1892 की बात है. स्वामी विवेकानंद केरल के प्रवास पर थे. एक महीना केरल में गुजारने के बाद जाते-जाते उन्होंने कहा, “केरल एक पागलखाना है.”
जब ईश्वर की धरती पर पिछड़ों को चलने का हक़ तक नहीं था
1924 में वायकम सत्याग्रह की शुरुआत हुई. केरल के वायकम में श्रीमहादेव मंदिर के आसपास की सड़क पर पिछड़ीं जाति के लोगों को चलने का अधिकार नहीं था. यहां तीन लोगों ने इस आदेश का उल्लंघन किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद सत्याग्रह पूरे जोरों से शुरू हुआ. जिसे हिंसा से दबाने का प्रयास किया गया. इस आंदोलन से पेरियार और महात्मा गांधी भी जुड़े जिसके तहत 606 दिन लम्बे चले आंदोलन के बाद पिछड़ों को इस मंदिर के पास तीन सडकों पर चलने के हक़ मिल पाया।.
ऐसा क्यों कह रहे थे विवेकानंद? इसका कारण था केरल में व्याप्त जातिवाद और छुआछूत. ऐसा नहीं कि बाकी भारत इससे अनछुआ था. लेकिन केरल में इसकी भयावता देखकर स्वामी विवेकाकंद भयंकर नाराज हुए थे.
केरल में स्वामी विवेकानंदविवेकानंद की केरल यात्रा पूर्व नियोजित नहीं थी. पहले उन्होंने तय किया था कि मैसूर से मद्रास होते हुए रामेश्वरम में अपनी यात्रा ख़त्म करेंगे. लेकिन बंगलुरु में एक मुलाक़ात ने उनका यात्रा प्लान चेंज कर दिया. बंगलुरु में स्वामी विवेकानंद की मुलाक़ात डॉक्टर पद्मनाभन पल्पू से हुई. डॉक्टर पल्पू ने मद्रास से डॉक्टरी की पढ़ाई की थी. इसलिए अलावा उन्होंने यूरोप जाकर भी ट्रेनिंग ली थी. वो केरल में मेडिकल पैक्टिस करना चाहते थे. लेकिन पल्पू इझ़वा जाति से आते थे. जिन्हें केरल में अछूत माना जाता था. इसलिए डॉक्टर पल्पू को वहां अपनी प्रैक्टिस नहीं करने दी गई.
डॉक्टर पल्पू ने स्वामी विवेकानंद को केरल में व्याप्त भयानक छुआछूत के बारे में बताया. पल्पू ने उनसे केरल यात्रा करने की गुजारिश की. इसके बाद विवेकानंद केरल पहुंचे. थ्रिसुर में उनकी तमन्ना थी कि कोडंगल्लुर मंदिर के दर्शन करें. स्वामी जब वहां पहुंचे तो पुजारियों ने उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया. उन्होंने तीन दिन इंतज़ार किया लेकिन तब भी पुजारी अंदर घुसने देने को तैयार नहीं हुए. क्योंकि वो ये तय नहीं कर पा रहे थे कि विवेकानंद ऊंची जाति के हैं या पिछड़ी जाति के. ये देखकर स्वामी विवेकानंद ने त्रावणकोर राज्य को पागलखाने की श्रेणी दी. विवेकानंद चले गए. पागलखाना ज्यों का त्यों बना रहा. फिर सालों बाद एक आंदोलन की शुरुआत हुई.
1924 का साल. गांधी उरोज़ पर थे. देश को अंग्रेज़ों से आजादी दिलाने की कोशिश हो रही थी. लेकिन साथ ही एक और आजादी थी जिसके लिए अंग्रेज़ दोषी नहीं थे. जातिवाद. साल 1924 में केरल में जातिवाद के खिलाफ एक आंदोलन शुरू हुआ. उच्च जाति के सरमायदारों से जवाब दिया, हक़ चाहिए तो कहीं और जाओ. फिर गांधी आंदोलन से जुड़े. पेरियार जुड़े और आंदोलन इतना बड़ा हो गया कि लंगर लगाने के लिए पंजाब से सिख तक केरल पहुंच गए.
