6 टोपियां, मूंगे की चार मालाएं, चीनी का एक बक्सा, दो तेल के पीपे, दो पीपे शहद के और एक थान कपड़े का. ये है उन चीजों की लिस्ट जो वास्को डी गामा ने कालीकट में उतरकर वहां के राजा यानी जामोरिन को पेश कीं. जैसे ही दरबारियों ने ये देखा, सबकी हंसी छूट गई. दोनों के बीच ये पहली मुलाक़ात नहीं थी. दो दिन पहले हुई पहली मुलाक़ात में जब वास्को डी गामा से पूछा गया था कि किसलिए आए हो यहां, तो उसने जवाब दिया था,
जब भारत में वास्को डी गामा से पूछा गया, आदमी ढूंढने आए हो या पत्थर!
वास्को डी गामा ने चार साल के अंतर में दो बार भारत की यात्रा की थी. पहली बार बेज्जती सहने के बाद दूसरी बार वो जंगी बेड़ा लेकर पहुंचा.

“मैं पुर्तगाल के राजा का प्रतिनिधि हूं, पुर्तगाल के राजा के पास धन दौलत के भण्डार हैं. उनके पास असीम दौलत है. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं. उन्होंने मुझे भेजा है, दूर देश के ईसाई राजाओं से संधि करने के लिए.”
पुर्तगाली जब पहली बार कालीकट में उतरे तो उन्हें लगा कि कालीकट में ईसाईयों का राज है. वो किसलिए? ये आगे बताएंगे. अभी के लिए बस इतना समझ लीजिए कि वास्को डी गामा ने जामोरिन के आगे दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया, लेकिन जब तोहफे की बारी आयी तो चिन्दी सा माल पकड़ा दिया. जामोरिन, जिनके राज्य में धन कुबेरों का बसेरा था, तेल और शहद के चंद पीपों को देखकर बोले, ये क्या है, तुम क्या ढूंढने आये हो, आदमी या पत्थर. लगता तो नहीं तुम आदमी ढूंढने आए हो, वरना सुल्तान के लिए कम से कम तोहफे में कुछ सोना-चांदी जरूर लेकर आए होते.
जामोरिन को चाहे पुर्तगालियों की बात समझ ना आई हो, लेकिन कालीकट में रह रहे अरब के व्यापारियों को अच्छे से पता था कि वास्को के भारत आने का मकसद क्या था? कुछ दिनों में उन्होंने जामोरिन के कान भर दिए कि ये राजा का प्रतिनिधि नहीं बल्कि कोई समुंद्री लुटेरा है. मजबूरी में निराश होकर वास्को डी गामा को लौटना पड़ा. वास्को डी गामा एक और बार भारत आया. अपनी पहली यात्रा के चार साल और अबकी बार वो खाली हाथ नहीं आया. उसके साथ 20 जहाज और 1800 लोगों का जंगी बेड़ा था.
पुर्तगालियों की भारत पर नजर कैसे पड़ी?1481 में जॉन द्वितीय पुर्तगाल का राजा बना. राजा बनते ही उसने देखा कि पुर्तगाल का खजाना खाली है और पुर्तगाल के कुलीन रईस ऐश फरमा रहे हैं. कुलीन वर्ग दिनों दिन ताकतवर होता जा रहा था, वहीं राजा की ताकत बहुत सीमित रह गयी थी. ऐसे में उसने तय किया कि ताकत बढ़ाने का एक ही तरीका है. राजकीय कोष को भरना. सबसे पहले तो उसने अफ्रीका के साथ चलने वाले सोने और गुलामों के व्यापार को बढ़ाया. फिर उसकी नजर गई मसालों के व्यापार पर.

तब यूरोप और एशिया के बीच जमीन के रास्ते से मसालों का व्यापार होता था. 1453 में इस व्यापार पर ऑटोमन साम्राज्य का कब्ज़ा हो चुका था और वही इसे कंट्रोल करते थे. यूरोप तक पहुंचने वाले मसालों पर भारी टैक्स लगाया जाता था, इसलिए यूरोप के लिए मसालों का आयत बहुत महंगा होता था. पश्चिमी यूरोप के देश नहीं चाहते थे कि मुनाफे के इस कारोबार पर एक गैर ईसाई ताकत का कंट्रोल रहे. इसलिए 15 वीं सदी की शुरुआत से ही यूरोपीय जहाजी एक नए रास्ते की खोज में निकलने लगे.
