विनायक दामोदर सावरकर. इस नाम का जितना ज़िक्र होता हैं उतने पहलू बनते जाते हैं. एक हिस्से में वो महान क्रांतिकारी हैं, जिसने अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाई और जेल गया. वो भी साधारण जेल नहीं. काला पानी का नर्क. एक दूसरे हिस्से में वो महान विचारक हैं. जिसने हिंदुत्व के विचार की नींव में कई पत्थर लगाए. एक स्वघोषित नास्तिक जो भारत में धार्मिक राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा नायक बना.
जब अंग्रेजों की कैद से समंदर में कूद कर फ़्रांस पहुंच गए सावरकर
वीर सावरकर की ज़िंदगी को 1910 से पहले और बाद, इन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है

सावरकर की ज़िंदगी का एक दूसरा पहलू भी है. जिसमें कुछ लोगों को उनके नाम के आगे वीर लगाए जाने से आपत्ति है. जिनके लिए वो महात्मा गांधी की हत्या के आरोपी हैं. इन सारी वजहों के चलते ही सावरकर एक पोलराइज़िंग फिगर हैं. प्रशंसक और आलोचक दोनों पक्षों के पास अपने अपने तर्क और तथ्य हैं. और सबसे बड़ा विवाद है दो चीजों पर. सावरकर द्वारा अंग्रेज़ सरकार से मांगी गई माफी. और महात्मा गांधी की हत्या में उनकी कथित भूमिका.
लेकिन इन विवादों के उठते ही हमारे अपने मन की पूर्वधारणाएं भी खड़ी हो उठती हैं. और हम अपनी-अपनी टीम बनाकर तथ्यों को मापने लगते हैं. राजनीति का ये टीम गेम नेताओं के लिए बहुत उपयोगी है. किंतु जनता के लिए नहीं. इतिहास का छात्र होने के नाते हम सभी तथ्यों को जानना चाहिए. और तथ्य अगर साफ़ हों तो उनसे क्या मतलब निकलता है. ये तय करने का हक़ भी सभी को है, और क्षमता भी सब के पास है. कम से कम लोकतंत्र का आधार तो यही है. तो चलिए जानते हैं दो बातें. पहली कि सावरकर आख़िर अंडमान पहुंचे कैसे. किस मामले में उन्हें सजा हुई. और जेल पहुंचने से पहले वो कर क्या रहे थे. और जेल से छूटने के बाद उन्होंने क्या-क्या किया?
मदन लाल ढींगरा
शुरुआत एक जुलाई 1909 से. इस दिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मदन लाल ढींगरा ने सर विलियम कर्जन वाइली की गोली मारकर हत्या कर दी थी. यूं तो ढींगरा की योजना भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन और बंगाल के पूर्व गवर्नर ब्रमफील्ड फुलर को मारने की थी. लेकिन मीटिंग में देर से पहुंचने के कारण ढींगरा इस काम में सफल नहीं हो पाए. फिर उन्होंने मौक़ा पाकर सर विलियम कर्जन वाइली को निशाना बनाया और बाद में इसी क़त्ल के जुर्म में फांसी के फंदे पर झूल गए.

मदन लाल ढींगरा (तस्वीर: wikimedia commons)
लंदन में मदन लाल ढींगरा जिस संगठन के सदस्य थे. उसका नाम था, अभिनव भारत मंडल. जिसका गठन किया था विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश उर्फ बाबाराव सावरकर ने. सावरकर लंदन में क़ानून की पढ़ाई कर रहे थे. लंदन में पढ़ाई के दौरान सावरकर ने लाइब्रेरी में मौजूद दस्तावेज़ों के बल पर एक किताब भी लिखी. ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’. इसके लिए उन्होंने 18 महीने तक ढाई हजार पत्रों, ग्रंथों और इतिहास को खंगाला. और ये साबित किया कि 1857 की क्रांति बस लूटपाट की घटना नहीं. बल्कि सुनियोजित ढंग से भारत की आज़ादी के लिए किया गया एक संग्राम था. ये किताब भारत में खूब प्रसिद्ध हुई. जिसके चलते अंग्रेज सरकार ने इसे बैन भी कर दिया था. बाद में इसके तीसरे संस्करण की छपाई खुद भगत सिंह ने कारवाई थी.