आज हम आपको बताने जा रहे हैं वायकम सत्याग्रह की कहानी. इस सत्याग्रह की शुरुआत करने वाले व्यक्ति का नाम था TK माधवन. आज इनकी पुण्यतिथि है. साल 1930 में आज ही के दिन यानी 27 अप्रैल को TK माधवन का निधन हो गया था.
1805 की बात है. त्रावणकोर रियासत के वायकम कस्बे में एक मंदिर हुआ करता था. श्री महादेव मंदिर. मंदिर में पिछड़ी जातियों का घुसना मना था. लेकिन साथ ही आसपास की सड़कों पर भी सिर्फ ऊंची जाति के लोग चल सकते थे. लोक कथाओं के अनुसार 1805 में इझ़वा जाति के कुछ युवाओं ने विरोध स्वरूप मंदिर में घुसने का प्लान बनाया. लेकिन इस प्लान की खबर मंदिर प्रशासन को लग गई. उन्होंने ये बात राजा थिरुनल बलराम वर्मा तक पहुंचाई. राजा ने अपने दीवान से मामले का निपटारा करने को कहा.
मुख्य मंदिर से 150 मीटर दूर दलवाकुलम नाम का एक तालाब था. प्रथा थी कि इसी तालाब में स्नान के बाद लोग मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते थे. जैसे ही इझ़वा युवकों ने मंदिर की ओर अपना मार्च शुरू किया, हथियारबंद सैनिकों ने उन पर धावा बोल दिया. इस घटना में दर्जनों युवा मारे गए. इस घटना के बारे में ठीक-ठीक ऐतिहासिक दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है. लेकिन लोक कथाओं के अनुसार इझवा जाति के विद्रोह की ये पहली घटना थी. जिसे “दलवाकुलम नरसंहार” के नाम से जाना जाता है.
वक्त बदला लेकिन जाति प्रथा वैसी ही रही. 1865 तक त्रावणकोर में पिछड़ी जातियों को राजमार्गों पर चलने की तक मनाही थी. इसे देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी किया. नोटफिकेशन में लिखा था, सार्वजनिक मार्गों पर सभी जाति के लोगों को चलने का हक़ होगा. उच्च जाति के लोग इस आदेश के खिलाफ कोर्ट पहुंचे. कोर्ट ने तब कहा कि दो प्रकार के मार्ग होंगे. एक राजमार्ग और दूसरे ग्राम मार्ग. इसके बाद कोर्ट ने फैसला सुनाया कि सरकारी नोटिफिकेशन केवल राजमार्गों पर लागू होगा. ग्राम मार्गों पर नहीं.
महादेव मंदिर के आसपास की सड़क भी राजमार्ग थी. लेकिन उच्च जाति के रसूखदार लोगों ने इसे ग्राम मार्ग बताकर छोटी जाति के लोगों का इस रास्ते से जाना निषेध रखा. यहां तक कि इस नियम को लागू करने के लिए एक पुलिस की यूनिट भी लगा दी गई.
कैसे शुरू हुआ वायकम सत्याग्रह?आने वाले सालों में त्रावणकोर में श्री मूलम प्रजा सभा की स्थापना हुई. ये त्रावणकोर की लेजिस्लेटिव काउन्सिल हुआ करती थी. 1918 में TK माधवन इस काउन्सिल में निर्वाचित हुए. वे मंदिर में प्रवेश की मनाही और दूसरी जातिवादी परम्पराओं के विरोधी थी. साथ ही देशाभिमानी नाम से एक अखबार भी चलाया करते थे.
पेशे से वकील टी. के. माधवन का संबंध इझ़वा जाति से था. एक बार एक केस के चक्कर में उन्हें अदालत में पेश होना था. और उसी दिन राजा का भी जन्मदिन था. सजे सजाए रास्तों से जब माधवन अदालत पहुंचे तो उच्च जाति के लोगों ने उन्हें टोक दिया. और उनसे एक अलग रास्ते से होकर अदालत जाने को कहा. दूसरे रास्ते से जाने पर डेढ़ किलोमीटर दूरी बढ़ जाती थी. अदालत का समय हो चुका था और माधवन को डर था कि देर होने पर केस उनके मुवक्किल के खिलाफ भी जा सकता था. उन्होंने अनुरोध किया कि उन्हें उसी रास्ते से जाने दिया जाए. लेकिन उच्च जाति के लोग नहीं माने.