जमीन के अलावा दूसरा रास्ता था समंदर का. मैप में देखेंगे तो दिखेगा कि इसके लिए पूरे अफ्रीकी महाद्वीप को पार करते हुए जाना था. इस रास्ते की खोज़ के लिए जॉन द्वितीय ने अपने दो जासूसों को ज़मीनी रास्ते से भेजा. पेरो डी कोविल्हा और ऐल्फ़ॉन्सो डी पाइवा नाम के ये ये दो जासूस मिश्र और पूर्वी अफ़्रीका होते हुए भारत तक के ट्रेड रास्ते की खोजबीन करने पहुंचे. इसके बाद किंग जॉन ने बार्थोलोम्यू डियाज़ नाम के एक जहाजी को समुन्द्र के रास्ते रवाना किया. बार्थोलोम्यू केप ऑफ गुड होप के रास्ते अफ़्रीका के दक्षिणी छोर तक पहुंचा. वापस आकर उसने राजा को बताया कि अफ्रीका को पार कर एक समुद्री रास्ता उत्तर पूर्व की ओर जाता है.
इस बीच 1495 में मैनुएल प्रथम पुर्तगाल के राजा बने. उन्होंने राजा जॉन के काम को जारी रखा. एशिया तक समुंद्री रास्ता खोजने के लिए जरुरत थी एक ऐसे जहाजी की जो लम्बी दूरी की ऐसे खतरनाक यात्रा करने के लिए तैयार हो और हुनरमंद भी. यहां पे एंट्री हुई वास्को डी गामा की.
वास्को दी गामा का सफर शुरू हुआवास्को डी गामा का जन्म 1460 से 1469 के बीच पुर्तगाल के साइनस शहर में हुआ था. उसके पिता शाही किले के कमांडर थे और मां भी कुलीन वर्ग से आती थी. इसके चलते वास्को डी गामा को पुर्तगाली नौसेना में शामिल होने का मौका मिला. इस दौरान उसने बहुत नाम भी कमाया. नौसेना में वक्त गुजारने के दौरान वास्को डी गामा की मुलाकात तब के नामी जहाजियों से हुई, जिसके चलते उसने समुद्री यात्रा के बारे में अच्छा ख़ासा ज्ञान प्राप्त कर लिया था.

किंग मैनुएल के आदेश पर आज ही के दिन यानी 8 जुलाई 1497 को वास्को डी गामा ने अपनी यात्रा शुरू की. वो अपने साथ चार छोटे जहाज, 171 आदमी, और 3 साल का राशन लेकर निकला. भारत तक पहुंचने और वहां से वापस लौटने की यात्रा की लम्बाई लगभग इक्वेटर का एक चक्कर लगाने के बराबर थी. इसलिए इस यात्रा में उसने पुर्तगाल के सबसे माहिर जहाजियों को अपने साथ रखा था. वास्को खुद साओ गेब्रियल नाम के जहाज का कमांडर था, इसके अलावा एक दूसरे जहाज, साओ राफ़ाएल को उसका भाई पाओलो कमांड कर रहा था.
यात्रा के पहले पड़ाव में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि ये रास्ता जाना पहचाना था. दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के देश सिएरा लिओन में उसने यात्रा का पहला चरण पूरा किया. इसके बाद इक्वेटर को पार करते हुए उसने लगभग 9000 किलोमीटर की दूरी 6 महीने में पूरी की. और अफ्रीका के दक्षिणी छोर तक पहुंचा. तारीख थी 16 दिसंबर 1497. पिछला जहाजी बार्थोलोम्यू डियाज़ भी यहीं तक पहुंच पाया था. यानी इसके आगे की यात्रा पर पहली बार कोई यूरोपियन जहाज निकल रहा था. क्रिसमस के रोज़ उसने इस इलाके को पार करते हुए नाम दिया, नताल. पुर्तगाली भाषा के इस शब्द का संबंध ईसा मसीह के जन्म से है.