बहरहाल विलियम कर्जन वाइली की हत्या से सावरकर पहली बार ब्रिटिश सरकार के निशाने पर आए. पुलिस को सावरकर पर भी शक था लेकिन कोई सबूत मिला नहीं. सावरकर की मृत्यु के बाद साल 1966 में उनकी जीवनी प्रकाशित हुई. जिसमें दर्ज़ था कि कर्जन वाइली की हत्या में सावरकर भी शामिल थे. इस घटना के बाद सावरकर के बड़े भाई बाबाराव के पास ब्रिटिश पुलिस को कुछ हथियार और बम मिले. इसके चलते उन्हें हिरासत में लेकर काला पानी भेज दिया गया. 8 जून 1909 को बाबराव को कालापानी की सजा सुनाई गई थी. तब बाबराव के दोस्तों ने उनकी सजा का बदला लेने का फ़ैसला किया. योजना बनी और 29 दिसंबर, 1909 को एएमटी जैक्सन को गोली मार दी गई. जैक्सन नासिक के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे और उन्हीं की अदालत में बाबाराव के मुकदमे की सुनवाई हुई थी.
सावरकर की गिरफ़्तारी
भारत में पुलिस ने जैक्सन के हत्यारों को गिरफ्तार किया तो उनके पास से सावरकर के पत्र बरामद हुए. पुलिस को पता चला कि जैक्सन की हत्या में जिस ब्राऊनिंग पिस्टल का उपयोग हुआ था वो इंग्लैंड से भारत भिजवाई गई थी. और ये भिजवाई थी सावरकर ने. इस आधार पर भारत से सावरकर के नाम एक वारंट लंदन भेजा गया . और 13 मार्च, 1910 को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.

अंडमान सेल्यूलर जेल (तस्वीर: wikimedia commons)
29 जून 1910 की रोज़ ब्रिटिश सरकार के राज्य सचिव की तरफ़ से एक आदेश जारी होता है. विंस्टन चर्चिल तब राज्य सचिव थे. आदेश था कि एक विशेष शिप से सावरकर को भारत भेजा जाए. और वहां उन पर मुक़दमा चले. इसके दो दिन बाद यानी 1 जुलाई को सावरकर को लेकर एक विशेष शिप भारत के लिए रवाना होता है. 6 जुलाई के रोज़ फ़्रांस के नज़दीक उसमें कुछ ख़राबी आती है तो उसे फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के किनारे रोका जाता है. मौक़ा पाकर सावरकर शिप के टॉयलेट होल से समंदर में कूद लगाते हैं और तैरते हुए किनारे तक पहुंच जाते हैं.
फ़्रांस ब्रिटेन से अलग था इसलिए सावरकर को लगा यहां उन्हें राजनैतिक असायलम मिल जाएगा. वो दौड़ते दौड़ते एक फ़्रेंच पुलिस वाले के पास पहुँचते और उसे अपनी बात समझाने की कोशिश करते हैं. भाषा की अड़चन तो थी ही, साथ ही जहाज़ से पीछा करते हुए ब्रिटिश पुलिस भी वहाँ पहुंच जाती है. चोर चोर का शोर होता है. और सावरकर को गिरफ़्तार कर लिया जाता है.
मामला इंटरनेशनल कोर्ट पहुंचता है. इसके बाद 25 अक्टूबर 1910 को फ़्रेंच और ब्रिटिश सरकार के बीच एक समझौता होता है. और सावरकर ब्रिटेन के हवाले कर दिए जाते हैं. फिर आती है आज की तारीख़. मुक़दमे के बाद आज ही के दिन यानी 24 दिसम्बर 1910 के रोज़ सावरकर को मामले में दोषी ठहराते हुए 2 आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है. कुल पचास साल. 4 जुलाई, 1911 को सावरकर काला पानी पहुंचते हैं और उन्हें अंडमान की सेलुलर जेल में डाल दिया जाता है. यहां तक सावरकर के जीवन का पार्ट 1 ख़त्म होता है. और पार्ट 2 शुरू होता है.
