIP ट्रीटमेंट की वजह थी उनकी पत्नी, लैला हुसैन. उनकी और भुट्टो की पुरानी दोस्ती थी. युद्ध की शुरुआत से लैला लन्दन में अटकी हुई थीं.
शशांक बैनर्जी, तब लन्दन में भारतीय डिप्लोमेट के तौर पर काम कर रहे थे. बांग्लादेश में हुए घटनाक्रम पर उन्होंने एक किताब लिखी है, Mujibur Rahman, Bangladesh Liberation & Pakistan: A Political Treatise. शशांक बताते हैं कि सरकार की तरफ से उन्हें जिम्मेदारी दी गई कि वो लैला को भुट्टो से मुलाकात करने के लिए मनाएं, ताकि लैला भुट्टो के मन की बात जान सकें. इसमें लैला का निजी हित भी शामिल था. वो किसी तरह अपने पति की रिहाई चाहती थीं.
शशांक किसी तरह मीटिंग तय कराने में सफल रहे. भुट्टो का प्लेन लैंड हुआ और वो हीथ्रो के VIP लाउंज में दाखिल हुए. शशांक भी वहीं मौजूद थे. शशांक बताते हैं कि लैला और भुट्टों के बीच दो पुराने दोस्तों की तरह मुलाक़ात हुई. हालचाल पूछा गया. शशांक चुपचाप खड़े रहे. इस बातचीत से विरक्त उनकी दिलचस्पी सिर्फ एक बात जानने में थी. क्या भुट्टो मुजीब की फांसी बरकरार रखेंगे या कोई स्कोप बाकी है.
शशांक बताते हैं कि कुछ ही देर में लैला हुसैन ने मुद्दे की बात उठाई. उन्होंने भुट्टो से अपने पति की रिहाई की गुहार की. भुट्टो इन सब पैतरों से वाकिफ थे. उन्होंने जल्द ही भांप लिया और लैला से बोल भी दिया कि वो भारत सरकार की पैरवी करने आई हैं. इसके बाद माहिर खिलाड़ी की तरह भुट्टों की आंखों की चमक में बात ही पलट दी. और इधर-उधर की बातें करने लगे. कुछ देर बाद वो लैला को एक किनारे ले गए. और चुपके से उनसे कहा, “लैला मैं जानता हूं, तुम क्या चाहती हो. जैसा कि मैं समझ पा रहा हूं, तुम मिसिज़ इंदिरा गांधी की तरफ से मुझसे मिलने आई हो. मेरा एक सन्देश उन तक पहुंचाना. पाकिस्तान में जिम्मेदारी संभालते ही मुजीब रिहा कर दिए जाएंगे. बदले में मुझे जो चाहिए, वो किसी और जरिए से मैं उन तक पहुंचा दूंगा. अब तुम जाओ”.
लैला ने ये सन्देश शशांक तक पहुंचाया. और वहां से ये मेसेज डायरेक्ट इंदिरा तक पहुंचाया गया. भुट्टो की बात सुनकर इंदिरा कुछ संतुष्ट हुईं. लेकिन ये बात अभी बाइक चैनल तक सीमित थी. क्या भुट्टो भारत को फुसलाने की कोशिश कर रहे थे. इंदिरा इस खबर की पुष्टि चाहती थीं. उन्होंने डिप्लोमेटिक चैनल्स के जरिए पाकिस्तान से संपर्क साधा. घंटों के भीतर पकिस्तान की तरफ से इस खबर की तस्दीक़ कर दी. हालांकि अब तक ये साफ़ न हुआ था कि मुजीब के बदले भुट्टो भारत से क्या चाहते थे.
कोबरा का 10 गुना ज़हरशशांक लिखते हैं, कुछ रोज़ बाद इंदिरा ने अपनी कैबिनेट के एक सदस्य को बताया कि उन्हें भुट्टो की मंशा का अंदाज़ा हो गया है कि. इसके आगे की बात होती, उससे पहले पाकिस्तान की तरफ से एक सिग्नल की जरुरत थी. जल्द ही ये सिग्नल आया. पाकिस्तान पहुंचते ही भुट्टो ने मुजीब की सजा माफ़ करते हुए उन्हें रिहा कर दिया. पाकिस्तान से लन्दन होते हुए 10 जनवरी को मुजीब भारत पहुंचे. भारत में मुजीब ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाक़ात की. दोनों देशों के बीच कुछ समझौते हुए. और उसी दिन मुजीब ने बांग्लादेश पहुंचकर एक नए राष्ट्र की नींव रख दी. इंदिरा का ये उद्देश्य पूरा हो चुका था.
शशांक लिखते है कि मुजीब को रिहा करवाना जरूरी था. इसलिए इंदिरा युद्धबंदियों को रिहा करने के लिए राजी हो गई. हालांकि कुछ और मसले भी थे. ये बात सच थी कि युद्धबंदी भारत पर आर्थिक बोझ साबित हो रहे थे. साथ ही अमेरिका और सोवियत यूनियन का प्रेशर तो था ही. हालांकि मुजीब की रिहा सिर्फ एक दिखावा साबित हुआ. अगस्त 1975 में पाकिस्तान परस्त फौज के अधिकारियों ने शेख मुजीब-उर-रहमान के घर में घुसकर परिवार समेत उनकी हत्या कर दी.
भारत में इमरजेंसी का दौर शुरू हो गया था. इसके बावजूद रॉ के तरफ से कुछ महीने पहले मुजीब को चेतावनी दी गई थी कि उनके तख्तापलट की कोशिश होने वाली है. इसके बावजूद मुजीब कुछ न कर सके. महज तीन साल में बांग्लादेश तानाशाही की गिरफ्त में चला गया. भारत के परिपेक्ष्य से शिमला समझौता एक घाटे का सौदा रहा. कश्मीर समस्या ज्यों की त्यों बनी रही.
अंत में एक चिट्ठी का किस्सा बताते हैं, जिसका जिक्र शशांक ने किया है. 16 दिसंबर 1971 लिखा ये खत जस्टिस अबू चौधरी ने इंदिरा गांधी को लिखा था. जस्टिस चौधरी आगे जाकर बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने. जस्टिस चौधरी को जब पता चला कि इंदिरा एकतरफा सीजफायर का ऐलान करने की सोच रही हैं, उन्होंने इंदिरा के नाम सन्देश में लिखा, “अगर आप कोबरा की पूंछ कुचल देते हैं तो उसका सर 10 गुना जहरीला हो जाता है”. जस्टिस चौधरी चाहते थे, युद्ध बीच में न रुके. लेकिन ये खत प्रधानमंत्री की डेस्क पर एक दिन की देरी से पहुंचा. उसके आगे जो हुआ आप जानते ही हैं.
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