माधवन ने लेजिस्लेटिव काउंसिल में ये बात उठाई. जब वहां बात नहीं बनी तो “देशाभिमानी” के संपादक और प्रमुख कांग्रेसी नेता जार्ज जोसेफ और पी. केशवमेनन जैसे लोगों के साथ मिलकर माधवन ने आंदोलन की शुरुआत कर दी. साल 1921 में माधवन ने महात्मा गांधी से मुलाक़ात की और केरल को लोगों को सम्बोधित करने को कहा..
अगले कुछ सालों तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन और आंदोलन चलते रहे. फिर 30 मार्च 1924 को केरल में तीन दोस्तों ने इस कुप्रथा को तोड़ने की कोशिश की. कुंजप्पी, बहुलियन और वेणियिल गोविंद पणिकर हाथ में हाथ डालकर महादेव मंदिर की ओर बढ़े. मंदिर से कुछ पहले एक बोर्ड पर लिखा था ‘इझ़वा और अन्य छोटी जातियों का प्रवेश निषेध है.’ इन लोगों ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. 31 मार्च 1924 के दिन वायकम सत्याग्रह की शुरुआत हो गई. शुरुआत में ही जार्ज जोसेफ, टी. के. माधवन और केशव मेनन को गिरफ्तार कर लिया गया.
पेरियार कैसे इस आंदोलन से जुड़े?इसके बाद आंदोलनकारियों ने मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेसी नेताओं से सहयोग की अपील की. जार्ज जोसेफ और केशव मेनन ने पेरियार के नाम एक व्यक्तिगत पत्र लिखा. उन दिनों पेरियार तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे. पेरियार तब तक नास्तिक होने का का संकल्प ले चुके थे. लेकिन चूंकि मामला सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी से जुड़ा था. इसलिए पेरियार भी इस आंदोलन से जुड़ गए.
13 अप्रैल, 1924 को पेरियार वायकम पहुंचे. उन्होंने भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा,
“उनका तर्क है कि अछूत यदि मंदिर तक जाने वाली सड़कों से गुजरते हैं तो वे अपवित्र हो जाएंगीं. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि वायकम का देवता अथवा ब्राह्मण क्या महज अछूतों की उपस्थिति से अपवित्र हो जाते हैं! यदि वे मानते हैं कि वायकम का देवता अशुद्ध हो जाएगा, तब वह देवता हो ही नहीं सकता. वह महज एक पत्थर है, जिसे केवल गंदे वस्त्र धोने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है.”
पेरियार के सम्बोधन और गांधी के समर्थन के बाद बड़ी मात्रा में लोग वायकम सत्याग्रह से जुड़ने लगे. ये देखते हुए छठवें दिन ही पेरियार को गिरफ्तार कर लिया गया. एक महीने की सजा सुनाई गयी. जैसी ही पेरियार जेल से रिहा हुए, उन्हें त्रावणकोर छोड़ने का हुक्म दे दिया गया. पेरियार इसके बाद भी डटे रहे. जिसके चलते उन्हें और 6 महीने जेल में डाल दिया गया.
अब तक आंदोलन इतना बड़ा हो चुका था कि दुनियाभर से उसे समर्थन मिलने लगा था. खाने की आवश्यकता को देखते हुए पंजाब से अकालियों ने लंगर लगाने के लिए स्वयं सेवकों को भेजा. सत्याग्रहियों के भोजन की व्यवस्था का काम दो सौ से अधिक सिख स्वयंसेवक कर रहे थे.