सावरकर पार्ट-2
करीब 10 साल सावरकर अंडमान की जेल में रहे. जेल से रिहाई के लिए उन्होंने 6 बार पत्र लिखे. सावरकर की आलोचना करने वाले कहते हैं कि जेल से छूटने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ों से माफी मांगी थी. दिक़्क़त ये है कि ये माफ़ी वाली बात लोगों को हज़म नहीं होती. जिनके आगे वीर लगा हो वो माफ़ी माँगे. बात कुछ हद तक विरोधाभासी लगती है. इसलिए एक दूसरा नरेटिव भी गड़ा जाता है कि गांधी के कहने पर ऐसा किया था. ये बात तो सही है कि गांधी ने सावरकर की रिहाई की वकालत की थी. अपने यंग इंडिया अखबार में गांधी ने 26 मई 1920 को एक लेख में सावरकर का ज़िक्र किया था.

महात्मा गांधी को सावरकर के भाई को पत्र (फ़ाइल फोटो)
गांधी ने लिखा था कि कि कई अहम राजनैतिक अपराधियों को अभी तक रिहा नहीं किया गया है, जिनमें सावरकर बंधु भी हैं. यानी विनायक दामोदर सावरकर और गणेश दामोदर सावकर. गांधी लिखते हैं कि इनका अपराध भी उतना ही, जितना पंजाब में रिहा किए गए कई राजनैतिक अपराधियों का. दोनों भाइयों को अभी तक नहीं छोड़ा गया है जबकि उनकी रिहाई पर रॉयल प्रोक्लेमेशन को छपे 5 महीने बीत गए हैं. यानी उनकी रिहाई का ऐलान हो चुका है.
रिकॉर्ड मिलता है कि सावरकर ने 1911 में पहली बार अंग्रेजों से रिहाई की गुहार लगाई. तब गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा नहीं थे. गांधी की एंट्री 1915 के आसपास होती है. सावरकर की रिहाई की मांग गांधी ने 1920 में की. रिहाई की याचिका पर गांधी ने सावरकर के भाई को चिट्ठी भी 1920 में लिखी थी. तो ये कहना कि गांधी के कहने पर सावरकर ने मर्सी पिटिशन दायर की, इतिहास के हिसाब से सही नहीं होगा.
सावरकर ने क्षमा याचना क्यों की?
इससे भी बड़ा मुद्दा है सावरकर के पत्रों में लिखी बातें. 14 नवंबर, 1913 को भेजी अपनी दूसरी याचिका में वो अंग्रेज सरकार से खुद को भारत में किसी भी अन्य जेल में भेजे जाने की बात लिखते हैं. साथ ही वो लिखते हैं कि जिस तरह भी संभव होगा वे सरकार के लिए काम करेंगे.

गांधी और सावरकर (तस्वीर: Getty)
उन्होंने ये भी तर्क दिया कि अंग्रेजों द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदमों से उनकी संवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है. और इसलिए अब वो हिंसा के मार्ग का त्याग करते हैं. इस मुद्दे पर तर्क दिया जाता है कि सावरकर ने strategy के रूप में ये बात कही थी. ताकि वो जेल से बाहर निकल सकें. मतलब ये कि आप पत्र की भाषा में छुपे गहरे अर्थ को देखें.
Occam's Razor की माने तो, Simplest explanation is usually the best one. यानी सबसे साधारण अर्थ ही अधिकतर सबसे सही होता है. सम्भव है कि सावरकर जेल से निकलने के लिए ये सब कह रहे थे. काला पानी की सेल्यूलर जेल में हालात भयावह थे. जानवरों को जिस तरह कोल्हू में जोता जाता है, सावरकर को उसी तरह तेल मिल में काम पर लगाया गया. यह बर्बर सजा थी. इसलिए काला-पानी से निकलने के लिए उन्हें जो पैंतरे मिले उन सबका उपयोग उन्होंने किया.