मोजम्बीक और मोम्बासा में पड़ावआगे यात्रा करते हुए वास्को डी गामा मोज़म्बीक द्वीप पर पहुंचा, तारीख थी 2 मार्च 1498. ये द्वीप अरब साम्राज्यों के अधिकार में था. और ये इलाका भारतीय महासागर में उनके ट्रेड रुट का महत्वपूर्व हिस्सा था. मोजम्बीक द्वीप पर रहने वाले अधिकतर मुसलमान थे. ये लोग ईसाई बेड़े को देखकर हमला न कर दें, इसलिए वास्को डी गामा यहां भेष बदलकर रहा. इस दौरान उसने मोज़ाम्बीक के सुल्तान से मुलाक़ात की. ताकि पुर्तगाल और मोजम्बीक बीच एक ट्रेड समझौता कर सके.

लम्बे सफर पर जाते हुए उसने ये ध्यान नहीं रखा कि यहां के सुल्तान उससे तोहफे की अपेक्षा करेंगे. वास्को जब जब कोई कीमती चीज पेश न कर सका तो सुलतान ने उसे कोई तरजीह न दी. जल्द ही स्थानीय लोगों से उसे खतरा महसूस होने लगा था, इसलिए उसने जल्द से जल्द आगे बढ़ने में भलाई समझी. इतना ही नहीं जाते-जाते उसने अपने जहाज से द्वीप पर गुस्से में तोपों से गोले भी दाग डाले.
7 अप्रैल को पुर्तगाली बेड़ा मोम्बासा द्वीप पहुंचा. यहां भी उनके साथ वैसा ही सुलूक हुआ जैसा मोजम्बीक में हुआ था. उत्तर की ओर बढ़ते हुए 14 अप्रैल को वास्को मालिंदी के तट पर पहुंचा. यहां के सुलतान की मोम्बासा से दुश्मनी थी. इसलिए जब उसे वास्को के साथ हुए व्यवहार का पता चला तो उन्होंने पुर्तगालियों का स्वागत किया. अब तक वास्को को भारतीय व्यापारियों की कुछ कुछ ख़बरें मिलने लग गई थी. जिससे उसे पता चला कि वो सही रास्ते में है. मालिन्दी से आगे की यात्रा के लिए उसने कुछ स्थानीय लोगों को अपने साथ रखा. ये लोग मानसून की हवाओं का रुख जानते थे. इसलिए आगे की यात्रा में मददकार साबित हुए.
वास्को डी गामा मालाबार तट पहुंचा24 अप्रैल को पुर्तगाली बेड़ा मालिन्दी से आगे बढ़ा. और उन्होंने 20 मई, 1948 को खोझिकोड (कालीकट) के कप्पुडु तट पर डेरा डाला. कालीकट में जब पुर्तगाली पहली बार उतरे तो उन्हें लगा कि वहां रहने वाले लोगईसाई है. पुर्तगालियों की यात्रा डायरी में तब के कालीकट निवासियों का वर्णन कुछ इस तरह किया है,
“सांवले रंग के इन लोगों में से कुछ की बड़ी दाढ़ी और लंबे बाल हैं, जबकि अन्य अपने बालों को छोटा करते हैं या सिर मुंडवाते हैं. बालों का एक सिर्फ एक गुच्छा ताज पर रहता है, जिससे पता चलता है कि ये लोग ईसाई हैं. ये लोग कान भी छिदवाते हैं और उसमें बहुत सा सोना पहनकर रखते हैं. ये लोग कमर तक नंगे होकर चलते हैं. और कमर से नीचे एक महीन सा सूती कपड़ा पहनते हैं. लेकिन ऐसा सिर्फ सम्मानित लोगों के साथ हैं. इस देश की महिलाएं, बदसूरत और छोटे कद की हैं. वे गले में सोने के बहुत से गहने, बाहों में कई कंगन, और अपने पैर की उंगलियों पर कीमती पत्थरों से सजी अंगूठियां पहनती हैं. यहां सभी लोग अच्छे स्वभाव के हैं और पहली नज़र में वे लोभी और अज्ञानी जान पड़ते हैं"

बहरहाल जिस रोज़ पुर्तगाली पहुंचे कालीकट का राजा जिसे पुतर्गाली जामोरिन कहते थे तब अपनी दूसरी राजधानी में था. जब उसे खबर मिली कि क विदेशी बेड़ा उसके राज्य में पहुंचा है, वो तुरंत कालीकट आया और उसने वास्को डी गामा से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात के साथ ही वास्को डी गामा भारत तक समुंद्री रास्ते की खोज में सफल हो गया था, लेकिन वो कालीकट और पुर्तगाल के बीच व्यापार समझौता कराने में नाकाम रहा.