सवर्णों का समर्थनगांधी मानते थे कि सवर्णों के जुड़े बिना ये आंदोलन अधूरा है. इसलिए उनके कहने पर 1 नवम्बर 1924 को वायकम से लेकर त्रिवेंद्रम तक 500 सवर्ण जाति के लोगों एक यात्रा निकाली. 1 नवम्बर से शुरू हुई यात्रा जब तक त्रिवेंद्रम पहुंची तब तक इस यात्रा से 5 हजार लोग जुड़ चुके थे. इन लोगों ने एक याचिका पर साइन कर महारानी सेतुबाई लक्ष्मी के सामने आवेदन किया कि मंदिर के आसपास की सड़कों को सभी लोगों के लिए खोल दिया जाए. रानी सेतुबाई ने इस आवेदन को लेजिस्लेटिव काउंसिल के आगे रखा. इस प्रस्ताव के पक्ष में 21 वोट पड़े लेकिन विपक्ष में 22.
इत्तेफाक की बात ये है कि जिसके वोट से प्रस्ताव फेल हुआ वो डॉक्टर पद्मनाभन पल्पू का भाई था. उसने उच्च जातियों द्वारा लालच में आकर प्रस्ताव के विपक्ष में वोट डाल दिया था. इस जीत से उत्साहित होकर उच्च जाति के नेताओं ने आंदोलन को दबाना शुरू कर दिया. इंदनथुरुथिल नम्बूथीरी उच्च जाति के नेता थे. उन्होंने आंदोलन को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेना शुरू किया. सत्याग्रहियों को पानी में फेंका गया. उनकी आँखों में नामक मिर्च मिला कर डाला गया. और इस बीच पुलिस आंखें बंद कर खड़ी रही. गांधी ने तब यंग इंडिया में लिखा,
“ऐसी क्रूरता के सामने कांग्रेस आंखें बंद कर देखती नहीं रहेगी. शांत सत्यग्रहियों पर गुंडों को छोड़ने से आंदोलन दबेगा नहीं. बल्कि और बढ़ेगा”
इस हिंसा के खिलाफ सत्याग्रह और व्यापक हुआ. गांधी के अनुयायी सवर्णों ने भी मंदिरों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया.
महात्मा गांधी की सवर्णों से मुलाकात10 मार्च, 1925 को गांधी स्वयं वायकम आए और उन्होंने सवर्णों के नेता नम्बूथीरी से मुलाकात की पेशकश की. नम्बूतिती ने गांधी से कहा कि वो उनसे मिलने आएं. गांधी पहुंचे तो उन्हें घर के बाहर बिठाया गया. काहे कि वो वैश्य जाति से आते थे और उनके घुसने से उच्च जाति के नम्बूथीरी का घर अपवित्र हो सकता था.
गांधी ने नम्बूथीरी के आगे अपना प्रस्ताव रखा. उन्होंने कहा कि इस प्रथा का उल्लेख किसी ग्रन्थ में नहीं है. तब नम्बूथीरी ने कहा कि आदि शंकराचार्य ने इस प्रथा की शुरुआत की थी. गांधी ने प्रस्ताव रखा कि कुछ न्यूट्रल हिन्दू पंडित शंकराचार्य के ग्रंथों अवलोकन करें और अगर उसमें ऐसा कुछ न मिले तो अवर्णों के लिए मंदिर के रास्ते खोल दिए जाएं. ताकत नम्बूतिरी के हाथ में थी. इसलिए उन्होंने ये कहते हुए इंकार कर दिया कि ये पिछड़ों के कर्मों का फल है, जो उन्हें भुगतना होगा है. गांधी चले गए. लेकिन वायकम सत्याग्रह चलता रहा. साथ ही दमन भी बढ़ता गया.
1925 में गांधी ने त्रावणकोर के कमिश्नर WH पिट को एक पत्र लिखा. पिट ने सरकार और सत्याग्रहियों के बीच एक समझौता कराया. जिसके तहत मंदिर के 4 में से तीन मार्ग छोटी जातियों के लिए खोल दिए गए. चौथी सड़क फिर भी सिर्फ सवर्णों के लिए खुली रही. सत्याग्रह कुछ हद तक सफल रहा. लेकिन अभी भी पिछड़ी जातियों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं मिली थी. फिर भी 609 दिन चले इस सत्याग्रह ने पूरे भारत का ध्यान केरल की तरफ मोड़ा और इसी के चलते साल 1936 में वायकम के मंदिर में पिछड़ी जातियों को प्रवेश की इजाजत मिल गयी.
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