लेकिन यहां पर एक तर्क और खड़ा होता है. वो ये कि 1924 में रत्नागिरी जेल से निकलने के बाद सावरकर किसी प्रकार के सशस्त्र आंदोलन में शामिल नहीं होते. कजबकि तब क्रांतिकारी आंदोलन अपने ज़ोर पर था. भगत सिंह और बाकी क्रांतिकारी भी अंग्रेजों से छुपते छुपाते काम कर रहे थे. इसके आगे सावरकर का जीवन विरोधाभासों से भरा हुआ है.
हिंदू महासभा के अध्यक्ष
1937 में सावरकर पूरी तरह से आज़ाद होते हैं, और हिंदू महासभा के अध्यक्ष बनते हैं. 1939 में जब कांग्रेस की सरकारें गिरती हैं तो वो मुस्लिम लीग के साथ मिलकर तीन सूबों में सरकार बनाते हैं. और यही सावरकर, 1944 में जब कांग्रेस मुस्लिम लीग से साथ वार्ता करती है तो उसे तुष्टिकरण का नाम देते हैं. 1942 में सावरकर भारत छोड़ो आंदोलन की मुख़ालफ़त करते है. और हिंदुओं और अंग्रेजों के हित समान बताते हुए वायसराय को लिखे लेटर में डोमिनीयन रूल की वकालत करते हैं. वायसरॉय लिनलिथगो को लिखे अपने पत्र में सावरकर लिखते हैं.
“हिज़ मेजस्टी की सरकार को सहायता के लिए हिंदुओं की तरफ देखना चाहिए. हमारे इंट्रेस्ट सेम हैं और इसलिए हमें साथ मिलकर काम करना चाहिए. ये आवश्यक है हिंदुत्व और ग्रेट ब्रिटेन दोस्त बने रहें. इसलिए पुरानी अदावत को भुला देना चाहिए.”

सावरकर और राष्ट्रीय सेवक संघ के बीच एक समय मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को संघ छोड़ने की हिदायत दे दी थी. (तस्वीर: Savarkarsmarak.com)
आगे इसी पत्र में सावरकर लिखते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हिंदु महासभा डोमिनियम स्टेटस लगाए जाने की समर्थक है. इसके साथ-साथ सावरकर सभी हिंदुओं से सेना में जुड़कर अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ने की बात करते है. इस मामले में दूसरी तरफ़ से ये तर्क आता है कि सावरकर हिंदुओं को लड़ाई के लिए तैयार कर रहे थे और 1946 में नौसेना का विद्रोह भी उन्हीं की अनुशंसा पर हुआ था.
यहां मुद्दा ये कि सैनिकों में विद्रोह 1915 के गदर आंदोलन में भी हुआ था. इसलिए ये कहना कि 1946 में सारे सैनिक हिंदुत्व के कौल पर विद्रोह में जुटे थे, ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक नहीं है.
‘हिंदू कौन है'
हिंदुत्व शब्द को गढ़ने का श्रेय भी सावरकर को जाता है. 1923 में रत्ना गिरी जेल से लिखी किताब, ‘हिंदू कौन है’ में वो धार्मिक राष्ट्रवाद की परिभाषा देते हैं. लेकिन साथ ही खुद को नास्तिक भी बताते हैं. और गौ मांस खाने का समर्थन भी करते हैं. मराठी में उन्होंने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था 'विज्ञान निष्ठा निबंध'. इसमें सावरकर लिखते हैं,
“तो अगर आप गाय का मैक्सिमम उपयोग करना चाहते हैं, तो इसको भगवान बनाना छोड़ना होगा. ईश्वर सबसे ऊपर है. फिर इंसान आता है और इसके नीचे जानवर. गाय भी एक जानवर है, जिसके पास मूर्ख मनुष्य से भी कम बुद्धि है. अगर हम गाय को ईश्वर मानें, तो ये इंसान का अपमान होगा.”
'सावराकराच्या गोष्टी’ में सावरकर लिखते हैं:
“कोई वस्तु जितना खाने लायक होती है, उतना ही इंसान के लिए फायदेमंद होती है. पर इससे धर्म को जोड़ देना इसको ईश्वरीय स्टेटस दे देता है. ये अंधविश्वास देश की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है.”