कालीकट के अरब व्यापारियों को डर था कि पुर्तगाली न सिर्फ मसालों के व्यापार पर कब्ज़ा कर लेंगे बल्कि वो यहां ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में भी कसर न छोड़ेंगे. इसलिए उन्होंने जामोरिन के कान भरने शुरू कर दिए. वास्को डी गामा जब जामोरिन के लिए कोई तोहफा नहीं पेश कर पाया, तो जामोरिन ने उन्हें नज़र बंद कर दिया. इसके बाद पुर्तगाली बेड़े से कहा गया कि वो तब तक नहीं निकल सकते जब तक वो अपना सारा सामान उतारकर उसे बेच न दें. और उससे राजा को टैक्स न चुका दें.
वास्को डी गामा दोबारा भारत आयाइसके बाद मजबूरी में वास्को डी गामा को खाली हाथ लौटना पड़ा. आते हुए मानसूनी हवाएं उसका साथ दे रहीं थी. लेकिन जाते हुए उसके जहाजों को हवाओं के विपरीत तैरना पड़ा. नतीज़तन वापस पुर्तगाल पहुंचते में उसे आने से 100 दिन ज्यादा लगे. इस पूरे सफर में उसके 120 लोगों की जान चली गई और सिर्फ 51 ही सही सलामत वापस लौट पाए.
कालीकट से वास्को डी गामा कुछ थोड़े से ही मसाले लेकर पुर्तगाल पहुंचा था. उन्हें बेचने उसे 300 गुना मुनाफा हुआ. पुर्तगाल के लिए वो हीरो बन चुका था. वास्को डी गामा की यात्रा के दो साल बाद यानी साल 1501 में राजा मैनुएल ने जंगी जहाजों के दो बेड़े, भारत के लिए रवाना किए. लेकिन यहां पहुंचने तक उनकी हालत खस्ता हो चुकी थी. कालीकट के जामोरिन अब भी उनसे संधि के लिए तैयार नहीं थे. इसलिए इस बेड़े को भी खाली हाथ लौटना पड़ा. लेकिन इसी दौरान वो कोचिन में एक पुर्तगाली फैक्ट्री लगाने में सफल हो गए.

इसके बाद साल 1502 में चौथे पुर्तगाली अर्माडा को भारत केलिए रवाना किया गया. जिसकी कमान वास्को डी गामा के हाथ में थी. लेकिन इस बार वास्को डी गामा को डिप्लोमेटिक नहीं, बल्कि एक मिलिट्री मिशन के लिए भेजा गया था. अक्टूबर 29, 1502 को वास्को डी गामा दोबारा कालीकट पहुंचा और दो दिन तक उसने तोपों के जरिए कालीकट पर गोलाबारी की. कई कोशिशों के बाद भी जब जामोरिन झुकने को तैयार नहीं हुआ तो वास्को डी गामा को वापस लौटना पड़ा. इस दौरे का एक हासिल ये रहा कि पुर्तगाली कन्नूर में एक दूसरी फैक्ट्री लगाने में सफल हो गए.
अगली एक सदी तक भारत से समुंद्री व्यापार पर पुर्तगालियों ने एकाधिकार बनाए रखा. 1600 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके एकाधिकार को तोड़ा और धीरे-धीरे डच और फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी भी इस इलाके में व्यापार करने लगी. जहां तक वास्को डी गामा की बात है, 1524 में वह तीसरी बार भारत आया. इस बार उसे भारत में पुर्तगाली वायसराय के रूप में नामित किया गया था. भारत पहुंचते ही उसने पुर्तगाली अधिकारियों के बीच बढ़ते भ्रष्टाचार को निपटाने की कोशिश की. हालांकि, कोचीन पहुंचने पर उसे मलेरिया ने पकड़ लिया और और 24 दिसंबर 1524 को उसकी मृत्यु हो गई. कोची के किले में उसे दफनाया गया और 1539 में उसकी अस्थियां वापस पुर्तगाल भेज दी गई.
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