यूनिवर्सिटी ऑफ़ इटली में इतिहास की प्रोफ़ेसर मर्ज़िया कसोलारी रोपीयन राष्ट्रवाद को लेकर सावरकर के विचारो पर प्रकाश डालती हैं. हिंदुत्व: फ़ॉरेन टाई-अप इन 1930's नामक एक शोध पत्र में वो बताती हैं कि 1938 में पूने की एक सभा में भाषण देते हुए सावरकर जर्मन नाज़ीवाद का समर्थन करते है. और जर्मन नाज़ीवाद और इतालवी फ़ासीवाद के विरोध के लिए नेहरू की आलोचना करते हुए कहते हैं, जर्मनी ने जो हासिल किया है वो सच्चा राष्ट्रवाद है. इसी सभा में वो चेकोस्लोवाकिया पर जर्मन अधिग्रहण का समर्थन भी करते है.

सावरकर बंधु, विनायक दामोदर सावरकर, गणेश दामोदर सावरकर, और नारायण दामोदर सावरकर (तस्वीर: Savarkarsmarak.com)
11 दिसम्बर को दिए एक भाषण में वो यहूदियों को कम्यूनल बताते हुए आर्यन रेस के उद्भव का स्वागत करते हैं. और कामना करते हैं कि जर्मनी की जीत से भारत के हिंदुओं को भी हौंसला मिलेगा. 5 अगस्त 1939 को अपने भाषण में वो ‘विचार, धर्म भाषा और संस्कृति’ को राष्ट्रवाद की धुरी बताते हुए कहते हैं, यहूदी और जर्मन कभी भी एक राष्ट्र नहीं बना सकते. सावरकर हिंदूसभा के राजनैतिक पत्र में सबको समान अधिकार मिलने की बात करते हैं. लेकिन साथ ही कहते हैं कि मुसलमान और ईसाई कभी सच्चे भारतीय नहीं हो सकते.
एपिलॉग
समर्थकों का तर्क इन मामलों में रहता है कि ये सब वो भारत की आजादी के लिए कर रहे थे. ये स्ट्रैटेजी थी. आदि, आदि. अपन तो यही कहेंगे Occam's Razor के हिसाब से सबसे आसान विश्लेषण यही बैठता है कि सावरकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अव्यय थे. वैसी ही जैसे नेहरू और गांधी थे. वो हिंदू-मुस्लिम एकता पर विश्वास करते थे. सावरकर नहीं करते थे. उन्होंने अपना राजनैतिक रास्ता चुना जिसमें कुछ ब्लैक में है तो कुछ व्हाइट में.एक क्रांतिकारी के रूप में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनका बहुत योगदान है लेकिन ये भी सच है कि जिस धार्मिक राष्ट्रवाद की वकालत सावरकर कर रहे थे, उसका नतीजा उसके कुछ साल बाद ही जर्मनी में होलोकास्ट के रूप में दिख गया था.
धर्म लोगों के लिए होता है. ताकि वो मानव अवस्था की मुश्किलों में एक रास्ता एक सहारा खोज़ सकें. लेकिन स्टेट का कोई धर्म नहीं हो सकता. ना होना चाहिए. ज़्यादा तर्क नहीं देते हुए इतना ही कहेंगे कि इस मामले में अधिकतर पुरुषों को बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. कम से कम जिस धर्म के राष्ट्रवाद की वकालत की जा रही हो. उन्हें. एक धार्मिक स्टेट में भुगतना महिलाओं को पड़ता है. धर्म की आड़ में उन्हें देवी बताकर रेप से बचने के लिए चाऊमीन ना खाने की सलाह दी जाती है. या धर्म के नाम पर गर्भपात और अपनी मर्ज़ी से की गई शादी जैसी चीजों को गैर-क़ानूनी बनाकर उनकी आजादी में बाधा डाली जाती है. इसलिए जो भी धर्म का राष्ट्रवाद चुने, अपनी किसी महिला दोस्त से ज़रूर पूछें, उन्हें उसके नियम कितने सुहाते हैं.